पुण्यतिथि पर विशेष : संघ मेरी आत्मा
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पुण्यतिथि पर विशेष : संघ मेरी आत्मा

16 अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि थी। उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनके एक लेख को प्रस्तुत किया जा रहा है, जो आर्गनाइजर में 1995 के वर्ष प्रतिपदा अंक में प्रकाशित हुआ था

by अटल बिहारी वाजपेयी
Aug 24, 2022, 10:11 am IST
in भारत, संघ, श्रद्धांजलि
स्व. अटल बिहारी वाजपेयी

स्व. अटल बिहारी वाजपेयी

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मेरा पहला संपर्क 1939 में ग्वालियर में आर्य कुमार सभा (आर्य समाज की युवा शाखा) के माध्यम से हुआ। उन दिनों ग्वालियर रियासत थी, जो किसी भी प्रांत का हिस्सा नहीं थी। मैं एक कट्टर ‘सनातती’ परिवार से था, परंतु प्रत्येक रविवार प्रात: होने वाले आर्य कुमार सभा के साप्ताहिक ‘सत्संग’ में सम्मिलित हुआ करता था। एक दिन आर्य कुमार सभा के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता, महान विचारक और कुशल संगठक श्री भूदेव शास्त्री ने मुझसे पूछा, ‘‘आप शाम को क्या करते हैं?’’

मैने कहा, ‘‘कुछ नहीं।’’ तब उन्होंने हमें शाखा में जाने की सलाह दी। इस तरह, मैं ग्वालियर की शाखा में जाने लगा। यह संघ के साथ मेरा पहला जुड़ाव था। उस समय ग्वालियर में शाखा शुरू ही हुई थी। इसमें केवल महाराष्टÑ के लड़के ही जाते थे और स्वाभाविक रूप से सभी स्वयंसेवक केवल मराठी बोलते थे। मैं भी नियमित शाखा जाने लगा। मुझे शाखा में खेले जाने वाले खेल और साथ ही साप्ताहिक ‘बौद्धिक’ पसंद आए। ग्वालियर में शाखा प्रारंभ करने नागपुर से एक प्रचारक श्री नारायणराव तरटे आए थे। वे वास्तव में शानदार इनसान थे। बहुत ही सरल व्यक्ति, विचारक और विशेषज्ञ संगठक।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मेरे लंबे जुड़ाव
का सीधा सा कारण यह है कि मुझे संघ
पसंद है। मुझे इसकी विचारधारा पसंद
है और सबसे बढ़कर, मुझे लोगों के
प्रति, एक-दूसरे के प्रति रा.स्व.संघ
का नजरिया पसंद है, जो केवल
आरएसएस में पाया जाता है।
पिता के शव का अंतिम
संस्कार करवा दिया।

— अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री

संघ कार्य के लिए पढ़ाई छोड़ दी
आज मैं जो कुछ भी हूं, उसके पीछे श्री तरटे, दीनदयाल उपाध्याय और भाऊ राव देवरस की प्रेरणा है। ग्वालियर उस समय भाऊराव जी के कार्यक्षेत्र में नहीं था। लेकिन एक बार वे तत्कालीन बौद्धिक प्रमुख श्री बालासाहेब आप्टे के साथ ग्वालियर आए थे। आप्टे जी बेहद मृदु भाषी थे। हम शीघ्र ही उनसे प्रभावित हो गए। उस समय तो उनके साथ मेरी मात्र कुछ ही मिनट बातचीत हुई, किन्तु उसी वर्ष (1940) जब मैं प्रथम वर्ष का अधिकारी प्रशिक्षण शिविर (ओटीसी) देखने गया, तब उनके निकट संपर्क में आया। मैं वहां शिविर के समापन समारोह में भाग लेने गया था, प्रशिक्षण के लिए नहीं। डॉ. हेडगेवार भी कुछ समय के लिए वहां आए थे। मैंने सबसे पहले उन्हें वहीं देखा था। बाद में जब डॉक्टरजी बीमार थे, तब उन्हें देखने गया था। 1941 में जब मैं हाई स्कूल में था, मैंने ओटीसी प्रथम वर्ष किया। उसके बाद 1942 में जब मैं इंटरमीडिएट में था, तब ओटीसी द्वितीय वर्ष किया और 1944 में मैं बीए कर रहा था, तो तृतीय वर्ष किया। जब मैंने ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ लिखी, उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था।

