अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने नूपुर शर्मा को राहत देते हुए उनके खिलाफ दर्ज तमाम प्राथमिकी को दिल्ली स्थानांतरित करने का आदेश दिया। साथ ही उनकी गिरफ्तारी पर रोक जारी रखी। न्यायालय ने इस बात को भी स्वीकार किया कि नूपुर शर्मा को प्राण का संकट है।
इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के ही आदेश से मुहम्मद जुबैर की रिहाई हो गई क्योंकि अदालत को उन्हें ‘आजादी से वंचित’ रखने का कोई कारण नहीं नजर आया। एक लोकतांत्रिक देश में किसी नागरिक को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा समीक्षा के मूल अधिकार के वंचित नहीं किया जा सकता, इसलिए यह निर्णय ठीक भी था। हालांकि समान अधिकार के प्रयोग के कारण नूपुर शर्मा इसी अदालत में अपमानित हुईं एवं मजहब-विशेष के लोगों द्वारा उनकी हत्या की घोषणा भी की जा रही है।
संविधान के भाग-3 को ‘मैग्ना कार्टा’ की संज्ञा दी गई है, क्योंकि इसके अनुच्छेद 12 से 35 तक में मूल अधिकारों का वर्णन है। मूल अधिकार, जिनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समीक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 19क) भी शामिल है। ये एक तरह के परंपरागत नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार हैं। इनका तात्पर्य ही यही है कि वे लोकतंत्र के आदर्शों को जीवंत बनाए रखें और उनकी उन्नति में सहायक हों। मूल अधिकार किसी व्यक्ति की भौतिक एवं नैतिक सुरक्षा तथा उसके व्यक्तिगत सम्मान को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। ये असीमित नहीं अपितु वाद-योग्य होते हैं। राज्य द्वारा उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया जा सकता है, लेकिन इनके पीछे के कारणों के उपयुक्तता का निर्णय देश की अदालत करती है। जुबैर अपने मूल अधिकारों की अधिकारिता के दावे के साथ मुक्त हो गए। नूपुर शर्मा के पास भी वही अधिकार हैं लेकिन वे अभी भी उन प्रताड़नाओं की बंदी हैं, जो कानून के अलावा मजहबी उन्माद पर आधारित है।
मूल अधिकारों का एक नकारात्मक पहलू इसका महंगा उपचार है। इस देश की न्यायिक प्रक्रिया आम आदमी के आर्थिक शक्ति के बूते के बाहर है, इसीलिए भारतीय समाज में अधिकार सुविधा मूलत: धनाढ्य एवं संभ्रांत वर्ग के लिए ही उपलब्ध है। जुबैर जैसे आर्थिक रूप से समर्थ लोग अपने अधिकार के लिए न्यायालय जा सकते हैं, किंतु इस समाज का एक बड़ा तबका इसमें सक्षम नहीं है। अगर होता तो कन्हैयालाल (उदयपुर) एवं उमेश कोल्हे (अमरावती) भी अपने वाक्-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण ले सकते थे और सुरक्षा मांग सकते थे। तब संभवतः इन्हें अपने प्राण न गंवाने पड़ते।
नूपुर शर्मा एवं जुबैर के मामले समान दिखते हुए भी भिन्न हैं। नूपुर का मसला समीक्षा के अधिकार से जुड़ा है, जबकि जुबैर का मसला भ्रामक एवं गलत सूचनाएं प्रसारित करने के साथ ही सुनियोजित तरीके से सनातन समाज को अपमानित करने के कुत्सित षड़यंत्र का हिस्सा है। जुबैर ने समीक्षा के अधिकार का उपयोग सनातन धर्म की मान्यताओं के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग कर उसके अनुयायियों को नीचा दिखाने के लिए किया है। वास्तव में यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समीक्षा के अधिकार तथा शाब्दिक विषवमन और अभद्र भाषा के प्रयोग के मध्य के अंतर है। विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट में अभद्र भाषा (हेट स्पीच) को मुख्य रूप से नस्ल, जातीयता, लिंग, यौन, धार्मिक विश्वास आदि के खिलाफ घृणा को उकसाने के रूप में परिभाषित किया गया है। यह निर्धारित करने के लिये कि भाषा अभद्र है या नहीं, भाषा का संदर्भ एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
