हरवंशलाल पाहवा
सिकंदराबाद, पाकिस्तान
उन दिनों मुल्तान जिले की तहसील शूजाबाद में सिकंदराबाद एक छोटी सी जगह थी। पिताजी सब्जी की आढ़त चलाते और लकड़ी का भी कारोबार करते। वहीं मेरा जन्म 1942 में हुआ। एक दिन कुछ बच्चों के साथ खेल रहा था कि अचानक घर में भगदड़ मच गई। घर वालों ने कहा कि अब यहां नहीं रहना है।
सब सामान समेटने लगे। फिर एक बैलगाड़ी में हम बच्चों को बैठाया गया और गाड़ीवान से कहा गया कि जितनी तेज चला सकते हो, चलाओ। कुछ घंटों बाद हम शूजाबाद पहुंचे। नहर के किनारे एक शिविर था। हमें वहीं रखा गया। एक रात किसी ने नहर का पानी शिविर की ओर छोड़ दिया। इससे पूरी जमीन गीली हो गई। जो भी थोड़ा-बहुत सामान था, गीला हो गया। दिक्कतों के बावजूद कुछ दिन वहीं रहे।
कुछ दिन बाद हमें शूजाबाद रेलवे स्टेशन ले जाया गया और एक माल गाड़ी में बैठाया गया। वह गाड़ी सिकंदराबाद, मुल्तान के रास्ते आगे बढ़ी। रास्ते में कई बार मुसलमानों ने गाड़ी को रोका, लेकिन गाड़ी में तैनात गोरखा सैनिकों ने उन्हें डरा-धमकाकर भगाया। कभी बल प्रयोग भी किया। फिर भी दो जगह मुसलमानों ने रास्ते में गाड़ी से कुछ लोगों को खींच लिया। उनमें एक मेरे भाई भी थे। हालांकि सैनिकों ने तुरंत कार्रवाई कर उनकी जान बचाई।
उस वक्त की स्थिति को देखकर सभी रोने लगते थे। हर कोई अपने इष्ट देव को याद करता था कि हे प्रभु! जान बचा लो। प्रभु की कृपा ही रही कि हमले के बाद भी हमारी गाड़ी के सभी लोग सुरक्षित रहे। तीन दिन बाद हमारी गाड़ी फिरोजपुर (पंजाब) पहुंची। वहां से हमें फिरोजपुर झिरका (हरियाणा) लाया गया। बाद में हम गुड़गांव और उसके बाद दिल्ली आ गए।
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