स्वर्णजीत सिंह
गुजरांवाला, पाकिस्तान
बंटवारा होने के बाद, सितम्बर 1947 की बात है। मैं करीब 8 साल का था। हम गुजरांवाला में रहा करते थे, हमारे घर के पास मुसलमानों के भी घर थे। हमारा करीब 200 गज का पक्का घर था, पास में 300 गज की जगह पर हमारी दुकानें थीं और उससे कुछ दूर, करीब 500 गज के प्लाट में हमारी आरा मशीन चलती थी।
बंटवारे के दिनों में गुजरांवाला के हमारे गांव में रहने वाले हमारे परिचित एक सूबेदार ने लाहौर में अपने बेटे कर्नल जसंवत सिंह को फोन करके बताया कि हमारे यहां हालात खराब हो चले हैं, आसपास के गांव के हिन्दू—सिख हमसे रक्षा की उम्मीद में काफिले बनाकर हमारे गांव में डेरे जमा रहे हैं। मुसलमानों के हमलों का खतरा बढ़ता जा रहा है।
अगले दिन कर्नल जसवंत ने हवाई जहाज से हमारे गांव के उपर दो चक्कर काटे और बम गिराकर हमारे गांव के बाहर नहर पर बना पुल उड़ा दिया, क्योंकि उसी से होकर दंगाई मुसलमान हमारे यहां आकर फसाद करते थे।
अगले दिन कर्नल साहब सेना के 8-10 ट्रक लेकर हमारे गांव आए और हम सब तहसील पहुंचे। कुछ दिन ऐसे दसका के कैंप में कटे, फिर सभी को स्टेशन ले जाया गया। हमारी गाड़ी के मुसलमान ड्राइवर ने रावी पुल से पहले गाड़ी रोक दी। अंधेरा हो चुका था। खतरा बढ़ने के डर से सब लोग पटरियों के सहारे पैदल आगे बढ़ने लगे। हमारे पैरों के नीचे कटी लाशें पड़ी थीं।
हम जैसे तैसे डेरा बाबा नानक पहुंचे। अगले दिन अमृतसर से सईदोपुरा पहुंच गए। आगे हम वहां से हिसार आ गए। उसके बाद हमारा परिवार कुछ महीने जीवननगर में रहा। फिर 1952 में हम लोग दिल्ली आ गए। यहां आरामबाग में टैंट लगाकर रहे। बहुत—बहुत मुश्किलों से गुजरे हम।
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