ग्वालियर से स्नातक करने के बाद मैंने डीएवी कॉलेज, कानपुर से एम.ए. किया, क्योंकि ग्वालियर में कोई स्नातकोत्तर कॉलेज नहीं था। मुझे राज्य सरकार से छात्रवृत्ति भी मिली। विभाजन के चलते, मैं कानून की पढ़ाई पूरी नहीं कर सका और फिर 1947 में संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर काम करने के लिए पढ़ाई छोड़ने का फैसला कर लिया। 1947 तक पढ़ाई करते हुए मैंने शाखा स्तर पर संघ का कार्य किया था। मैंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और जेल गया। उस समय मैं इंटरमीडिएट परीक्षा की तैयारी कर रहा था। मुझे आगरा जिले के पैतृक गांव बटेश्वर से गिरफ्तार किया गया था। उस समय मेरी आयु 16 वर्ष थी।

पिताजी का संघ से कोई संबंध नहीं था, लेकिन बड़े भाई शाखा जाते थे। एक बार वे शीतकालीन शिविर में गए और समस्या खड़ी कर दी। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अन्य स्वयंसेवकों के साथ भोजन नहीं कर सकता, मैं अपना भोजन स्वयं बनाऊंगा।’’ और देखिए कि संघ के अधिकारियों ने कितनी चतुराई से स्थिति को संभाला। शिविर के ‘सर्वाधिकारी’ (अधीक्षक) ने उनके अनुरोध का मान रखा और भोजन बनाने के लिए सभी आवश्यक वस्तुएं दीं। स्नान करने के बाद और अपने पवित्र जनेऊ आदि को ठीक करने के बाद उन्होंने अपना खाना बनाना शुरू किया। पहले दिन तो उन्होंने किसी तरह स्वयं भोजन बनाया, लेकिन अगले दिन वह इसे बना नहीं सके और भोजन लेने के लिए स्वयंसेवकों के साथ कतार में शामिल हो गए। 44 घंटे के भीतर वह बदल चुके थे। रा.स्व.संघ केवल व्यक्ति को ही नहीं बदलता, यह सामूहिक मन को भी बदल देता है। यही संघ के लोकाचार का सौन्दर्य है।

1947 तक पढ़ाई करते हुए मैंने शाखा स्तर पर संघ का कार्य किया था। मैंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और जेल गया। उस समय मैं इंटरमीडिएट परीक्षा की तैयारी कर रहा था। मुझे आगरा जिले के पैतृक गांव बटेश्वर से गिरफ्तार किया गया था। उस समय मेरी आयु 16 वर्ष थी।

समाज के प्रति दायित्व
हमारी आध्यात्मिक परंपरा में एक व्यक्ति महान ऊंचाई को प्राप्त कर सकता है। यहां तक कि यदि कोई व्यक्ति सही ‘साधना’ करता है, आत्मबोध और ‘निर्वाण’ भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन समाज का क्या? सामान्यतया कोई भी व्यक्ति समाज के प्रति अपने दायित्व के बारे में नहीं सोचता। संघ ने पहली बार इस विषय में सोचा और निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति को बदल कर हमें समाज को बदलना चाहिए। यदि शिविर के सर्वाधिकारी ने उन्हें डांटा होता और उन्हें अपना भोजन स्वयं बनाने की अनुमति नहीं दी होती तो उनका आध्यात्मिक विकास बाधित हो जाता, जबकि संघ में 44 घंटे के भीतर वह लड़का बदल गया। यह संघ का ‘गुप्त तरीका’ है।

इस तरह समाज बदलता है। यह सच है कि यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसके लिए कोई शॉर्टकट, तात्कालिक उपाय नहीं है। संगठन अस्पृश्यता नहीं होने पर गांधीजी ने भी रा.स्व.संघ की प्रशंसा की थी। संघ ही समाज को संगठित करता है। अन्य आंदोलनों ने अलग ‘पहचान’, अलग-अलग ‘हितों’, विशेष ‘स्थिति’ आदि पर जोर देकर केवल समाज को बांटा। वे तथाकथित अछूतों को लगातार उनके ‘अलगाव’ की याद दिलाकर केवल अस्पृश्यता को प्रोत्साहित करते रहे। ‘‘तुम्हारा अपमान किया जा रहा है। समाज में तुम्हारा कोई स्थान नहीं है।’’ इसके स्थान पर आरएसएस दो तरह से कार्य करता है। पहला, एक मजबूत हिंदू समाज का निर्माण करना, जो अच्छी तरह से एकजुट और जाति आदि के कृत्रिम मतभेदों के परे हो। संभव है कि कुछ मतभेद बने रहें, किन्तु विविधता ही तो जीवन का आनंद है। जैसे- हमारे बीच भाषा का अंतर है। हम इस विविधता को नष्ट नहीं करना चाहते।

