वेदव्यास महाजन
सियालकोट, पाकिस्तान
जब बंटवारा हुआ तो मैं छह बरस का था। मेरा गांव बिल्कुल सीमा पर था। उन दिनों जब ज्यादा हालात खराब हुए तो हमारे गांव से भी पलायन होने लगा। 500 से ज्यादा सिखों का एक जत्था पाकिस्तान से हिन्दुस्थान आने के लिए तैयार हो गया। लेकिन तब तक कुछ बहुरूपिये मुसलमान गांव आ गए। मुसलमानों ने जत्थे के लोगों से कहा कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की रियासत में हथियार लेकर आना मना है तो जिनके पास जो भी अस्त्र-शस्त्र हों, वे दे दें।
जत्थे में जवान और बुजुर्ग दोनों थे। पर जवानों ने हथियार देने से साफ मना कर दिया। तो मुसलमानों ने उन्हें समझाया कि हम सभी आपको आसानी से सीमापार करा देंगे, हम आप से जैसा कहते हैं, वैसा करिए। लेकिन जैसे ही जत्थे के सभी लोगों ने अपने हथियार मुसलमानों को सौंपे, मुसलमानों ने उन्हें मारना-काटना शुरू कर दिया।
लड़कियों की इज्जत को तार- तार किया जाने लगा। जिसने भी इसका विरोध किया, उसे वहीं काट दिया और पास के कुएं में फेंक दिया। कुछ औरतें और लड़कियां अपनी इज्जत बचाने के लिए स्वयं कुएं में कूद गई। सारा कुआं लाशों से पट गया।
जिहादियों ने जत्थे के सभी लोगों को काट डाला था। इस खबर को सुनकर पूरा गांव सन्न था और सभी सहमे हुए थे। इसके बाद धीरे-धीरे सभी हिंदुओं ने गांव से पलायन करना शुरू कर दिया। अगले दिन वहां का मुस्लिम जैलदार जो 40 गांवों का मुखिया था, हमारे घर आ धमका और हमारी ताई से कहा कि आपके पास जो जेवर हैं, उन्हें हमें दे दो और यहां से जान बचा के भाग जाओ। लेकिन ऐसा न करने पर उन्होंने परिवार को बंधक बना लिया।
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