मंदिर और हिन्दुओं के प्रति जमकर घृणा फैलाने एवं एजेंडा चलाने वाला मीडिया, पंथों द्वारा की जा रही कुरीतियों पर किस प्रकार मुंह मोड़े रहता है, वह भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी देखा जा सकता है। विशेषकर चर्च द्वारा किए गए कुकृत्यों पर मीडिया ही नहीं वह फेमिनिज्म भी शांत रहता है जो नित नए आरोप हिन्दू संतों पर लगाते रहते हैं।
भारत में भी चर्च में ननों की संदिग्ध मृत्यु का सत्य सामने लाने के स्थान पर चर्च द्वारा दी गयी रिपोर्ट में ही जैसे फेमिनिस्ट शांत हो जाती हैं। जालन्धर के बिशप फ्रैंको मुल्क्कल पर कई नन ने यौन शोषण का आरोप लगाया था। इस मामले में भी फेमिनिस्ट सामने नहीं आई थीं, और न ही वह सिस्टर लूसी के साथ दिखाई दी थीं, जब उन्हें केवल फ्रैंको का विरोध करने पर वेटिकन से भी यह कहते हुए राहत नहीं मिली थी कि उन्होंने कविता लिखने का कुकृत्य किया था। उन्हें चर्च से निकाले जाने पर वेटिकन ने ही यह कहते हुए राहत नहीं दी थी क्योंकि वह कार चलाती हैं।
यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि मीडिया का दृष्टिकोण किसी भी हिन्दू धार्मिक गुरु के प्रति कैसा होता यदि उन्होंने लड़कियों को लेकर कुछ कह दिया होता? या फिर लड़कियों के धार्मिक उत्तरदायित्वों आदि के विषय में कुछ कह दिया होता? तहलका मच जाता, बवाल मच जाता! सिस्टर अभया वाला मामला भी सभी की स्मृति में होगा जब एक-दो नहीं बल्कि पूरे 28 वर्षों के उपरान्त सिस्टर अभया की हत्या के लिए चर्च के फादर को सजा हुई थी और वह भी किसी फेमिनिज्म आन्दोलन या संघर्ष के चलते नहीं बल्कि एक साधारण चोर द्वारा अपनी गवाही न बदले जाने के कारण, जो उस दिन संयोग से वहां पर चोरी करने के लिए आया था।
परन्तु फेमिनिज्म यहां का मौन रहता है। तभी यूनिवर्सल सिस्टरहुड को मिशनरी साम्राज्यवाद कहा जाता है। बार बार यह प्रश्न उठता है कि क्या जिस यूनिवर्सल सिस्टर हुड अर्थात वैश्विक बहनापे की बात यह फेमिनिज्म करता है, वह मिशनरी फेमिनिज्म है! मिशनरी फेमिनिज्म इसलिए क्योंकि वह मिशनरी अर्थात ईसाई रिलीजियस मशीनरी के खिलाफ कुछ नहीं कहता है। इसके वैसे तो कई उदाहरण मिल सकते हैं, परन्तु जब हम फेमिनिज्म की जड़ में जाते हैं तो कहीं न कहीं यह पाते हैं कि यह फेमिनिज्म उसी औपनिवेशिक सोच के आधार पर बना है जो यह मानता था कि “उत्तरी अमेरिका और भारत में उपनिवेश बनाना आवश्यक था, क्योंकि वहां के पुरुष वहां की स्त्रियों को अपना गुलाम बना दिया था अर्थात समाज से काटकर अपने में ही सीमित कर दिया था और इसलिए उनपर शासन करने को लेकर विश्वास नहीं किया जा सकता था।”
यह बात सत्य है कि अभी तक अंग्रेजों के एक विशाल वर्ग का यही मानना है कि भारत को सभ्य बनाने के लिए उन पर शासन करना अनिवार्य था। उस सोच की मानसिकता से उपजा फेमिनिस्ट विमर्श चर्च की दहलीज पर आ ही नहीं पाता,
वह उसके दस या पंद्रह किलोमीटर पर ही शायद दम तोड़ देता होगा!
