ओमप्रकाश शर्मा
लाहौर, पाकिस्तान
विभाजन के समय मैं 22 साल का था। हमारा परिवार लाहौर के शाहआलमी दरवाजे के अंदर पुराने शहर में रहता था। हिन्दुओं के दूसरे मुहल्ले भी थे-कृष्णनगर, श्यामनगर आदि। बाद में हम पुराने शहर से कृष्णनगर आ बसे थे। लाहौर में भी यह चर्चा चलने लगी थी कि बंटवारा होगा। उस वक्त उन्मादियों के विरुद्ध हिन्दू एकजुट होने लगे थे। आपस में सलाहें होती थीं।
संघ के कार्यकर्ता भी मदद के लिए आते रहते थे। वहां हिन्दुओं के कैंप थे- प्रताप, मिलाप, वीरबहादुर आदि। मैंने खुद संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण किया हुआ है।
लाहौर में मैं संघ का जिला कार्यवाह रहा था। वहां बंटवारे की ताजा खबरें पता चलती रहती थीं। लाहौर में उन दिनों मुस्लिमों के उग्र प्रदर्शन हुआ करते थे। वे नारे लगाते थे-‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, ‘हिन्दुओ, यहां से चले जाओ’।
ऐसे में हिन्दुओं को वहां खतरा पैदा होता दिखाई देने लगा। हालांकि कोई बहुत ज्यादा हिंसा तो वहां नहीं दिखाई देती थी। मेरे पिताजी उन दिनों शक्करगढ़ में थे। हम अपने बड़े भाई के परिवार के साथ रहते थे। हम भी हिन्दुओं के जत्थे बनाकर स्वतंत्रता की लड़ाई में सहयोग देते थे। विभाजन के बाद हमारा परिवार दिल्ली आ गया। और परिवार भी साथ थे।
रास्ते में मुसलमानों ने हमारी टोली पर हमला भी बोला, कई लोगों को मार डाला। लेकिन हम किसी तरह बचते-बचाते दिल्ली में एक शरणार्थी शिविर पहुंचे। वहां शिविर का कमांडेंट था टोपनदास। वह एक भला सिंधी आदमी था। मैंने उससे रहने के लिए मकान दिलाने के लिए मदद करने को कहा। उसने फिर पहाड़गंज में एक शरणार्थी कॉलोनी में मकान दिला दिया। मैंने यहां पढ़ाई पूरी की।
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