वैचारिक बहुलता के प्रसार तथा मानव सभ्यता के उन्नयन हेतु मुक्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है, किंतु अभद्र भाषा का प्रयोग (अनु. 19 ए) इस अधिकार का अपवाद है। उच्चतम न्यायालय ने ‘एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम’ मामले (1989) में अभिव्यक्ति और उसके कारण सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने की संभावना क़ो ‘बारूद के ढ़ेर में चिंगारी’ के समान बताया था। इसके बाद सनातन मान्यताओं को अपमानित करने के बावजूद जुबैर सम्मान के साथ देश में विचरण करने को स्वतंत्र है जबकि इस्लामिक मान्यताओं की समीक्षा के कारण नूपुर का जीवन क़ानूनी कार्यवाहियों एवं हत्या की धमकियों के बीच अर्द्ध-बंदी सरीखा है।
इन विवादों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार के संरक्षण की जो जिम्मेदारी देश के सर्वोच्च न्यायालय की है, आश्चर्यजनक रूप से उसका निर्वहन अत्यंत चयनित तरीके से हुआ। जो न्यायालय जुबैर के मूल अधिकारों के प्रति इतना सहृदय था, उसने नुपुर शर्मा पर क्रोधपूर्ण टिप्पणी की। ध्यातव्य है कि इस देश में चयनित विरोध और समर्थन की एक कुत्सित परंपरा स्थापित हो चुकी है, जिसने भारतीय समाज को निहायत ही तत्परता से विभाजित कर डाला है। संभवतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी चयनित वर्ग को ही प्राप्त है।
‘जनामि धर्म न च मे प्रवृत्ति:, जानामि अधर्म न च मे निवृत्ति:’ अर्थात् मै धर्म जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है. मैं अधर्म जानता हूँ, पर उसके मार्ग से मेरी निवृत्ति नहीं है। यही हालत इस देश में वाम-व्याधि से पीड़ित वर्ग की है। जुबैर के समर्थन में उत्तेजित एवं बौद्धिक जुगाली में लिप्त जमात समान मसले पर नूपुर शर्मा के लिए मौन साध ले रहा है। इनका मौन ही राष्ट्र के बहुसंख्यक वर्ग को इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि वह नूपुर के समर्थन में लामबंद हो जाए। उदाहरणस्वरूप माननीय न्यायधीशों द्वारा तथ्यों के बजाय भावनाओं पर आधारित टिप्पणी से आहत जनता ने भी भावना के वशीभूत सोशल मीडिया पर न केवल इसकी निंदा की बल्कि उनके विरुद्ध महाभियोग चलाने की मांग तक कर डाली।
जुबैर के शाब्दिक विषवमन के विरुद्ध सनातन समाज ने एतराज का संवैधानिक मार्ग अपनाया लेकिन नूपुर शर्मा के समीक्षा के अधिकार के विरुद्ध इस्लामिक कट्टरपंथी उनकी हत्या करने पर उतारू हैं। परन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या नुपुर शर्मा के समीक्षा के अधिकार को पंथीय आस्था की सीमा के अंतर्गत ही रहना चाहिए? अगर ऐसा है तो रूढ़िवाद से जकड़ी आस्थाएं मानवीय गरिमा को यूं ही रौंदती हुई सभ्यता का मार्ग अवरुद्ध करती रहेंगी एवं समाज मध्ययुगीन बर्बर मान्यताओं के अंतर्गत जीने के लिए अभिशप्त रहेगा।
स्कॉटिश कवि एवं दार्शनिक सर विलियम ड्रमांड कहते हैं, “जो तर्क नहीं करेगा, वह धर्मांध है। जो तर्क नहीं कर सकता, वह मूर्ख है। जिसमें तर्क करने का साहस नहीं है, वह दास है।” हर धर्म एवं समाज एक समय रूढ़ियों से जकड़ा रहा था, किंतु बीतते दौर के साथ जिन्होंने तर्कों की कसौटी पर अपनी आस्था एवं मान्यताओं में समयानुकूल परिवर्तन स्वीकार किया, वे आधुनिक सभ्यता में सम्मानित हैं। लेकिन कुछ पंथ आज भी मध्ययुगीन मानसिकता से पीड़ित हैं, परिणामस्वरुप उनसे जुड़ा समाज आज विश्व समुदाय में सम्मान से वंचित ही नहीं बल्कि कई दफ़े घृणा की नजर से देखा जाता है। वर्तमान विश्व समुदाय में सनातन धर्म एवं ईसाईयत के समकक्ष इस्लामिक पंथ के प्रति भावना के अंतर से इसे वक्तव्य को समझा जा सकता है।
इसी परिपेक्ष्य में सनातन धर्म एवं इस्लामिक पंथ की तुलना करते हुए डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में लिखते हैं, ” हिंदुओं में भी अनेक सामाजिक बुराइयां है परंतु संतोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराइयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आंदोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराइयां हैं. परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते. इसके विपरीत, अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं।”
