मेघराज भाटिया
नई बस्ती, मुल्तान, पाकिस्तान
बात सितंबर,1947 की है। उस वक्त मैं नवाबपुर के सरकारी विद्यालय में पढ़ रहा था, तभी पता चला कि मुलतान में आगजनी हुई है। कुछ देर बाद धुआं नवाबपुर के ऊपर भी दिखने लगा। यह देख सभी बच्चे डर गए। अभी कुछ ही देर हुई थी कि स्कूल के बाहर मुसलमान दंगाई पहुंच गए।
मैं बहुत मुश्किल से स्कूल से निकला, लेकिन अपने गांव नहीं जा सका। नवाबपुर में ही मेरी नानी रहती थीं। मैं उनके पास चला गया। उधर गांव में मार-काट होने लगी। मुसलमानों की धमकी के बाद सारे लोग अपनी जन्मभूमि छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। गांव से हम लोग मुलतान आए। यहां एक शिविर में रहे।
एक दिन लाउडस्पीकर से यह एलान किया गया कि ट्रेन आ गई है और शिविर में रह रहे लोगों को हिंदुस्थान जाना है। वह मालगाड़ी थी और खचाखच भरी हुई थी। गाड़ी का चालक मुसलमान था। वह गाड़ी बहुत धीरे चलाता था। जिहादी तत्व इसका फायदा उठाते। वे लोग गाड़ी पर पत्थर फेंकते। ज्यादातर लोग घायल अवस्था में फाजिल्का पहुंचे। जिस ट्रेन को 8 घंटे में पहुंचना था, वह 36 घंटे में पहुंची।
घंटों फाजिल्का रेलवे स्टेशन पर ही रहे। इस दौरान वहां जितनी भी गाड़ियां पाकिस्तान की ओर से आतीं, उनमें शव ही शव होते। डिब्बों से खून टपक रहा था। मैं उस दृश्य को आज भी कभी-कभार याद कर सुबुकने लगता हूं। फाजिल्का में हम एक सप्ताह रहे। इसके बाद हम भिवानी आए। यहां हम दो महीने रहे। इसके बाद फरवरी, 1948 में किंग्सवे कैंप, दिल्ली आ गए। यहां पिताजी ने बढ़ई का काम किया। उसी से गुजारा होता रहा।
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