भारत ने अफगानिस्तान में अपना दूतावास ‘फिर से’ खोल दिया है। उसके पहले 14 देश वहां अपने दूतावास खोल चुके हैं। एक आधिकारिक बयान के अनुसार भारत ने एक ‘तकनीकी टीम’ भेजी है जो काबुल में रहकर काम करेगी।
काबुल से आ रही खबरों के अनुसार भारत ने अफगानिस्तान में अपना दूतावास ‘फिर से’ खोल दिया है। उसके पहले 14 देश वहां अपने दूतावास खोल चुके हैं। एक आधिकारिक बयान के अनुसार भारत ने एक ‘तकनीकी टीम’ भेजी है जो काबुल में रहकर काम करेगी। इसकी भूमिका जून की शुरुआत में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के अफगानिस्तान दौरे के साथ तय होने लगी थी जिसका नेतृत्व विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने किया था जो इस क्षेत्र से संबंधित मामलों को देखते हैं। प्रतिनिधिमंडल ने इस्लामिक अमीरात के कार्यवाहक विदेश मंत्री एम.ए.के. मुत्तकी से मुलाकात की। इस दौरे का स्पष्ट कारण भारत की ओर से वहां पहुंचाई जा रही मानवीय सहायता के सभी पहलुओं पर ध्यान देना और उन स्थानों का दौरा करना था जहां भारतीय कार्यक्रम या परियोजनाएं लागू की जा रही हैं। हालांकि, वास्तविक कारण, जैसा कि अब स्पष्ट हो चुका है, मिशन को खोलने की सारी औपचारिकताओं को पूरा करना था।
इस पूरी गतिविधि के दौरान एक गंभीर सवाल उभरता है कि आखिर भारत क्यों एक कट्टरपंथी शासन का समर्थन करने में दिलचस्पी ले रहा है जिसकी विचारधारा हमारे सभी आदर्शों- पंथनिरपेक्षता, समाजवाद और लोकतांत्रिक गणराज्य आदि-से बिल्कुल उलट है? इस गैरजरूरी जल्दबाजी के पीछे कहीं उसकी मंशा पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान का उपयोग करने की तो नहीं? ऐसे विचार का कारण हाल में घटी घटनाएं हैं जैसे कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के अंदर उन जगहों पर बमबारी की है, जहां माना जाता है कि तहरीक-ए- तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी अपनी आतंकी गतिविधियां चलाए हुए था।
इसके अलावा, अफगानिस्तान आज भी न केवल टीटीपी, एसएसपी, एलईजे, जेईएम, लश्कर और अन्य कट्टरपंथी संगठनों, जिसके प्रति उसका वैचारिक झुकाव है, को सुरक्षित पनाह दे रहा है, बल्कि बलूच राष्ट्रवादियों और अन्य पाकिस्तान विरोधी समूहों के लिए भी उसके दरवाजे खुले हैं। एक अन्य कारण, जिसका इशारा तालिबान समर्थकों ने किया है, और भारत में भी कई ऐसा सोचते हैं कि अमेरिका सहित सभी प्रमुख देश अफगानिस्तान के साथ संबंध बनाए रखेंगे। उन्हें महसूस होता है कि ऐसा नहीं करने पर इसके ‘विशाल’ संसाधनों, ‘विशाल’ बाजार और मध्य एशिया तक की पहुंच हमारे हाथ से छूटती चली जाएगी। उन्हें यह भी लगता है कि दूतावास नहीं खोलना, अफगान आबादी को नीचा दिखाने जैसा है, जो हमारे लिए सम्मान का भाव रखते हैं और भारत से सहायता की आस लगाए बैठे हैं।
हालांकि, नई दिल्ली को वहां की वास्तविक स्थिति को परखने की भी जरूरत होगी। देखा जाए तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच छोटे-मोटे मतभेद उभरते रहते हैं और आगे भी उभरते रहेंगे, पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस्लामाबाद और रावलपिंडी, दोनों ने तालिबान पर बहुत कुछ दाव पर लगाया है और यह रिश्ता दशकों पुराना है। इसमें किसी तरह से दरार पैदा होने की निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं। तालिबान इस समय अपने नागरिकों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भी यह जताना चाहता है कि उसकी इस्लामाबाद से नहीं बनती, लेकिन रावलपिंडी से उसका गहरा रिश्ता जुड़ा है, और इस तथ्य को नजरअंदाज करना मूर्खता होगी।
