गोपाल दास खुराना
चूनेवन, मुल्तान
भक्त प्रह्लाद की नगरी मुल्तान में मेरा जन्म हुआ। ऐसी नगरी में जन्म लेना सौभाग्य की बात थी, लेकिन वह सौभाग्य जल्दी ही दुर्भाग्य में बदल गया। 1946 के मध्य से ही मुलतान में हिंदुओं के घरों में आगजनी होने लगी थी। हमारा मकान तीन मंजिला था। मकान की छत से आगजनी का मंजर देखते थे। छोटी-सी बात पर हिंदुओं के घरों में आग लगा दी जाती।
मुझे खूब याद है, एक बार हिंदुओं ने धार्मिक जुलूस निकाला। जैसे ही वह जुलूस मुस्लिम इलाके में गया, मुसलमान अपने घरों की छत की दीवार को तोड़-तोड़कर उन पर ईंट बरसाने लगे। यानी वे लोग हिंदुओं को मारने के लिए कुछ भी करते थे।
1947 के जुलाई-अगस्त में मुल्तान में ऐसा लगता था कि चारों ओर मौत मंडरा रही है। इन हालात में हम लोगों ने घर का सारा कीमती सामान एक कमरे में रखा और उसके दरवाजे पर भी प्लास्टर करवा दिया और इस आस के साथ निकल गए कि जब लौटेंगे तो सामान सुरक्षित मिल जाएगा, क्योंकि हमें यह नहीं पता था कि हम दुबारा वापस नहीं आएंगे।
घर से निकल कर हम लोग मुहल्ले के पास ही बने एक शिविर में चले गए। वहां बहुत भीड़ थी। सबकी अपनी-अपनी कहानी थी। वहीं कुछ दिन रहे, फिर हमें पुलिस के पहरे में मुलतान रेलवे स्टेशन ले जाया गया। हमारी गाड़ी भारत आने वाली आखिरी गाड़ी थी। वह मालगाड़ी थी यानी उस पर छत नहीं थी।
गाड़ी दिन में चली। रात में तो एक स्टेशन पर मुसलमानों की पूरी भीड़ थी। उन्होंने हम पर हमला कर दिया। दूसरे दिन हम लोग फाजिल्का पहुंचे। फाजिल्का से भिवानी, गुड़गांव और फिर दिल्ली आए। यहां आकर मैंने एक चाय दुकान में बर्तन धोने का काम किया और मेरे भाई खारी बावली से खोया लेकर पेड़े तैयार करते और रेलवे स्टेशन पर बेचा करते। इस तरह से हमने जिंदगी शुरू की।
टिप्पणियाँ