हालांकि परिवर्तन तो बहुत बड़ा प्रश्न हो गया, इस्लामिक समाज इस्लाम के अंतर्गत परिष्कृत सिद्धांतों तथा नवीन विचार के प्रति अति-दुराग्रह का भाव रखता है। यकीन न हो तो कादियानी मुसलमानों की हालत देख लीजिए, जिनकी स्थिति इस्लाम में काफिरों से भी बदतर है, बल्कि इन्हीं सैद्धांतिक अंतर को लेकर शिया और सुन्नी एक-दूसरे को प्रताड़ित करते रहे हैं। आज ईरान में हिजाब के विरुद्ध संघर्षरत महिलाओं के विरुद्ध सेना का प्रयोग किया जा रहा है।
इसी के समानांतर सनातन समाज को देखिए। अतीत में रूढ़िवादी होते हुए भी इसने निरंतर परिवर्तनों को आत्मसात कर अपने को प्रगतिशील बनाया। ऐसा संभव हुआ क्योंकि इसने अपने विरुद्ध विद्रोहों और तर्कों को सम्मान दिया, चाहे वे बुद्ध हों, महावीर, नानकदेव अथवा कबीर। सनातन धर्म ने कमियों को स्वीकारा तदनंतर वे उनके उन्मूलन और सुधार की ओर अग्रसर हुए। ऐसा ही उदाहरण यहूदियों का भी है, जिन्होंने विशिष्ट कालखंडों में कई दफ़े अपने धर्म-ग्रंथों और धार्मिक आचार-विचार की जाँच की है। उनका पुर्नमूल्यांकन किया है, जहां धर्मग्रंथो के शब्द या वाक्य बदलना संभव नहीं था, अतः उन्होंने उनकी नई व्याख्याएं तैयार की।
दूसरी ओर इस्लाम अपनी रूढ़िवादिता में इतना अधिक दुराग्रही है कि वह अपने विरुद्ध तर्क का एक शब्द अथवा साधारण समीक्षा भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि रूढ़िवादी विश्वास सिर्फ इस्लाम की समस्या रही है। सन् 1925 में अमेरिका में एक शिक्षक के विरुद्ध एक मामला चला (द ट्रायल दैट रॉक्ड दी वर्ल्ड’, रीडर्स डाईजेस्ट, जुलाई 1962)। उस शिक्षक पर आरोप था कि वह बाइबिल में वर्णित सृष्टि एवं मनुष्य की उत्पत्ति की कहानी के विरुद्ध ‘विकास का सिद्धांत’ (Theory of Evolution) को सत्य बताता है। ईसाई मान्यताओं के अपमान के आरोप में उसे दंडित किया गया। परन्तु आज वही ईसाई समाज बाइबिल में वर्णित सृष्टि एवं मनुष्य की उत्पत्ति की कहानी को स्वीकार नहीं करता, लेकिन तब भी वह बाइबिल को अमान्य नहीं करता।
क्या इस्लामिक समाज इससे कुछ सीख सकता है? वह भी अपनी संस्कृति एवं मजहबी आचरण को जीवंत रखते हुए रूढ़ियों से मुक्त हो सकता है, बशर्ते वह तर्क को सुनना-समझना सीखे और ‘समीक्षा के अधिकार’ को मान्यता दे। करीब डेढ़ हजार वर्ष पुरानी मान्यताओं और परंपराओं से चिपके रहने से वह सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र का अहित करेगा।
क्या परंपरागत विचारों को, चाहे वे धार्मिक हों या ऐतिहासिक, उनकी समीक्षा का अधिकार वर्तमान पीढ़ी से छीन लिया जाना चाहिए? ‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’ अर्थात् पुराना है इसलिए अच्छा है, यह मानने का कोई विशेष कारण नहीं दिखता. भारतीय परंपरा तत्व परीक्षण की मान्यता को स्वीकार करती है। ‘सन्ता: परीक्षान्यतरत् भजन्ते’ इस विचार के साथ तर्कों की कसौटी पर सदबुद्धि से किसी वस्तु को स्वीकृत या त्याग करना चाहिए।
इस मसले का एक वृहद पक्ष कट्टरता से ग्रसित आस्था एवं आधुनिक मूल्यों के टकराव से उत्पन्न उन्माद का है। दार्शनिक ‘कार्ल आर. पॉपर’ लिखते हैं, “वैज्ञानिक भविष्यवाणी करता है और इतिहासकार परिस्थितियों के संदर्भ में भविष्य के लिए मार्गदर्शन करता है।” इस राष्ट्र को अतीत से सीखने की आवश्यकता है कि आस्था के पूर्वाग्रहों की कुंठा से ग्रसित कोई पंथिक समाज कितना घातक हो सकता है एवं सहन की अति पर पहुंचने पर कोई धार्मिक समाज उतनी ही तीव्रता से प्रति-उत्तर भी दे सकता है? अगर आस्था की कट्टरता ऐसी ही उत्तेजक बनी रही तो राष्ट्र को धार्मिक टकराव से बचाना कठिन होगा।
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