प्राचीन भारत में अधिगम प्रणाली गुणवत्तापरक शिक्षा के मूल में थी। इसलिए गुरुकुलों को पढ़ाए जाने वाले विषय, पाठ्यक्रम, अधिगम एवं मूल्यांकन प्रणाली तय करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 छात्र केंद्रित दृष्टिकोणों के माध्यम से शिक्षण प्रणाली को संवर्धित करने का अद्वितीय अवसर प्रदान करती है
सतत विकास लक्ष्य-4 का उद्देश्य सम्यक गुणवत्तापरक शिक्षा तक सर्वसुलभ पहुंच एवं आजीवन सीखने की जिज्ञासा सुनिश्चित करना है। यहां ‘गुणवत्तापरक शिक्षा’ का आशय मात्र विषयवस्तु को रटना-रटाना एवं परीक्षा में प्राप्तांक के आधार पर मूल्यांकन करना नहीं है। वस्तुत: यह एक अधिगमनीय और विकासात्मक प्रणाली है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बच्चों में अंतर्निहित क्षमता को बेहतर तरीके से उभारा जाए, जिससे वे जीवन-कौशल सीखें और समाज में समग्र ज्ञानमय मानस के रूप में अपना स्थान सुनिश्चित कर सकें। फलस्वरूप वे राष्ट्र का भविष्य संवारने हेतु वैश्विक-स्थानीय नागरिक बन सकें।
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने कहा है कि ‘शिक्षा ऐसी हो जो व्यक्ति को न्यायपूर्ण, शांतिपूर्ण और सहिष्णु समाज की निर्मिति में महती भूमिका के निर्वहन हेतु सहायक हो सके। एएससीडी, वाशिंगटन और एजुकेशन इंटरनेशनल, ब्रुसेल्स के अनुसार, ‘गुणवत्तापरक शिक्षा’ वह है जो बच्चे के समग्र विकास से जुड़े समस्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कराने के साथ लिंग, जाति, जातीयता, सामाजिक-आर्थिक एवं भौगोलिक स्थिति से भेदभाव रहित छात्र के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक एवं संज्ञानात्मक विकास पर जोर दे।
शिक्षा बच्चे को मात्र परीक्षा के लिए ही नहीं, अपितु जीवन के लिए भी तैयार करती है। गुणवत्तापरक शिक्षा का यह प्रारूप नैतिक एवं आध्यात्मिक घटकों के जुड़ाव से सही अर्थों में पूर्ण हो जाता है। गुणवत्तापरक सीखने-सिखाने हेतु अनुकूल वातावरण की उपलब्धता जैसे-आदर्श मूलभूत संरचना, प्रतिभा संपन्न आदर्श शिक्षक, सर्वसमावेशी पाठ्यक्रम एवं अधिगम के संसाधन, गुणवत्तापरक अधिगम और मूल्यांकन की समुचित प्रणाली अनिवार्य है, जिससे विद्यार्थियों को पढ़ाई के बाद आजीविका से संबंधित अनिश्चितता का सामना न करना पड़े।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 छात्र केंद्रित दृष्टिकोणों के माध्यम से शिक्षण प्रणाली को संवर्धित करने का अद्वितीय अवसर प्रदान करती है। इसमें निहित प्रावधान जैसे- अधिगम परिणाम और कौशल विकास आधारित बहु-विषयक पाठ्यक्रम, अनुभवजन्य, विचार, उद्भवन और नवाचार संचालित अधिगम जो तार्किक चिंतन को सुविधाजनक बनाने के लिए आवश्यक हैं।
वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा विषयक उस भारतीय दृष्टिकोण की सराहना हो रही है, जिसकी मान्यता है कि मनुष्य एक स्व-विकसित आत्मा है। शिक्षण प्रणाली का यह दायित्व है कि वह मनुष्य की शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, सौंदर्यात्मक, आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक क्षमताओं के विकास में सहयोगी बने, जिससे वह अपने विकास की संभावनाओं के उच्चतम शिखर तक पहुंच सके। यूनेस्को द्वारा संपादित दो प्रतिवेदनों ‘लर्निंग टू बी’ और ‘लर्निंग : ट्रेजर विदिन’ में शिक्षा संबंधी इस भारतीय दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है। इन दोनों प्रतिवेदनों का मुख्य उद्देश्य जानने के लिए सीखना, करने के लिए सीखना, साथ-साथ रहने के लिए सीखना और सीखने के लिए सीखना की भावना को पोषित करना ही है।
