जीवन प्रकाश कालरा
हस्सूबेलाल, झंग, पाकिस्तान
बंटवारे के वक्त मैं 11 साल का था और हस्सूबेलाल मदरसे (स्कूल को मदरसा ही कहा जाता था) में कक्षा 5 में पढ़ता था। मुझे याद है वह 1947 का सितम्बर महीना था। जबरदस्त खौफ का माहौल था। मैं भूला नहीं हूं कि कैसे हजारों महिलाएं, पुरुष, बुजुर्ग अपने बच्चों को कंधे पर बैठाए और हाथों में पोटलियां थामे तपती दोपहरी में पैदल 6 मील चले थे।
मिलिट्री के संरक्षण में वहां से निकालकर बिना छत वाली मालगाड़ियों में बैठाया गया। गाड़ी अटारी पहुंचकर खड़ी हो गई। वहां संघ के स्वयंसेवकों ने समाज सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। लोगों की हर तरह से मदद की।
2-3 दिन गाड़ी वहीं खड़ी रही। न खाने को कुछ था, न पीने को पानी। छोटे बच्चे प्यास से बिलख उठते थे। भारत आकर हम लोग टैंटों वाले कैंप में रहे, कई महीने। मुझे याद है गुजारे के लिए मेरे बड़े भाई आटे का हलवा बनाकर उसे परात में रखकर सड़क पर बेचने जाते थे।
जिला मरदान, तहसील खानेवाल से आए हमारे चाचाजी के बेटे धरमजी दास वहां दुकान चलाते थे। कुछ महीने बाद हम लोग कुरुक्षेत्र आ गए। वहां भी बहुत बड़ा कैंप लगा हुआ था। वहां हम करीब 6 महीने रहे। वहीं राशन मिलता था। दाल, चावल, आटा। दो दो, तीन तीन परिवार एक टैंट में रहते थे, सब लकड़ी के चूल्हों पर खाना बनाते थे।
हमारे एक पहचान वालों ने कुरुक्षेत्र के एक स्कूल में हम भाई-बहन का दाखिला करा दिया। झंग में तो मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था, लेकिन यहां मेरा चौथी कक्षा में दाखिला कराया गया। कुरुक्षेत्र से 6 महीने बाद हम कैथल आ गए, जहां हमें सरकार की तरफ से रहने को एक मकान दिया गया था। दसवीं तक वहीं पढ़ने के बाद, मैंने बढ़ईगीरी की।
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