फेमिनिज्म के पैरोकारों को इस समय भारत में इस बात का डर है कि पढ़ी-लिखी महिलाएं भी करवाचौथ का व्रत रखने लगी हैं और इतना ही नहीं फिल्म कलाकार खुलकर करवाचौथ रख रही हैं। वही फिल्म उद्योग जहां पर भारत में डर का माहौल बताने वाले नसीरुद्दीन शाह की बीवी रत्ना पाठक शाह ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में करवाचौथ पर निशाना साधते हुए कहा कि “मैं क्या पागल हूँ।” और फिर उन्होंने कहा कि भारत में सऊदी अरब जैसी कट्टरता आ रही है, क्योंकि अब पढ़ी-लिखी महिलाएं भी पति की लम्बी उम्र के लिए डर के कारण करवाचौथ का व्रत रख रही हैं, क्योंकि हमारे देश में विधवाओं की स्थिति ठीक नहीं मानी जाती है और महिलाएं विधवा होने से डरती हैं।
उन्होंने पहले तो ऐसा कहा कि भारत में लगभग 70% महिलाएं एनीमिक हैं, और भी न जाने क्या क्या कहा और फिर वह अपने असली मुद्दे पर आईं और उन्होंने कहा कि समाज में “रिलिजन” को लोग शामिल करने लगे हैं, और अचानक से ही हर कोई यह पूछने लगा है कि क्या आप करवाचौथ का व्रत रखती हैं? फिर उन्होंने कहा कि क्या यह दुखदाई नहीं है कि आधुनिक पढ़ी-लिखी महिलाएं करवाचौथ का व्रत रख रही हैं? जिससे पति का जीवन बढ़ जाए और हमारे समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत बुरी है इसलिए कोई भी ऐसी चीज जो “विधवा” होने से बचा ले, वह यह व्रत रखती हैं।”
इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दुओं के धार्मिक गुरुओं पर भी तंज कसा और लगभग सभी समस्याओं का ठीकरा हिन्दू धर्म गुरुओं पर फोड़ दिया। स्वामी नित्यानंद के विषय में कहा और कहा कि हर रोज कोई न कोई “सिली ओल्ड गुरु” किसी पहाड़ से कूद रहा है, और हर कोई उनकी ओर दौड़ रहा है।
फिर वह प्रश्न करती हैं कि क्या यही आधुनिक समाज है? यह प्रश्न रत्ना पाठक शाह का बहुत रोचक है कि क्या यही आधुनिक समाज है? सबसे पहले तो उन्हें यह तय करना होगा कि आधुनिकता क्या है? करवाचौथ कैसे पिछड़ा है और कैसे मात्र करवाचौथ रखकर महिलाएं पिछड़ सकती हैं? रत्ना पाठक “शाह” जिस विचारधारा का पालन करती हैं, वहां पर पति निष्ठा की कोई अवधारणा है या नहीं, पता नहीं। यह भी नहीं पता कि कथित आधुनिक समानता की विचारधारा में देह की स्वतंत्रता की परिभाषा में पति के प्रति प्रेम या निष्ठा किस पायदान पर होती है? और उनकी यह बात कि हमारे देश में विधवा होने से स्त्रियाँ डरती हैं।
इतना हद तक अज्ञान एवं हिन्दुओं के प्रति हीनता? क्या यह वामपंथ में पगी कथित प्रगतिशीलता से उपजा अज्ञान है या फिर वह जिस समुदाय में अभी हैं, उसके कारण ऐसा है? सबसे पहले तो प्रश्न यही उठता है कि हिन्दू समाज में विधवा स्त्री का मान क्या था, स्थान क्या था? विवाह क्या होता है? पति का साथ क्या होता है? हिन्दू धर्म में विवाह कोई अनुबंध नहीं है, किसी भी प्रकार का समझौता न होकर एक ऐसा बंधन है जिसे सृष्टि के तमाम देव स्वयं आशीर्वाद प्रदान करने आते हैं, क्योंकि यह स्त्री एवं पुरुष की सम्पूर्णता का द्योतक है। तथा स्त्री एक बार जिसे प्रेम करती है, उसके अंश को धारण करती है, वह कैसे अपने पति के मरने की कामना कर सकती है? जो विचारधारा प्रेम का अर्थ नहीं समझती है, वही विचारधारा इस प्रकार की असम्वेदनशील बात कर सकती है।
क्या हिन्दुओं में विधवा विवाह सम्मत था?