गुणवत्ता: प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के संदर्भ में
‘गुणवत्तापरक शिक्षा’ के वास्तविक सार को भारतीय दार्शनिकों द्वारा व्यक्त विचारों को आत्मसात करके ही जाना-समझा जा सकता है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मानव-निर्माण, चरित्र-निर्माण एवं जीवनदायक श्रेष्ठ विचारों को आत्मसात करना है। महान वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के अनुसार ‘शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण, मानवीय मूल्यों को विकसित करना, अनिश्चित भविष्य का सामना करने के लिए आत्मविश्वास को जागृत करना और गरिमा, आत्म-सम्मान एवं आत्मनिर्भरता की भावना विकसित करना है।’ इस परिपेक्ष्य में महर्षि अरविंदो ने जोर देकर कहा है कि मानव विकास अनिवार्य रूप से ‘अंतर्निहित क्षमता का विकास है’, साथ ही व्यक्ति को ‘एक संपूर्ण जीव के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें स्वयं की सहज ज्ञान और प्रेरक शक्ति होती है।’
प्राचीन भारत में प्रचलित ज्ञान की गुरुकुल परंपरा के परिणामस्वरूप भारत विश्वगुरु बना गुरुकुल शिक्षा के आवासीय केंद्र थे, जिनकी उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 5,000 ईसा पूर्व हुई थी। इन शिक्षण केंद्रों को सार्वजनिक दान द्वारा पोषित किया जाता था। इसलिए गुरुकुलों को पढ़ाए जाने वाले विषयों को तय करने, पाठ्यक्रम तैयार करने, अधिगम एवं मूल्यांकन प्रणाली को तय करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। गुरुकुलों में सोलह विषय और चौंसठ कौशल आधारित विषय सिखाए जाते थे। तब वर्तमान शिक्षण प्रणाली की तरह परीक्षा नहीं होती थी, वरन निरंतर मूल्यांकन पद्धति द्वारा सीखने के परिणामों का मूल्यांकन किया जाता था।
गुरुकुलों की मान्यता थी कि कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता। वस्तुत: गुरु सूत्रधार और मार्गदर्शक होते थे। वे शिष्यों के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करते थे, अपितु उन्हें मात्र यह दर्शाते थे कि उनके सीखने के अधिगमजन्य साधनों को कैसे सिद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार गुरुकुल आत्मविश्वास, आत्म-अनुशासन, चरित्र-निर्माण, सामाजिक जागरूकता, व्यक्तित्व विकास, बौद्धिक, आध्यात्मिक और भावनात्मक उन्नति, तार्किक ज्ञान और संस्कृति के संरक्षण जैसी उन अन्यान्य विशेषताओं को विकसित करने में सफल रहे, जो गुणवत्तापरक शिक्षा के आवश्यक घटक हैं।
प्राचीन भारत में अधिगम प्रणाली गुणवत्तापरक शिक्षा के मूल में थी। उदाहरणत:, आचार्य हरदत्त रचित आपस्तंब धर्मसूत्र के खंड 7, सूत्र 29 में वर्णित है कि ‘आचार्यात् पादमादत्ते पादं शिष्य: स्वमेधया। पादं सब्रह्मचारिभ्य: पादं कालेन पच्यते।।’ भावार्थ यह है कि गुणवत्तापरक शिक्षा चार चरणों में पूर्ण होती है – एक चौथाई शिक्षक से, एक चौथाई विद्यार्थियों के विवेक से, एक चौथाई सहपाठियों के साथ चर्चा-परिचर्चा से और एक चौथाई समय के साथ यानी सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में परिणित अनुभव से।
