चंद्रभान मनचंदा
बलूचिस्तान, पाकिस्तान
बलूचिस्तान में फोर्ट सेंडेमन के छावनी इलाके के एक हिस्से का शहरीकरण करके वहां बस्ती बसाई गई थी, जहां हमारा घर था। वहां 50-60 हिन्दू परिवार ही रहते थे। पिताजी की आटा चक्की थी। हम संपन्न थे और समाज में मान था। मेरा जन्म 15 सितंबर, 1938 को हुआ था। बंटवारे के समय मैं 9 साल का था, सरकारी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मार्च, 1947 में बंटवारे के शोर के बीच डेरा इस्माइल खान में गुरुद्वारा और हिन्दुओं की दुकानों को जलाने की एक बड़ी घटना हुई थी।
इससे मेरी मां बहुत घबरा गई। उन्होंने ही परिवार और रिश्तेदारी में कहना शुरू किया कि माहौल खराब हो रहा है, हमें यहां से निकलना चाहिए। एक दिन मुस्लिम लड़के मुझे मारने के लिए पीछे पड़ गए। जून-जुलाई की बात है। पिताजी का मन नहीं था, पर मां की जिद पर कुछ जरूरी सामान दो ट्रंक में लेकर हम करीब 250 मील दूर डेरा गाजी खान पहुंचे।
वहां करीब दो-ढाई महीने रहे। फिर हम 11 परिवार ट्रेन से जालंधर आ गए। उस समय तक उतनी मारकाट शुरू नहीं हुई थी। हम तीन परिवारों ने ग्वालियर बसने का मन बनाया था, पर गुड़गांव स्टेशन पर कुछ परिचित पंजाबी परिवारों के कहने पर गुड़गांव में उतर गए।
गुड़गांव में मेरा स्कूल में दाखिला कराया गया। पिताजी ने परचून, अनाज की दुकान खोली। उससे पहले पैसे की तंगी इतनी थी कि मैं टॉफियां बेचकर कुछ पैसे की मदद करता था। 2006 में मैं लाहौर, रावलपिंडी, पंजा साहिब, करतारपुर आदि पांच गुरुद्वारों के दर्शन के लिए गया था। बड़ा मन था कि डेरा गाजी खान में अपने जन्मस्थान को देखूं, पर वहां हालात सामान्य न होने के कारण सरकार ने जाने की इजाजत नहीं दी।
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