भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है। यदि 1991 से अभी तक का हिसाब लगाएं तो रुपया डॉलर के मुकाबले सालाना औसतन 3.03 प्रतिशत की दर से कमजोर होता रहा है। रुपये में यह अवमूल्यन सभी वर्षों में एक जैसा नहीं रहा। कुछ वर्षों में यह अवमूल्यन औसत से ज्यादा भी रहा है। पिछले 5 महीनों में रुपये का अवमूल्यन 7.28 प्रतिशत तक हो चुका है।
डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया लगातार कमजोर होते हुए फरवरी, 2022 में 74.5 रुपये प्रति डॉलर से अभी तक लगभग 80 रुपये प्रति डॉलर पार कर चुका है। रुपये की इस कमजोरी के कारण, हमारे नीति निर्माताओं में स्वाभाविक चिंता व्याप्त है। उधर विपक्षी दल भी सरकार को घेरने की कोशिश में हैं। ऐसा पहली बार नहीं है कि भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है। यदि 1991 से अभी तक का हिसाब लगाएं तो रुपया डॉलर के मुकाबले सालाना औसतन 3.03 प्रतिशत की दर से कमजोर होता रहा है। रुपये में यह अवमूल्यन सभी वर्षों में एक जैसा नहीं रहा। कुछ वर्षों में यह अवमूल्यन औसत से ज्यादा भी रहा है। पिछले 5 महीनों में रुपये का अवमूल्यन 7.28 प्रतिशत तक हो चुका है।
पूर्व में रुपया, केवल डॉलर के मुकाबले ही नहीं, यूरो, पाउंड, येन, युआन समेत कई महत्वपूर्ण मुद्राओं के मुकाबले भी कमजोर होता रहा है। उदाहरण के लिए 1991 से अभी तक रुपया पाउंड के मुकाबले 137 प्रतिशत, यूरो के मुकाबले 489 प्रतिशत और येन के मुकाबले 241 प्रतिशत कमजोर हुआ है। जबकि डॉलर के मुकाबले यह अवमूल्यन 252 प्रतिशत रहा है।
बदली रुपये के अवमूल्यन की प्रवृत्ति
लेकिन पिछले 5 महीनों में रुपये के अवमूल्यन की प्रवृत्ति में बदलाव आया है। रुपया डॉलर के मुकाबले 7.28 प्रतिशत कमजोर हुआ है, लेकिन पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले यह 6.31 प्रतिशत, येन के मुकाबले 10.77 प्रतिशत और यूरो के मुकाबले 4.72 प्रतिशत मजबूत हुआ है। यानी कहा जा सकता है कि डॉलर के मुकाबले तो रुपया कमजोर हुआ है लेकिन दूसरी मुद्राओं के मुकाबले यह मजबूत हुआ और वे मुद्राएं भी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुई हैं। चूंकि पूरी दुनिया में डॉलर, लगभग सभी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है, इसलिए हमें रुपये की कमजोरी के बजाय, डॉलर की विभिन्न मुद्राओं के मुकाबले मजबूती के कारणों का विश्लेषण करना अधिक लाभकारी होगा। हमें यह भी समझना होगा कि रुपये और अन्य मुद्राओं का भविष्य क्या है? आज जब डॉलर दुनिया की सभी प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हो रहा है, तो प्रश्न उठता है कि क्या भविष्य में भी डॉलर की यह विजय यात्रा जारी रहेगी?
अमेरिका पर विदेशी कर्ज
इस प्रश्न के उत्तर में हमें अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वास्तविकता के बारे में जानना होगा। सर्वविदित है कि जहां हम श्रीलंका, पाकिस्तान, यूरोपीय देशों आदि की ऋणग्रस्तता की बात करते हैं तो हमें यह समझना होगा कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी कर्जदार है। आज अमेरिका पर 30.4 खरब डॉलर का विदेशी ऋण है, चीन पर 13 खरब डॉलर और इंग्लैंड पर 9.02 खरब डॉलर। भारत पर कुल 614.9 अरब डॉलर का ही विदेशी ऋण है, जो हमारी जीडीपी का मात्र 20 प्रतिशत ही है। अमेरिका का विदेशी ऋण उसकी जीडीपी का 102 प्रतिशत है, जबकि इंग्लैंड का 345 प्रतिशत। यह भी समझना होगा कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पिछले कुछ महीनों से रुपये की स्थिरता को बनाए रखने के लिए कम हुआ है, लेकिन अभी भी वह 572.7 अरब डॉलर तक बना हुआ है।
विभिन्न मुद्राओं के ‘बास्केट’ की तुलना में डॉलर पिछले एक साल में 10 प्रतिशत बढ़ा है और पिछले 20 वर्ष के सर्वाधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है। येन डॉलर के मुकाबले 24 वर्ष के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जहां दुनिया भर के केन्द्रीय बैंक, अपने-अपने देशों में महंगाई को थामने के लिए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व भी ब्याज दरें बढ़ा रहा है। चूंकि अमेरिका में ब्याज दरें ज्यादा बढ़ी हैं, इस कारण से भी दुनिया भर में निवेशक अमेरिका की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते आज सभी मुल्क मंहगाई के चंगुल में फंस चुके