रमेश चंद्र कपूर
लाहौर, पाकिस्तान
उस समय भारत विभाजन नहीं हुआ था। चारों तरफ से अनहोनी की खबरें आ रही थीं। हालात खराब देखकर हमने दुकानों पर ताला लगाया और विभाजन के 15 दिन पहले यह सोचकर पाकिस्तान से निकल गए कि कुछ दिन में माहौल शांत हो जाएगा तो लौट आएंगे। पर 15 अगस्त, 1947 के बाद हालात बिगड़ते चले गए।
एक दिन मैं स्नान कर रहा था। तभी बाहर शोर सुनाई दिया। बाहर से गोलियों के चलने की आवाजें आ रही थीं। इसके बाद भगदड़ मच गई। मां घबरा गई। उन्होंने देखा कि मैं घर में नहीं हूं। उन्होंने दरवाजे के बाहर झांका। मैं बाहर था। उन्होंने फटाफट मुझे अंदर खींचा और दरवाजे-खिड़कियां बंद कर दीं। इसी के बाद लोगों ने घरों को छोड़ना शुरू कर दिया।
हम लाहौर से ट्रेन से भारत पहुंचे। हालत यह थी कि बच्चों को ट्रेन में सामान की तरह ठूंस दिया गया था। पिताजी ने हमें भी उसी तरह खिड़की से अंदर ठूंस दिया। भीड़ इतनी थी कि आपाधापी में किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। सब जान बचाने में लगे हुए थे।
ट्रेन में लोग बिना कुछ देखे-सुने सामान अंदर फेंक रहे थे। इसी दौरान हम दो बच्चे सामान के नीचे दब गए। हमारा दम घुट रहा था। हम नीचे से चीख-चिल्ला रहे थे, लेकिन हमारी आवाज किसी को सुनाई नहीं दे रही थी। इतने में इस तरफ किसी की नजर पड़ी तो उसने फटाफट सामान हटाया, तब जाकर जान में जान आई।
हम किसी तरह हिमाचल में धर्मशाला होते हुए प्रेमनगर शरणार्थी शिविर पहुंचे। हमसे कहा गया कि जब तक माहौल शांत नहीं होता, तब तक वहीं रहिए। इसलिए हम लोग वहीं रहने लगे। कुछ दिन बाद देश का बंटवारा हो गया। ल्ल
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