सादा सिंह
महार, सियालकोट, पाकिस्तान
भारत का विभाजन हो चुका था। बदली हुई परिस्थिति में क्या करना है, इसके लिए 22 अगस्त, 1947 को कस्बे के लोग बैठक कर रहे थे। उसी समय अचानक मुसलमानों ने हमला कर दिया। मुसलमान पुरुषों को बुरी तरह पीट रहे थे, कुछ महिलाओं को पकड़ रहे थे और कुछ लूटपाट कर रहे थे। मुसलमान अनेक महिलाओं को अपने साथ ले गए। वे महिलाएं फिर कभी नहीं लौटीं। उसी दिन हम सभी घर छोड़कर भारत की ओर पैदल ही बढ़े।
हमारा कस्बा भारत की सीमा से सिर्फ छह मील दूर था, लेकिन सीमा तक पहुंचने में दो दिन लग गए। रास्ते में भी हमले हुए। बच्चे भूख से तड़प रहे थे। दो दिन तक किसी को खाना नहीं मिला। अनुमान लगा सकते हैं कि किन कठिनाइयों को पार करके हमारा काफिला अमृतसर पहुंचा होगा। 15-20 दिन वहां रहे। इसके बाद राजपुरा और भठिंडा में रहे। 1948 के अंत में हमारा परिवार दिल्ली आ गया।
मेरी पांच बहनें थीं। तीन की शादी पाकिस्तान में ही हो गई थी। मेरी दो बहनें, मैं और मेरे माता-पिता साथ आए थे। मेरी तीनों बहनें भी ससुराल वालों के साथ भारत के लिए चली थीं। दो तो आ गईं, लेकिन सबसे बड़ी बहन नहीं आ सकीं। वह अपने घर वालों के साथ जम्मू के लिए निकली थीं, लेकिन रास्ते में मुसलमानों ने घेरकर मार दिया।
पिताजी लकड़ी का कारोबार करते थे। हमारा परिवार बहुत सुखी था, बड़ा घर था, लेकिन मजहबी उन्माद ने सब कुछ खत्म कर दिया। उन दिनों मैं नौंवी में पढ़ता था। मुसलमानों के साथ दोस्ती भी थी, लेकिन जब भारत का बंटवारा हो गया तो वे लोग बिल्कुल बदल गए। वाहे गुरु से यही अरदास है कि फिर ऐसी स्थिति पैदा न हो।
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