नानकचंद नारंग
झंग, पाकिस्तान
बंटवारे के दिनों में मैं करीब साढ़े छह साल का था। पाकिस्तान बनने का शोर सुनाई देने लगा था। हमारे यहां भी हिन्दू—मुसलमान तनाव बढ़ता जा रहा था। मुसलमान आक्रामक होते जा रहे थे।
वे चाहते थे कि यहां के सारे हिंदू अपना सब कुछ हमारे हवाले करके हिन्दुस्थान चले जाएं। उन दिनों हम भाई-बहन माताजी के साथ मामाजी की शादी के लिए नानी के घर गए हुए थे, गए तो पिता जी भी थे लेकिन वे शादी के फौरन बाद अपने गांव चले आए थे। हमारी नानी के गांव में गिने—चुने हिन्दू परिवार रहते थे।
तो हालात बिगड़ते देख गांव के प्रधान ने एक बस की व्यवस्था करके हिन्दू परिवारों को उसमें बैठाकर सरगोधा भिजवा दिया। वहां हिन्दुओं के लिए एक कैंप लगाया गया था। हम सब उसमें जाकर रहने लगे। तब बीच—बीच में प्रधान जी आकर जरूरत की चीजें दे जाया करते थे, बड़ी मदद की थी उन्होंने
कुछ समय शिविर में बिताने के बाद, हम अपने मामा के साथ, बाकी लोगों के साथ सरगोधा से चंडोर नहर के पास चले गए। दूसरी तरफ हमारे गांव से हमारे पिताजी भी और लोगों के साथ नहर तक आ पहुंचे। फिर हम सब लायलपुर आए। हम लोग तो अपने पिताजी के साथ हिन्दुस्थान के लिए बढ़ गए, लेकिन मामा जी बाद में काफिले के साथ हिन्दुस्थान पहुंचे थे।
खैर, रास्ते में एक जगह दंगा-फसाद देखकर, पिताजी मुझे लेकर एक नाले में छिप गए और महिलाओं को पास के एक घर में छिपा दिया। हमारा सारा सामान लुट गया। पर जान बच गई। अगले दिन हम ट्रेन से अमृतसर आए। वहां घोषणा हुई कि लायलपुर-झंग से आए लोगों के लिए कुरुक्षेत्र में कैंप लगाया गया है, वहां चले जाएं। वहां सबको रहने की जगह मिलेगी।
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