प्राचीन काल में श्रावणी पूर्णिमा के दिन से ऋषि आश्रमों वेद पारायण आरंभ होता था। वेद अर्थात ईश्वरीय ज्ञान और ऋषि अर्थात ऐसे आप्तकाम महामानव जिनकी अपार करुणा के कारण वह ज्ञान जन सामान्य को सुलभ हो सका। हमारे महान ऋषियों ने हमारे समक्ष यह गूढ़ तथ्य उद्घाटित किया कि हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है।
उत्सवधर्मिता हमारी भारतीय संस्कृति का सनातन संस्कार है। वैदिक साहित्य के विवरण बताते हैं कि प्राचीन अखंड भारत के चार प्रमुख राष्ट्रीय पर्व थे- श्रावणी, विजयादशमी, दीपावली और होली। इनमें पहला श्रावणी पर्व ब्राह्मण वर्ग द्वारा राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजयादशमी क्षत्रिय वर्ण द्वारा राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा का दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में भेदभाव व बुराई के दहन के साथ राष्ट्र की समरसता को जागृत करने के पर्व के रूप में मनाया जाता था।
वैदिक मनीषियों ने श्रावणी को ज्ञानपर्व के रूप व्याख्यायित किया था। वैदिककाल में प्रतिवर्ष इस दिन योग्य गुरुओं व आचार्यों के मार्गदर्शन में श्रावणी उपाकर्म के अन्तर्गत बटुक शिष्यों व वेदार्थी ब्राह्मणों द्वारा भूल-चूक व पाप-प्रमाद आदि के शमन के लिए प्रायश्चित विधान के रूप में दश स्नान, हेमाद्रि संकल्प व यज्ञोपवीत धारण आदि के वैदिक कर्मकांड कराये जाते थे। इस वैदिक कर्मकांड के पीछे वैदिक मनीषियों का दर्शन था कि अंतस में ब्राह्मी चेतना के अवतरण के लिए द्विजत्व का जागरण जरूरी होता है। द्विजत्व अर्थात सद्ज्ञान के आलोक में मनुष्य का दूसरा जन्म। पहला जन्म माँ के गर्भ से और दूसरा ज्ञान प्राप्ति द्वारा द्विजत्व ग्रहण करके। प्राचीन काल में इस द्विजत्व धारण के प्रतीक रूप में इस पर्व पर यज्ञोपवीत धारण की परम्परा बनायी गयी थी।
आज के समय में तीन-तीन धागों से संयुक्त तीन लड़ों वाले यज्ञोपवीत के तत्वदर्शन को गहराई से समझने की जरूरत है। वैदिक मनीषियों के मुताबिक यज्ञोपवीत की यह तीन लड़ें वस्तुतः मानव जीवन के तीन क्षेत्रों (आत्मिक, बौद्धिक और सांसारिक) की प्रतीक होती हैं और प्रत्येक लड़ के तीन-तीन धागे उनके तीन-तीन गुणों का। आत्मिक क्षेत्र के तीन प्रमुख गुण हैं- विवेक, पवित्रता व शान्ति; बौद्धिक क्षेत्र के साहस, स्थिरता और कर्तव्यनिष्ठा तथा सांसारिक क्षेत्र के स्वास्थ्य, धन व सहयोग। जरा विचार कीजिए कि जिस यज्ञोपवीत (जनेऊ) को वर्तमान का पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करने वाला तथाकथित आधुनिक समाज दकियानूसी सोच का प्रतीक मानता है, उसके पीछे कितना गहन तत्वदर्शन निहित है हमारे पूर्वजों का।
प्राचीन काल में श्रावणी पूर्णिमा के दिन से ऋषि आश्रमों वेद पारायण आरंभ होता था। वेद अर्थात ईश्वरीय ज्ञान और ऋषि अर्थात ऐसे आप्तकाम महामानव जिनकी अपार करुणा के कारण वह ज्ञान जन सामान्य को सुलभ हो सका। हमारे महान ऋषियों ने हमारे समक्ष यह गूढ़ तथ्य उद्घाटित किया कि हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यदि यह सृष्टि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तब तो कल्याणकारी परिणाम निकलते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। हमारे आंतरिक जगत, हमारे, कर्म, विचार यदि कहीं भी विकार आ गया हो, तो उसे हटाने व पुन: नयी शुरुआत करने के लिए उन्होंने इस पर्व पर श्रावणी उपाकर्म व हेमाद्रि संकल्प का विधान बनाया था। “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित:” का