विक्रमी संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के राजापुर नामक ग्राम में श्रावण शुक्ल सप्तमी की पावन तिथि को गोस्वामी तुलसीदास जी के रूप में सनातन धर्म की एक महान विभूति जन्मी थी। इस धराधाम पर इस महामानव का आगमन मध्य युग की ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब विदेशी आक्रमणकारियों के कारण हमारे मंदिर तोड़े जा रहे थे, गुरुकुल नष्ट किए जा रहे थे, शास्त्र और शास्त्रज्ञ दोनों विनाश को प्राप्त हो रहे थे, ऐसे भयानक काल में तुलसीदास जी प्रचंड सूर्य की भांति उदित हुए और अपनी भक्तिपूर्ण साहसिक लेखनी के बल पर इस्लामी आतंक को परास्त करके हिंदू धर्म की ध्वजा फहराए रखने में अपूर्व योगदान दिया।
महर्षि वाल्मीकि की ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी जी ने लोक भाषा में रामकथा की रचना कर समूचे राष्ट्र को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का प्रयास स्तुत्य पुरुषार्थ किया। जन भाषा में श्रीरामचरितमानस की रचना करके उन्होंने उसमें समस्त आगम, निगम, पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथों का सार भर कर वैदिक हिंदू सिद्धांतों को सदा-सदा के लिए अमर बना दिया था। तुलसीदास जी का बाल्यकाल अनेक दुखों से भरा था। युवा होने पर इनका विवाह रत्नावली से हुआ, अपनी पत्नी रत्नावली से इन्हें अत्याधिक प्रेम था, परंतु अपने इसी प्रेम के कारण उन्हें एक बार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ‘लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ’ अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।’ ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और बाबा नरहरिदास से गुरु दीक्षा प्राप्त कर वे प्रभु श्रीराम की भक्ति में आकंठ डूब गए।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुसार अपने 126 वर्ष के सुदीर्घ जीवनकाल में गोस्वामी जी ने अनेक कालजयी ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें प्रमुख हैं- रामचरितमानस, रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनय-पत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण, कलिधर्माधर्म निरूपण, हनुमान चालीसा। इन सभी में सबसे अधिक ख्याति उनके द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस को मिली। अवधी भाषा में इस महान् ग्रंथ की रचना कर तुलसीदास जी समूचे उत्तर भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय जनकवि बन गये। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उल्लिखित विवरण के अनुसार गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना का शुभारम्भ संवत् 1631 में रामनवमी के दिन से किया था। दैवयोग से उस वर्ष वैसा ही योग आया था जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। दो वर्ष, सात महीने और 26 दिन में संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण कर उनका यह यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पूर्ण हुआ था।
गोस्वामी तुलसीदास लोकमंगल के अमर प्रणेता हैं। वह गूढ़ ज्ञान को लोक की भाषा में शब्द देने में सिद्धहस्त हैं। वह जितने बड़े भक्त हैं उससे भी बड़े सहृदय मनुष्य। आदर्श समाज की संरचना उनके सृजन का मूल है। अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने समाज में फैली अनेक कुरीतियों, विधर्मी बातों, पंथवाद और समाज में उत्पन्न बुराइयों की आलोचना भारत की पुरातन वैदिक संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा की थी। अपने ग्रन्थ ‘तुलसी और उनका काव्य’ में पंडित रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं कि विश्व राजनीति को दिया गया गोस्वामीजी के ‘रामराज्य’ का आदर्श ही वस्तुत: पूर्ण लोकतंत्र है। इसी तरह हिंदी साहित्य में तुलसीदास जी के अवदान को उल्लिखित करते हुये आचार्य हजारीप्रसाद कहते हैं कि तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पंडित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की।
राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है-तुलसीदास में भावना और ज्ञान, दोनों का प्रार्चुय है। वे भारत के उन महान कवियों की श्रेणी में आते हैं जो अपनी आनंददायिनी कला का उपयोग मुख्यतः जीवन को सार्थक करने, सभ्यता को परिवर्तित करने और जीवन मूल्यों की रक्षा करने के लिए करते हैं। युग तुलसी रामकिंकर जी के शब्दों में कहें तो वाल्मीकि जी की कथा का प्राणतत्व शोक था और शोक से श्लोक पैदा हुआ जो उनके सृजन की प्रेरणा बना जबकि तुलसीदास का आत्मानुभव राम से जुड़ता है। राम का जीवन संघर्ष उनकी रामकथा का विस्तार है। तुलसीदास की मानवीय करूणा को पल्लवित करने वाला मूल मंत्र है-
‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’
धर्म-अधर्म की यह नयी परिभाषा तुलसी ने लोकहित के सिद्धांत पर ही निर्मित की है। उनके लिए मनुष्य का हित सर्वोपरि है, अहित नहीं, इसीलिए तुलसी की कविता ‘सुरसरि सम सब कहं हित होई’ का आदर्श लेकर चलती है। उनकी दृष्टि में धर्म, साहित्य और राजनीति सबकी एकमात्र कसौटी है- सार्वजनिक हित-
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।’
राजनीति के मानवीय और अमानवीय चरित्र को पहचानने की कसौटी प्रजा का सुख है। यह तुलसी के लोकवादी, लोकमंगलकारी रूप की पहचान है। परपीड़ा को अधर्म कहकर तुलसी ने समाज में अन्याय और विषमता को समर्थन देने वालों को अधर्मी कहा है। महाकवि तुलसीदास जीवनदृष्टा थे। अपने साहित्य में उन्होंने समाज का आदर्श प्रस्तुत कर ऐसा महाकाव्य रचा जो हिन्दी भाषी जनता का धर्मशास्त्र ही बन गया। तुलसी की लोक दृष्टि अलौकिक थी। उन्होने आदर्श की संकल्पना को यथार्थ जीवन में उतारा। सौन्दर्य और मंगल का, प्रेय और श्रेय का, कवित्व और दर्शन का असाधारण सामंजस्य उनके साहित्य की महती विशेषता है। यह तुलसी साहित्य की विराटता ही है कि सबसे अधिक आलोचना ग्रंथ और सबसे अधिक शोध प्रबंधों का प्रणयन तुलसी पर ही है।
रामचरितमानस लोक-शिक्षा, लोक-प्रेरणा, लोकोपदेश, लोक-व्यवहार तथा लोकाचार का विश्वकोश है। गोस्वामी तुलसीदास के इस महान ग्रन्थ में पाठकों को लोकानुभव जन्य अनेक ऐसे सदुपदेश उपलब्ध होते हैं जिनके द्वारा समाज बुराइयों से सजग रहकर भलाई की ओर सरलता से अग्रसर हो सके और अपने जीवन तथा समाज को सुखी बना सके। उन्होंने रामचरितमानस में पग-पग पर नीति-निरूपण करते हुए समाज को सदाचार, मर्यादा–पालन, नियम-पालन की प्रेरणा दी है। भारतीय संस्कृति में सत्य, अहिंसा, धैर्य, क्षमा, मैत्री, अनासक्ति, इंद्रिय निग्रह, पवित्रता, निश्छलता, त्याग, उदारता, विराटसत्ता के प्रति गहन आस्था, मानवता, प्रेम, परोपकार लोक-संग्रह आदि जिन सात्विक भावों का सर्वाधिक प्रचार एवं प्रसार दृष्टिगोचर होता है वे सभी भाव तुलसी दास के साहित्य में पग पग पर विद्यमान हैं।
जानना दिलचस्प हो कि अंग्रेजों ने हजारों भारतीयों को गुलाम बना कर मॉरीशस और सूरीनाम आदि के निर्जन द्वीपों पर पटक दिया था तो गिरमिटिया मजदूरों के रूप में हमारे पूर्वज तुलसीदास जी की रामचरितमानस और हनुमान चालीसा लेकर वहां गये थे और यही उनका संबल बना था। मारीशस, सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में इनका पाठ कर वे अपनी भाषा-संस्कृति को सुरक्षित रख सके। तुलसीदास ने उन्हें भाग्यवाद को छोड़कर पुरुषार्थवादी बनने के लिए प्रेरित किया, उन्होंने उन देशों में क्षेत्र में शीर्ष स्थान प्राप्त किया।
काबिलेगौर हो कि विश्व की अनेक भाषाओं में इस महाग्रंथ का अनुवाद हो चुका है। विश्व में विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक हजार से अधिक शोध कार्य उन पर हो चुके हैं। रूस के प्रख्यात प्रोफेसर चेलिशेव के अनुसार रामचरितमानस समाज का दर्पण और भारत का सांस्कृतिक दस्तावेज है। लंबी अवधि तक कठोर परिश्रम कर वारान्निकोव ने रूसी भाषा में रामचरितमानस का पद्यानुवाद किया था और इसके लिए उन्हें वहां के सर्वोच्च सम्मान ‘आर्डर आफ लेनिन’ से अलंकृत किया गया था।
अद्भुत रचना संसार है गोस्वामी जी का। उनको गा- गाकर आज हजारो लोग अपनी रोजी चला रहे हैं। मानस के व्याख्याता बनकर पुरस्कृत हो रहे हैं। एक मानस से ही आज हजारों घर पल्लवित और पुष्पित हो रहे हैं। भारत के कोने-कोने में आज भी रामलीलाओं का मंचन होता है। उनके जयंती के उपलक्ष्य में देश के कोने कोने में रामचरित मानस तथा उनके निर्मित ग्रंथों का पाठ किया जाता है।
टिप्पणियाँ