दूसरा काम मुसलमानों और ईसाइयों की तरह गैर-हिंदुओं को मुख्यधारा में शामिल करना है। वे अपनी आस्था के अनुसार अपनी पूजा-पद्धति का पालन कर सकते हैं। इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। हम पेड़ों, पशुओें और पत्थरों की भी पूजा करते हैं। हम सैकड़ों तरीके से ईश्वर को पूजते हैं। वे जहां चाहें, वहां जा सकते हैं। लेकिन उन्हें इस देश को अपनी मातृभूमि मानना चाहिए। उनके मन में इस देश के लिए राष्टÑपे्रम की भावना होनी चाहिए। लेकिन ‘दारूल हरब’ और ‘दारूल इस्लाम’ के इस्लामी खांचे में बंटी दुनिया आड़े आ जाती है। इस्लाम को अभी उस देश में रहने और फलने-फूलने की कला सीखनी है, जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। वे समूचे भारत को इस्लाम में कन्वर्ट नहीं कर सकते।

आखिर उन्हें यहीं रहना है। इसलिए उन्हें इस तथ्य को समझना होगा। और आज यह मुस्लिम देशों में गंभीर चिंता और गहरी सोच का विषय बन गया है। क्योंकि कुरान इस संबंध में कोई मार्गदर्शन नहीं देता है। यह केवल काफिरों को मारने या उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने की बात करता है। लेकिन वे इसे हमेशा और हर जगह नहीं कर सकते। जहां वे अल्पसंख्यक हैं वहां वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? यदि वे ऐसा करने की कोशिश करते हैं, तो एक बड़ी झड़प होगी, और केवल अल्पसंख्यक सदस्य मारे जाएंगे। अत: स्वयं मुसलमानों को इस स्थिति को बदलना होगा। उनके लिए यह परिवर्तन हम नहीं कर सकते। भारत को मानना होगा
कांग्रेस ने मुस्लिम समस्या को ठीक से नहीं समझा। वे तुष्टीकरण की अपनी नीति पर चलते रहे। लेकिन किस प्रभाव से? इस देश के मुसलमानों के साथ तीन तरह से व्यवहार किया जा सकता है। एक है ‘तिरस्कार’ जिसका अर्थ है यदि वे स्वयं को नहीं बदलते तो उन्हें उनके हाल पर अकेला छोड़ दिया जाए, उन्हें हमवतन मानने से इनकार करें।

दूसरा है ‘पुरस्कार’ जो तुष्टीकरण है, यानी उन्हें व्यवहार बदलने के लिए रिश्वत दी जाए, जो कि कांग्रेस और उनके जैसे अन्य लोगों द्वारा किया जा रहा है।

तीसरा तरीका है ‘परिष्कार’ अर्थात् उन्हें बदलना यानी संस्कार देकर उन्हें मुख्यधारा में वापस लाया जाए। सही संस्कार देकर हम उन्हें बदलना चाहते हैं। उनका मजहब नहीं बदलेगा। वे अपने मजहब का अनुसरण कर सकते हैं। मुसलमानों के लिए मक्का पवित्र बना रहेगा, लेकिन भारत उनके लिए पवित्र से भी पवित्र होना चाहिए। आप किसी भी मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ सकते हैं, रोजा रख सकते हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अगर आपको मक्का या इस्लाम और भारत में से एक का चुनाव करना है तो आपको अवश्य भारत का चुनाव करना होगा। सभी मुसलमानों में यह भावना होनी चाहिए, ‘‘हम इस देश के लिए ही जिएंगे और मरेंगे।’’ मैंने ‘हिंदू तन-मन हिंदू जीवन’ दसवीं कक्षा में पढ़ते समय लिखी थी।