संयोगवश मूक के चार चतुर्थाश (ई-सामग्री, ई-ट्यूटोरियल, चर्चा/संवाद और मूल्यांकन) में सीखने के इस अधिगम के साथ आश्चर्यजनक समानता है। आचार्य शंकर के मतानुसार, सीखने की प्रक्रिया तीन चरणों में पूर्ण होती है, अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन। ‘श्रवण’ सुनकर ज्ञान प्राप्त करने की अवस्था है; ‘मनन’ का अर्थ है जो सुना गया उसका चिंतन एवं तार्किक विश्लेषण करना तथा गुरुओं द्वारा सिखाए गए विषय-वस्तुओं का निष्कर्ष निकालना और ‘निदिध्यासन’ का अर्थ सत्य की समझ और वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में उसे लागू करना। इस प्रकार यह बोध की अवस्था है। आचार्य वल्लभ ने प्रतिपादित किया है कि अच्छे विद्यार्थी को जिज्ञासा, अमात्सर्य और श्रवणदार के तीन गुणों का प्रदर्शन करना चाहिए। इसमें जिज्ञासा प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण गुण है, जो विद्यार्थी के पास होनी चाहिए। विद्यार्थी में सीखने की तीव्र इच्छा और दृढ़ता होनी चाहिए।
सीखने की प्रक्रिया को केवल सफलता का सोपान नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि जिज्ञासु होने की एक अंतर्निहित, ज्वलंत और शाश्वत इच्छा होनी चाहिए। गुरु के ज्ञान के प्रति अमात्सर्य या अलोभ विद्यार्थी का द्वितीय गुण है, जिसका अर्थ यह है कि विद्यार्थी स्वयं को गुरु से श्रेष्ठ या हीन न समझे। विद्यार्थी को सम्मानपूर्वक इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि गुरु उससे अधिक ज्ञानवान है और उसे विनम्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्ति हेतु उत्सुक होना चाहिए। श्रवणदार, अंतिम चरण है, जिसका तात्पर्य है कि विद्यार्थियों को जागरूक एवं अनुशासित जिज्ञासु होना चाहिए। साथ ही, निर्धारित कार्यों को समयावधि में पूर्ण करना सुनिश्चित करना चाहिए एवं बौद्धिक आदि में भाग लेते समय उत्तम आचरण प्रदर्शित करना चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का क्रियान्वन
इस प्रकार प्राचीन भारतीय अधिगम प्रणाली में प्रश्नोत्तर और अन्वेषण की अनुमति के इतर, अवलोकन और स्वातंत्र्य तथ्यान्वेषण के माध्यम से प्रकृति के रहस्यों की समझ हेतु अनुभवी बनाने के लिए निरंतर चर्चा-परिचर्चा पर जोर दिया जाता था। इस अधिगम प्रणाली ने गुणवत्तापरक शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थियों को ब्रह्मांड की व्यापकता का अध्ययन करने और इसके अस्तित्व के कारणों को ज्ञात करने हेतु सामर्थ्यवान बनाया।
साथ ही, यह प्रकृति से साहचर्य हेतु उसके साथ पारस्परिक संबंध बनाने में सहायक हुई। परन्तु 19वीं शताब्दी के मध्य में शुरू यूरोप-केंद्रित मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने न केवल प्राचीन भारतीय अधिगमशास्त्र की मूल आत्मा को नष्ट किया, बल्कि शिक्षा के मूल उद्देश्यों को भी इस हद तक नष्ट कर दिया कि अब हम भगीरथ प्रयास द्वारा ही शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त कर पुन: विश्व-गुरु का स्थान प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा द्वारा अपनी वर्तमान आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को एक नवीन स्वरूप प्रदान करना होगा।
इस संदर्भ में हमें वर्तमान शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का सन्निवेश करने हेतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में सन्निहित सुधारों पर दृष्टिपात करने की महनीय आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 छात्र केंद्रित दृष्टिकोणों के माध्यम से शिक्षण प्रणाली को संवर्धित करने का अद्वितीय अवसर प्रदान करती है। इसमें निहित प्रावधान जैसे- अधिगम परिणाम और कौशल विकास आधारित बहु-विषयक पाठ्यक्रम, अनुभवजन्य, विचार, उद्भवन और नवाचार संचालित अधिगम जो तार्किक चिंतन को सुविधाजनक बनाने के लिए आवश्यक हैं। साथ ही, इसमें ऐसी मूल्यांकन प्रणाली का प्रावधान है, जो यह आकलित करने में सक्षम है कि विद्यार्थियों द्वारा पूर्वनिर्धारित अधिगम परिणाम प्राप्त हो सके हैं अथवा नहीं इत्यादि, प्रचलित शिक्षा प्रणाली को गुणवत्तापरक बनाने का सामर्थ्य रखते हैं।