प्राकृतिक संसाधन और अफगानी नागरिक
जहां पश्चिमी देश अफगानिस्तान से बहुत दूर स्थित हैं, वहीं भारत पड़ोस में है। काबुल में तालिबान की मौजूदगी से इस पूरे क्षेत्र के विभिन्न जिहादी संगठनों पर उसकी कृपादृष्टि बनी रहेगी। उदयपुर की दुखद घटना एक शुरुआती उदाहरण हो सकती है। अफगानिस्तान में मौजूद लौह अयस्क, तांबा और लिथियम के ‘बड़े भंडार’ के बावजूद, भारत इसका आर्थिक इस्तेमाल करने में असमर्थ है और आने वाले वर्षों में ऐसी कोई संभावना भी नहीं दिखती, क्योंकि न तो पाकिस्तान और न ही ईरान से होकर आने वाले मार्ग से इसे लाना व्यावहारिक है। इसी तरह, पाकिस्तान की मौजूदा विचारधारा के मद्देनजर अफगानिस्तान के होते हुए मध्य एशिया तक पहुंचना भी एक सपना ही बना रहेगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अफगान के लोग हमारे लिए अच्छी भावना रखते हैं और संकट की इस घड़ी में उन्हें हमसे मदद की अपेक्षा हो सकती है, लेकिन भारत की ओर से दी जाने वाली सभी सहायता या तो संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के माध्यम से या अमरुल्लाह सालेह के नेतृत्व वाली अफगानिस्तान की ‘वैध सरकार’ के माध्यम से होनी चाहिए। तालिबान को काबुल का सिंहासन सौंपने के बाद अब आईएसआई न केवल सैन्य रूप से, बल्कि आर्थिक रूप से भी उन्हें सत्ता में बनाए रखने के लिए तत्पर रहेगी। तालिबान की आवश्यकताओं को पूरा करने का नैतिक दायित्व ओढ़े पाकिस्तान इसी वजह से गेहूं और ईंधन की कमी झेल रहा है। नतीजतन, ऐसे समय में जब पाकिस्तान गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है, तालिबान के माध्यम से दी जाने वाली कोई भी सहायता आईएसआई के खर्चे को कम करने में मदद करेगी।
तालिबान ने दिखाया असली रंग
यह मानना होगा कि तालिबान की अपनी एक विचारधारा है और कई लोगों के ब्रांड 2.0 बनाने के कई प्रयासों के बावजूद, उसने अपना असली रंग दिखाया है। दोहा में बातचीत के दौरान बड़ी उदार बातें करने वाला तालिबान वापस अपने पुराने तौर -तरीकों को लागू करने में लगा है। जैसे ही उसके सत्ता पर कब्जा किया, समावेशी सरकार और महिलाओं के बारे में इसके सभी वादे हवा में गायब हो गए।
वैचारिक मोर्चे पर भी उसने पाकिस्तान और चीन जैसे अपने सहयोगियों से कोई समझौता नहीं किया। नतीजतन, उसने कभी भी किसी उइगर आतंकवादी को चीन या टीटीपी कैडर को पाकिस्तान को नहीं सौंपा। यहां यह समझना होगा कि आईएसआईएस उसी विचारधारा के साथ अपनी पहचान बढ़ाना चाह रहा है। तालिबान चाहे भी तो अपनी विचारधारा को कमजोर नहीं कर सकता, क्योंकि इससे उसके कैडर उसे छोड़कर इस्लामिक स्टेट का रुख कर सकते हैं। किसी को भी अगर इस्लामी मजहबी कायदे का बुनियादी ज्ञान हो तो वह खुरासान में एक इस्लामिक अमीरात के महत्व को समझ सकता है। तालिबान इसे समझने का दावा करता है। उसने क्षेत्र के सभी जिहादी संगठनों का मनोबल बढ़ाया है। इसलिए समझदारी इसी में है कि जहां तक काबुल में अपनी उपस्थिति का संबंध है, भारत सावधान रहते हुए आगे बढ़े। यह स्पष्ट है कि अधिकांश अफगानी काबुल के इस शासन का समर्थन नहीं करते, लिहाजा तालिबान सरकार काबुल में पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने की स्थिति में नहीं है, जैसा कि काबुल में एक गुरुद्वारे पर हमले के दौरान साफ दिखाई दिया।
(लेखक इंडिया फाउंडेशन के निदेशक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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