मैंने तब कहा था, ‘‘कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिदें तोड़ें।’’ मैं अभी भी अपने शब्दों पर अडिग हूं। लेकिन हमने (हिंदुओं) अयोध्या में ढांचा गिरा दिया। इतिहास में यह पहली घटना थी, जब हिंदुओं ने स्वयं अपने पूजा स्थल को ध्वस्त कर दिया। वास्तव में यह मुस्लिम वोट बैंक के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी। हम इस समस्या को बातचीत और कानून के जरिए सुलझाना चाहते थे। लेकिन बुराई के लिए कोई पुरस्कार नहीं है। हम बुराई को परिष्कार से ही बदल सकते हैं। अब मुझे लगता है कि हिंदू समाज का पुनरुत्थान हो रहा है, जो रा.स्व.संघ का प्रमुख काम है। पूर्व में हमले पर हिंदू झुकते थे, लेकिन अब नहीं। हिंदू समाज में यह बदलाव स्वागत योग्य है। इतना अधिक बदलाव निश्चित ही नए स्वाभिमान की प्राप्ति से आया है। यह आत्मरक्षा का प्रश्न है। यदि हिंदू समाज ने इस ‘स्व’ का विस्तार नहीं किया तो उसे अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ेगा। हमें अपना विस्तार करना होगा। हमें दूसरों को भी साथ लेना होगा।

वोट के लिए ‘माई’ कार्ड
अब यादव और तथाकथित हरिजन भी हमारे साथ आ रहे हैं। आखिर हमें हिंदू बनकर रहना है। एक बार एक यादव नेता मेरे पास आए और बोले, ‘‘सभी यादवों की निंदा मत कीजिए। सभी यादव मुलायम सिंह और लालू प्रसाद के साथ नहीं हैं। सुसंस्कृत यादव उन्हें पसंद नहीं करते। आपको राजपूत, कुर्मी और गुर्जर मुसलमान मिल जाएंगे, लेकिन यादव-मुस्लिम कहीं नहीं मिलेंगे। यादवों ने कभी इस्लाम को स्वीकार नहीं किया। वोट के लिए ‘यादव-मुस्लिम’ एकता (माई कार्ड) की बात खोखले नारे से अधिक कुछ नहीं है।’’ रा.स्व.संघ के साथ मेरे लंबे जुड़ाव का सीधा-सा कारण है कि मुझे संघ पसंद है। मुझे इसकी विचारधारा पसंद है, और सबसे ऊपर मैं लोगों के प्रति आरएसएस के दृष्टिकोण को पसंद करता हूं, एक-दूसरे के प्रति सम्मान केवल आरएसएस में ही पाया जाता है।

 

संघ हमारा परिवार है। हम सब एक हैं। शुरुआत में हम समाज के सभी वर्गों में अपना काम नहीं फैला सके, क्योंकि हमारे पास पर्याप्त कार्यकर्ता नहीं थे। आरएसएस का मुख्य कार्य ‘व्यक्ति निर्माण’ है। आज हमारे पास अधिक कार्यकर्ता हैं, हम जीवन के सभी क्षेत्रों, समाज के सभी वर्गों तक पहुंच रहे हैं

मुझे एक घटना याद है, तब मैं लखनऊ में था। समाजवादी आंदोलन चरम पर था। अचानक एक वरिष्ठ समाजवादी कार्यकर्ता बीमार पड़ गए। वे घर में अकेले पड़े हुए थे और कोई उनका हालचाल पूछने भी नहीं गया। जब आचार्य नरेंद्र देव को इसका पता चला तो वे उन्हें देखने गए। उस समय आचार्य ने कहा, ‘‘समाजवादी पार्टी में यह कैसी प्रवृत्ति है? आपको कोई देखने भी नहीं आया। आरएसएस में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि कोई स्वयंसेवक सिर्फ एक दिन शाखा में नहीं आता है तो उसी दिन मित्र उसके घर हालचाल पूछने पहुंच जाएंगे।’’ आपातकाल के दौरान जब मैं बीमार था, मेरे परिवार के सदस्य भी देखने नहीं आए। उन्हें अपनी गिरफ्तारी का डर था। उस समय केवल आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने मेरी मदद की। देखो, आरएसएस में कितना जीवित संपर्क और भाईचारे का भाव है।’’

दरअसल, संघ हमारा परिवार है। हम सब एक हैं। शुरुआत में हम समाज के सभी वर्गों में अपना काम नहीं फैला सके, क्योंकि हमारे पास पर्याप्त कार्यकर्ता नहीं थे। आरएसएस का मुख्य कार्य ‘व्यक्ति निर्माण’ है। आज हमारे पास अधिक कार्यकर्ता हैं, हम जीवन के सभी क्षेत्रों, समाज के सभी वर्गों तक पहुंच रहे हैं। सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हो रहे हैं। लेकिन व्यक्ति निर्माण का कार्य बंद नहीं होगा। यह चलता रहेगा। इसे बढ़ना ही चाहिए, यही रा.स्व.संघ का अभियान है।

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