अब आते हैं कि हिन्दू समाज में विधवाओं के क्या अधिकार थे? हिन्दुओं में भी विधवा पुनर्विवाह कर सकती है और यह चाणक्य काल में भी होता था, विधवाओं के विवाह के लिए कुछ नियम थे। और यह कितना असंवेदनशील वक्तव्य है कि “कोई भी चीज जो उन्हें विधवा होने से बचा ले।” यह कथन किस हद तक महिलाओं के लिए असंवेदनशील है कि इसमें रिलिजन, मजहब आदि सभी की महिलाएं सम्मिलित हैं। इस विश्व में पति से प्रेम करने वाली ऐसी कौन सी महिला है, जो विधवा होना चाहती है? विधवा होने से बचने के लिए करवाचौथ का व्रत?
आइये देखते हैं कि चाणक्य अर्थशास्त्र में क्या लिखते हैं? वैसे तो उससे भी पूर्व के उदाहरण दिए जा सकते हैं, परन्तु चाणक्य इसलिए क्योंकि रत्नापाठक शाह जिस “प्रगतिशील” विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, वह भारत का इतिहास मौर्यकाल से ही मानती है और मौर्यकाल में चाणक्य की अर्थशास्त्र एवं मेगस्थनीज की इंडिका, हिन्दू स्त्रियों की स्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है।
इंटरकोर्स बिटवीन इंडिया एंड द वेस्टर्न वर्ल्ड, एच जी रौलिंसन , कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस 1916 में एचजी रौलिंसन ने मेगस्थनीज़ की इंडिका के माध्यम से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन और शासन के विषय में काफी विस्तार से लिखा है। उन्होंने हिन्दू समाज की बात करते हुए स्त्रियों के विषय में लिखा है कि हिन्दू एक मितव्ययी एवं संतुष्ट जीवन जीते थे। बहुपत्नी परम्परा समाज के उच्च वर्ग में प्रचलित थी, परन्तु महिलाओं को काफी स्वतंत्रता थी। वह धार्मिक रूप से सन्यास भी ले सकती थीं।
अब चाणक्य के अर्थशास्त्र पर आते हैं, वह विधवा विवाह के विषय में क्या लिखते हैं? आइये देखते हैं:
अर्थात, हिन्दू समाज में विधवा विवाह न ही प्रतिबंधित था और न ही सती प्रथा अनिवार्य थी। मगर रत्ना पाठक शाह द्वारा यह कहा जाना कि “कोई भी चीज उन्हें विधवा होने से बचा ले, बस। इसलिए महिलाएं करवाचौथ का व्रत रखती हैं” यह हद दर्जे की निकृष्ट सोच है एवं हिन्दू धर्म के प्रति विकृत मानसिकता है। वह अपनी वामपंथी सोच और जिस सोच में औरत को केवल शरीर और खेती माना जाता है, उसके चलते पति और पत्नी के उस संबन्ध को समझ ही नहीं सकती हैं जो अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर, अग्नि को साक्षी बनाकर स्थापित होता है।
अब आते हैं कट्टरता पर और सऊदी न बनने देने पर
वामपंथियों का यह प्रिय शगल है कि जब भी उन्हें हिन्दुओं को कोसना होता है, वह यह कहने लगते हैं कि भारत सऊदी न बन जाए या फिर हिन्दू तालिबान हो रहे हैं, जबकि सऊदी के विरुद्ध यह लोग एक भी शब्द नहीं निकालती हैं? कितने वामपंथी कथित प्रगतिशील हैं, जिन्होनें सऊदी में हो रही कथित मजहबी कट्टरता के विषय में लिखा हो, आन्दोलन किया हो या फिर संगोष्ठियां की हों? कितने कथित प्रगतिशील वामपंथी ऐसे हैं, जिन्होंने यह आह्वान किया हो कि सऊदी की ओर मुंह करके नमाज न पढ़ें हमारे मुस्लिम भाई, जब तक कि वहां से मजहबी कट्टरता न गायब हो जाए? या फिर कभी रत्ना जी ने ही यह आवाज उठाई हो कि सऊदी में यह कट्टरता है, ऐसा नहीं होना चाहिए?