युवाओं को गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त हो सके इसके लिए शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी सुविधाजनक विनियमों के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु अहर्निश प्रयासरत हैं। विश्वविद्यालय राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में परिकल्पित सुधारों को मौजूदा पाठ्यक्रमों के साथ एकीकृत करने हेतु अग्रसर हैं।
भारत-केंद्रित राष्ट्रीय शिक्षा नीति को समग्रता एवं प्रभावी रूप से लागू करने हेतु भारतीय उच्च शिक्षा आयोग की शीघ्रातिशीघ्र स्थापना अनिवार्य है। इस दिशा में विलंब हमारी शिक्षा प्रणाली को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकता है एवं विद्यार्थियों को गुणवत्तापरक शिक्षा की पहुंच से वंचित रख सकता है। शिक्षा नीति के निर्बाध क्रियान्वयन के लिए अतिरिक्त शिक्षकों एवं संसाधनों की आवश्यकता है। साथ ही, गुणवत्तापरक शिक्षा सुनिश्चित करने एवं आईसीटी का लाभ लेने हेतु डिजिटल असमानता को दूर करना नितांत आवश्यक है। तात्पर्य है यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में अधिक पूंजी लगाना अपरिहार्य है।
मेरा मानना है कि हम सभी शिक्षक अपनी भूमिकाओं पर पुन: दृष्टिपात करते हुए एवं प्राचीन भारतीय शिक्षण परंपरा से प्रेरणा ग्रहण करते हुए पूर्णनिष्ठा एवं समर्पण भाव से गुरुतर दायित्व का निर्वहन करें। प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में गुरुओं के कर्तव्यों के आधार पर उनके 6 रूप थे- अध्यापक (सूचना प्रदाता), उपाध्याय (सूचना के साथ-साथ ज्ञान का भी प्रदाता), आचार्य (कौशल विकासकर्ता), पंडित (गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला), द्रष्टा (दूरदर्शी विचारों का प्रदाता और उस दृष्टि से सोचने के लिए प्रेरितकर्ता) एवं गुरु (ज्ञान जागरण एवं अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश का मार्गदर्शक)।
ब्लूम के वर्गीकरण से साम्य का यह अन्यतम उदहारण है। ज्ञान-आधारित समाज में गुणवत्तापरक शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व हो जाता है, क्योंकि यह ऐसी आधारशिला है जिसमें आर्थिक सजीवता, स्वास्थ्य एवं मानवता का समग्र हित निहित है। अतैव शिक्षा व्यवस्था को गुणवत्तापरक बनाने में कोई भी अवसर नहीं खोना चाहिए। इसके इतर गुणवत्तापरक शिक्षा ही वह माध्यम है जिसका पूर्णरूपेण लाभ प्राप्त करके ही कोई भी राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शीर्ष तक पहुंचने हेतु स्वयं को समर्थ एवं सशक्तवान बनाती है।
दरअसल ‘शिक्षा’ एवं ‘गुणवत्तापरक शिक्षा’ को भिन्न-भिन्न पद्धति न मानकर इन्हें परस्पर समानार्थी मानना चाहिए, क्योंकि गुणवत्तापरक शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ही व्यक्ति, समुदाय व राष्ट्र की वर्तमान एवं भावी समस्त समस्यायों का समाधान सुनिश्चित करने के साथ मानवता के अंतर्तम को आलोकित किया जा सकता है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को समग्रता एवं प्रभावी ढंग से लागू करने में अनुकरणीय प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया है।
(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)
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