हैं। अमेरिकी महंगाई की दर 9.1 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है, जबकि इंग्लैंड में यह 9.4 प्रतिशत और भारत में यह मात्र 7.0 प्रतिशत है। इन सभी देशों में मंहगाई में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपूर्ति में बाधाओं के कारण है। इस कारण ईंधन, खाद्य पदार्थों, आवश्यक कच्चे माल, मध्यवर्ती वस्तुओं तथा धातुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उथल-पुथल ने संपूर्ण दुनिया के वित्तीय बाजारों को प्रभावित किया है। इतिहास गवाह है कि जब-जब दुनिया में उथल-पुथल होती है, डॉलर मजबूत होता जाता है। इसका कारण यह है कि दुनिया भर के निवेशक यह मानते हैं कि अमेरिका उनके लिए सर्वाधिक सुरक्षित गंतव्य है। इस प्रक्रिया को व्यावसायिक भाषा में ‘सेफ हैवन’ कहा जाता है। बाजार विशेषज्ञों द्वारा कहा जा रहा है कि चूंकि दुनिया भर में महंगाई बढ़ी है, ग्रोथ के प्रति चिंताएं बढ़ी हैं और ब्याज दरें भी बढ़ रही हैं, इसलिए डॉलर मजबूत हो रहा है।
विभिन्न मुद्राओं के ‘बास्केट’ की तुलना में डॉलर पिछले एक साल में 10 प्रतिशत बढ़ा है और पिछले 20 वर्ष के सर्वाधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है। येन डॉलर के मुकाबले 24 वर्ष के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जहां दुनिया भर के केन्द्रीय बैंक, अपने-अपने देशों में महंगाई को थामने के लिए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व भी ब्याज दरें बढ़ा रहा है। चूंकि अमेरिका में ब्याज दरें ज्यादा बढ़ी हैं, इस कारण से भी दुनिया भर में निवेशक अमेरिका की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
लेकिन अमेरिका के बाहर व्यवसाय करने वाली अमेरिकी कंपनियां, मजबूत डॉलर के कारण नुकसान में रहेंगी, जिसमें बड़ी 500 कंपनियों को उनकी आमदनी का 5 प्रतिशत नुकसान हो सकता है। लेकिन अमेरिका में कार्यरत कंपनियों को मजबूत डॉलर का लाभ होगा।
अल्पकालिक है डॉलर की मजबूती
यदि दूसरे मुल्कों की बात करें तो वे देश जिन्होंने भारी मात्रा में डॉलर में ऋण ले रखे हैं, उन्हें ब्याज और ऋणों के भुगतान में मुश्किल हो रही है। लेकिन कुछ ऐसे मुल्क हैं जो तेल उत्पादक और निर्यातक देश हैं या जो कृषि पदार्थों के आपूर्तिकर्ता हैं, उनकी मुद्राएं कमजोर नहीं हो रहीं। उसी प्रकार से अमेरिका और यूरोप के तमाम प्रयासों के बावजूद रूस की मुद्रा रूबल लगातार मजबूत ही हो रही हैं। उसका कारण रूस द्वारा तेल और गैस का निर्यात बढ़ाना है और पूंजीगत प्रवाहों पर रूस सरकार द्वारा नियंत्रण के चलते रूस से पूंजी का बहिर्गमन नहीं हो रहा है। यह सही है कि चीन के लॉकडाउन और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति शृंखला में आ रही बाधाएं दुनिया में महंगाई को बढ़ा रही हैं। वैश्विक उथल-पुथल और अमेरिका में बढ़ती ब्याज दरों के चलते अमेरिकी डॉलर मजबूत हो रहा है, लेकिन ऐसा लम्बे समय तक नहीं चल सकता।
भारत में पुख्ता आर्थिक गतिविधियां
दुनिया में मंदी की बात करें तो जहां यूरोप, अमेरिका और जापान में मंदी की आहट सुनाई दे रही है, उधर भारत में आर्थिक गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं। जीएसटी और अन्य करों से प्राप्तियां उछाल ले रही हैं। मई माह के आंकड़े बताते हैं कि औद्योगिक उत्पादन में 19.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो पूर्ववर्ती महीने से 7.1 प्रतिशत ज्यादा थी। चाहे बिजली की मांग हो, या उपभोक्ता वस्तुओं की या पूंजीगत वस्तुओं की, देश में सभी प्रकार की मांग में 20 से 55 प्रतिशत की भारी वृद्धि भारत में आर्थिक गतिविधियों में उठाव की ओर संकेत कर रहे हैं। सभी वैश्विक संस्थान भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बता रहे हैं। इस कारण से भी दुनिया भर के निवेशक भारत की ओर रुख करने पर बाध्य होंगे। हालांकि आयात-निर्यात के बीच अभी बड़ा अंतर दिखाई दे रहा है, लेकिन देश में बढ़ते हुए उत्पादन से यह अंतर घटने वाला है। लगातार बढ़ते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और मजबूत फंडामेंटल, रुपये को मजबूती की ओर ले जाने की क्षमता रखते हैं। माना जा सकता है कि डॉलर की मजबूती बहुत लंबे समय नहीं चलने वाली।
(लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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