ऐसा सहज सार्वजनिक पटल पर दिखाई नहीं देता है, फिर भी जब हिन्दू समाज को कोसना होता है तो कथित प्रगतिशील वामपंथी सोच वाली रत्ना पाठक शाह सऊदी को ले आती हैं। परन्तु वास्तव में कट्टरता किन बातों से फ़ैल रही है या कट्टरता के कौन से ऐसे मामले हुए जिनके कारण मुस्लिम औरतों का जीवन ही दाँव पर लग गया, उनकी बात रत्ना पाठक शाह नहीं करती हैं। रत्ना पाठक शाह, जो हिन्दू धर्म गुरुओं जैसे नित्यानंद जी का नाम लेकर आधुनिक समाज का ताना मारती हैं, वह बिशप मुलक्कल द्वारा किए गए अपराधों पर मौन रह जाती हैं? उन्होंने यह नहीं कहा कि मदरसों में आए दिन दुष्कर्म के मामले सामने आ रहे है और वह पीड़िताओं के साथ हैं।
उनकी सारी प्रगतिशीलता बिशप फ्रैंको मुलक्कल के आगे आकर दम तोड़ देती है और हाँ जब कर्नाटक में उनके शौहर के समुदाय की लड़कियों को बुर्के और हिजाब में पूरी तरह से कैद करने की जो कानूनी लड़ाई लड़ी जा रही है, उस समय उनकी सारी प्रगतिशीलता पेट के बल लेट गयी है। क्योंकि वह कथित प्रगतिशील मानसिकता तो इसे “मजहबी” पहचान के प्रतीक के रूप में बताने पर उतर आई है!
संभवतया उनके रत्ना नाम के चलते ही उनसे महिलाओं ने करवा चौथ के व्रत के विषय में पूछ लिया होगा, नहीं तो हिजाब की अनिवार्यता के विषय में पूछा जाता, जैसे कर्नाटक में बवाल हो रहा है और ईरान में हो रहा है। अफगानिस्तान में हो रहा है, जहाँ पर न्यूज़ एंकर को भी बुर्के में आना अनिवार्य है।
शायद उनके रत्ना नाम के चलते ही उन महिलाओं ने पूछ लिया होगा जो अपने पति से प्रेम करती हैं और उसका साथ हर जन्म में चाहती हैं।
पति और पत्नी के परस्पर प्रेम का उत्सव मनाने वाले पर्व से कट्टरता नहीं आती है, कट्टरता आती है मात्र एक ही अर्थात हिन्दू धर्म को कोसने से और शेष कथित अल्पसंख्यकों की कुरीतियों पर आँखें मूंदने से! रत्ना पाठक शाह जैसी कथित प्रगतिशील औरतों से लोग आशा करते “थे” कि वह हलाला, तीन तलाक, औरतों का खतना और अनिवार्य हिजाब जैसी कुरीतियों पर भी अपनी आवाज उठाएंगी, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है और न ही ऐसा निकट भविष्य में होता दिखता है, यही कारण है कि रत्ना पाठक शाह ने जो भी कहा है वह हिन्दू धर्म के प्रति उस दुर्भावना से ग्रसित होकर कहा है, जो उनके दिल में वामपंथी विचारों के परिणामस्वरूप बह रही है और इसमें वह हलाला जैसी अमानवीय एवं औरत विरोधी कुरीति के कारण दुखी मुस्लिम औरतों को नहीं देख पा रही हैं!
रत्ना जी, करवाचौथ रखने वाली वह आधुनिक स्त्रियाँ वास्तव में पागल हैं, परन्तु अपने जीवनसाथी के प्रेम में पागल। काश कि आप यह पागलपना समझ सकतीं? काश आप प्रेम समझ सकतीं, परन्तु देह की आजादी का नारा लगाने वाली मानसिकता कभी प्रेम समझ सकेगी, इसमें संदेह ही है।
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