अब ऐसे में यह समाचार आए कि दक्षिण अफ्रीका में डर्बन में एक ऐसा चर्च है जो महिलाओं को वर्जिनिटी अर्थात कौमार्य के प्रमाणपत्र भी प्रदान करता है, तो फेमिनिस्ट वर्ग की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए? क्या वैश्विक बहनापे का सिद्धांत यहाँ पर लागू नहीं होगा?
क्या यह महिला जाति का अपमान नहीं है कि एक रिलीजियस संस्था जिसकी स्थापना वर्ष 1910 में हुई थी, वह महिलाओं को कौमार्य के प्रमाणपत्र प्रदान कर रहा है। कौमार्य, अर्थात उसने अब तक यौन सम्बन्ध नहीं बनाए हैं।
https://twitter.com/AfricaFactsZone/status/1548585204356374528?
डर्बन में नाजारेथ बाप्टिस्ट चर्च, महिला सदस्यों को वर्जिनिटी परीक्षण से सफलतापूर्वक गुजरने के बाद वर्जिनिटी के प्रमाणपत्र देता है। लड़कियों को जैसे वस्तु बना दिया है जो अपने पवित्र होने का प्रमाणपत्र हाथ में लेकर घूम रही हैं, और वह भी कथित देह की पवित्रता के बाजार में! वर्जिनिटी के प्रति ईसाई रिलिजन में एक जूनून है और इन दिनों कई उत्पाद भी ऐसे बाजार में हैं, जो इस प्रकार के कौमार्य को वापस लाने का दावा करते हैं। हालांकि इसे लेकर भारत में भी शोर था, परन्तु इन उत्पादों का मूल कहां से है, कहां पर यह बने और कहां से आए तो पता चलेगा कि शायद ही कोई उत्पाद भारत से आरम्भ हुआ हो!
इंटरनेट पर ऐसे तमाम समाचार हैं, जिनमें ईसाई शादी के समय कौमार्य को प्रमुखता दी गयी है। जैसे वर्ष 2015 में प्रकाशित यह समाचार कि दुल्हन ने अपने पास्टर पिता के समक्ष एक डॉक्टर के प्रमाणपत्र के साथ यह प्रमाणित किया कि वह “कुंवारी” है! अर्थात वर्जिन है! ब्रेलिन फ्रीमैन नामक दुल्हन ने अपने “गर्वीले पिता” जो खुद भी एक पास्टर है, को यह प्रमाणपत्र दिया कि वह अभी तक कुंवारी है और अपनी पवित्रता का प्रमाणपत्र अपने पिता को दिया था।
यद्यपि हर धर्म में इस बात पर बल दिया गया है कि कन्या विवाह से पूर्ण यौन सम्बन्ध न बनाए परन्तु संस्थागत रूप से इस प्रकार का परीक्षण किया जाए या लड़की अपने पास्टर पिता को ऐसा प्रमाणपत्र दे कि वह अभी तक कुंवारी है, यह महिलाओं के प्रति अन्याय है। क्योंकि यह उन्हें पूरी तरह से वस्तु में बदल देता है। सबसे अधिक आश्चर्य की बात यही है इतनी बड़ी बातों पर फेमिनिस्ट मौन हैं। यही कल्पना आतंकित कर जाती है कि यदि ऐसा कुछ भी हिन्दू धर्म के किसी पुजारी ने या किसी धर्मविद ने कह दिया होता तो क्या होता? यदि ऐसा कोई प्रमाणपत्र कोई हिन्दू लड़की अपने पुजारी पिता को देती तो क्या होता? परन्तु मिशनरी फेमिनिज्म सबसे पहले चर्च पर उठने वाले प्रश्नों को ही समाप्त कर देता है और उसका निशाना मात्र और मात्र हिन्दू धर्म एवं उससे सम्बन्धित मान्यताएं हैं!
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