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विभाजन : ‘अंत्येष्टि के लिए अनुमति’

मेरा जन्म 22 अक्तूबर, 1930 को झेलम जिले की चकवाल तहसील में हुआ। पिताजी ठेकेदार थे। चकवाल में कामकाज नहीं था, इसलिए 10वीं की पढ़ाई के बाद हमें सरगोधा जाना पड़ा।

by पश्चिम यूपी डेस्क
Aug 20, 2022, 05:13 pm IST
in भारत
सुरेंद्र कुमार मैनी

सुरेंद्र कुमार मैनी

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सुरेंद्र कुमार मैनी

चकवाल, झेलम, पाकिस्तान

मेरा जन्म 22 अक्तूबर, 1930 को झेलम जिले की चकवाल तहसील में हुआ। पिताजी ठेकेदार थे। चकवाल में कामकाज नहीं था, इसलिए 10वीं की पढ़ाई के बाद हमें सरगोधा जाना पड़ा। 1946 तक वहां सब कुछ ठीक था। लेकिन जनवरी 1947 में पाकिस्तान बनने की सुगबुगाहट होते ही माहौल खराब होने लगा था। चकवाल में तीन स्कूल थे।

डीएवी स्कूल जिसमें केवल हिंदू, खालसा स्कूल में सिख और सरकारी स्कूल जिसे इस्लामी स्कूल भी कहा जाता था, उसमें 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान छात्र पढ़ते थे। 1947 की शुरुआत से ही उत्तर-पूर्व से मुसलमानों के उपद्रव की खबरें आने लगी थीं। स्थिति यह हो गई थी कि मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं के शवों की अंत्येष्टि के लिए मुसलमानों से अनुमति तक लेनी पड़ रही थी।

कभी-कभी शव दो दिन तक पड़े रहते थे। बाद में तो मुसलमानों ने साफ मना करना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में हमने जुलाई के दूसरे सप्ताह में जम्मू जाने का फैसला किया। वहां मेरे नाना रहते थे। निकलने से पहले हम चकवाल जाकर सामान भी नहीं ले सके।

किसी तरह हम जुलाई के अंत में ट्रेन से जम्मू पहुंचे। वहां नाना रहते थे। जम्मू से तीन दिन पैदल चलकर हम अमृतसर स्टेशन पहुंचे। उन दिनों बिछड़े परिवारों का पता लगाने का एक ही माध्यम था-आल इंडिया रेडियो। उस कठिन समय में रा.स्व.संघ और गुरुद्वारा साहिब की ओर से हमारी बहुत मदद की गई।

लोगों को खाने से लेकर उन्हें दूसरे स्थानों तक पहुंचाने में संघ के स्वयंसेवक लगे हुए थे। अमृतसर से हम मालगाड़ी से अंबाला आए और रेडियो पर संदेश भेजना शुरू किया, जिसे सुनकर परिवार के दूसरे लोग भी आ गए।

Topics: हिंदुओं के शवों की अंत्येष्टिसंघ के स्वयंसेवकहिंदूखालसा स्कूल
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