वैदिक सूत्र हमारे पुरातन आचार्यों के इसी महान उत्तरदायित्व का जयघोष करता है। वैदिक युग में इस पर्व पर रक्षा सूत्र बंधन के द्वारा इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण की प्रतिज्ञा ली जाती थी। ऋषि- मुनि, आचार्य व पुरोहित वैदिक मंत्रों से अभिमंत्रित रक्षा सूत्र अपने शिष्यों-यजमानों को बांधते थे और शिष्य व अनुयायी अपने गुरुओं को चरणस्पर्श कर उनकी शिक्षाओं पर चलने का वचन देते थे। कालान्तर में कन्याओं, ब्राह्मणों व स्त्री द्वारा रक्षा सूत्र बंधन की परम्परा पड़ गयी।
वर्तमान समय यह पर्व भाई-बहन के त्योहार के रूप में लोकप्रिय है। पर्व के इस वर्तमान स्वरूप का शुभारम्भ पौराणिक युग में ही हुआ था। सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी ने दानवराज बलि को रक्षासूत्र बांधा था। भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़े उस कथा प्रसंग से हम सभी भली भांति विज्ञ हैं। इसके अलावा देव-दानव युद्ध में देवों को विजय दिलाने के लिए इंद्राणी द्वारा देवराज इंद्र व देवों को अभिमंत्रित धागा बांधने, देवगुरु बृहस्पति का इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधना, द्रौपदी का कृष्ण की कलाई पर चीर बांधना पर्व की पौराणिकता को प्रमाणित करते हैं। वह रक्षासूत्र आज भी बोला जाता है-“येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। दानवेन्द्रो मा चल मा चल ।।” मंत्र का भावार्थ है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधती हूँ। हे रक्षासूत्र! तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।
जानना दिलचस्प होगा कि बीती सदी में कुछ पर्यावरण प्रेमी अग्रदूतों ने पेड़ों को रक्षासूत्र बांधने की भी परम्परा शुरू की थी। उत्तराखंड में वनों की रक्षा के लिए “मैती” व “चिपको” सरीखे जो जनान्दोलन शुरू किये थे, उनके नतीजे खासे उत्साहजनक रहे थे। वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने के पीछे पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं की रक्षा का दिव्य भाव निहित है, ताकि हम सब प्रकृति का संरक्षण कर अपने कल्याण व सुख तथा शांति-सद्भभाव की राह पर चल सकें।
वैदिक युग से प्रचलित यह पर्व हमारे वस्तुतः सांस्कृतिक मूल्यों का पुन:स्मरण कराता है। हालांकि रक्षा के पवित्र बंधन पर भी आज बाजार का ग्रहण लग गया है। कच्चे सूत और रेशम की प्यार व शुभकामनाओं भरी भरी डोर वर्तमान के इंटरनेट युग में भारी भरकम उपहारों की आस में अब सोने चांदी की महंगी महंगी राखियों में तब्दील होती जा रही है। आइए भूल सुधारें और भाई-बहनों के पवित्र स्नेह के प्रतीक इस की गरिमा को समझें। भाई के हाथ में राखी बांधकर बहन उनके मन में कर्तव्यपालन, बलिदान एवं निष्ठा की भावना जगाती है और बदले में किसी भी संकट के समय अपनी सुरक्षा व संरक्षण का आश्वासन पाती है। भाई -बहन के आत्मीय बंधन को मजबूती प्रदान करने के साथ यह पर्व परिवार, समाज, देश और विश्व के प्रति कर्तव्यों के प्रति भी हमारी जागरूकता को बढ़ाता है।
ज्ञात हो कि विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने इस पर्व पर बंगभंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश की सीमाओं पर तैनात हमारे जांबाज सैनिकों की कलाइयों पर सजी राखियां उनके भीतर ऐसी नवऊर्जा भर देती हैं कि कर्तव्य की बलिवेदी पर कुर्बान होने में उन्हें जरा भी भय नहीं रहता।
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