सतनाम सिंह
दंदियां-सबोके, गुजरांवाला, पाकिस्तान
मैं करीब 11 साल का था, छठी कक्षा में पढ़ता था। मुस्लिम लीग की जिद पर 15 अगस्त, 1947 को देश बंट चुका था। ऊहापोह में करीब एक महीना निकल गया, हालात और खराब हो गए। हमारा घर बहुत बड़ा था।
हालात तो कई दिनों से बिगड़ रहे थे, लेकिन जब पड़ोस के गांव वाले हमारे यहां आकर छुपे तब, हमारे परिवार ने भी थोड़ा-बहुत पैसा साथ लेकर निकलने का फैसला किया। घर में दादीजी, माताजी-पिताजी और मेरी छोटी बहन थी। नहर किनारे चलते हुए हमने शाम को रावी से ठीक पहले गांव के बाहर डेरा डाला। काफिले में हजारों लोग इकट्ठे हो चुके थे।
अगले दिन रावी पार किया। उससे पहले मुसलमानों के एक जत्थे ने काफिले पर हमला तो किया था, पर हमारे लोगों ने बहादुरी से उनका मुकाबला करके उन्हें भगा दिया। रावी पार कर कुछ लोग तो आगे बढ़ गए, लेकिन हम जैसे बहुत से इस तरफ फंसे रहे। रातभर बारिश के कारण पानी चढ़ गया था।
हम जिस टापू जैसी जगह पर टिके थे, वहां भी पानी भर गया। पांच दिन हमने कमर तक पानी में खड़े रह कर काटे। पिताजी ने एक बजरे वाले को हम बच्चों को नदी पार कराने के लिए पैसे दिए। परिवार की महिलाओं और बच्चों को सामान का एक टीला जैसा बनाकर उस पर बैठा दिया गया। बारिश थमने के बाद एक दिन हवाई जहाज ने खाने का सामान, रोटियां गिराई।
पानी घटने पर नदी पार कर पैदल हम अमृतसर आए। साथ का सब सामान जाता रहा, पैसे भी लगभग खत्म हो चुके थे। अमृतसर में लोगों ने हम जैसों के लिए घर-घर लंगर खोले हुए थे। कुछ दिन बाद लुधियाना के परिचितों ने बुला लिया। कुछ महीने बाद देहरादून चले गए। कुछ साल बाद हम दिल्ली आ गए।
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