भारत की गुरु-शिष्य परंपरा छीजती जा रही है परंतु आज भी कुछ गुरुओं ने इस परंपरा को जीवित रखने के लिए अपना सर्वस्व होम करना जारी है। शिष्यों को गढ़ना, उन्हें सफल होने के लिए अनुशासनबद्ध करना, उनमें जुनून पैदा करना, समर्पण सिखाना ही इनके जीवन का परम उद्देश्य रहा। इस गुरु पूर्णिमा पर ऐसे ही तीन गुरुओं को प्रणाम
खेल जगत में तीन ऐसे गुरु हुए हैं जिन्होंने अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने और उन्हें अपने बच्चे की तरह सहेज कर आगे बढ़ाने में सारा जीवन लगा दिया। ये गुरु एक निश्चित कठोर दिनचर्या का स्वयं भी पालन करते रहे और अपने शिष्यों को भी उस कड़े अनुशासन में ढाला। वे अपने शिष्यों के साथ न सिर्फ अपने खेल की बारीकियों पर ठोस काम करते थे बल्कि अपने शिष्यों की सोच और इरादे भी निर्मित करते थे। तभी तो उनके शिष्यों ने अपने क्षण में न सिर्फ नाम कमाया बल्कि खेल में नए मुकाम गढ़कर अपने गुरुओं का नाम अमर कर दिया। ये गुरु हैं क्रिकेट में रमाकांत आचरेकर, कुश्ती में गुरु हनुमान और बैडमिंटन में गोपीचंद पुलेला।
अचरेकर की डांट में होता था अद्भुत ज्ञान
छोटी-सी उम्र में किसी प्रतिभा को तलाशना और उसे निरंतर तराशते हुए विश्व खेल पटल पर धूमकेतु की तरह चमकाने की कला रमाकांत अचरेकर से बेहतर शायद ही किसी के पास हो। उन्होंने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रशिक्षित करने और उन्हें अपने बच्चे की तरह सहेजकर आगे बढ़ाने में सारा जीवन लगा दिया। त्याग और पूर्ण समर्पण भाव से अचरेकर ने क्रिकेट की नर्सरी मुंबई से सचिन तेंडुलकर, विनोद कांबली, चंद्रकांत पंडित, अजित अगरकर और प्रवीण आमरे जैसे कई क्रिकेटर दिए जिन्होंने लंबे समय तक देश का नाम रोशन किया। यही नहीं, उनके शिष्यों का दावा है कि मॉडर्न क्रिकेट में जो प्रशिक्षण दिया जा रहा है, वह सब उन्हें पिछले 30-40 वर्षों से उनके गुरु सिखा चुके थे। इसी तरह, अचरेकर शुरू से ही मानते थे कि मैच प्रैक्टिस ही सबसे जरूरी अभ्यास है, जिसे बाद में पूरे क्रिकेट जगत ने माना।
वैसे, अचरेकर का नाम आने पर उनके शिष्य सचिन तेंडुलकर का नाम सबसे पहले आता है। सचिन की प्रतिभा को अचरेकर ने छोटी उम्र में ही पहचान लिया था। एक अभिभावक की तरह उन्होंने सचिन को एक महान क्रिकेटर बनाने के लिए अपना सर्वस्व झोंक दिया। उन्होंने प्रशिक्षण से लेकर सचिन को किस स्कूल में पढ़ना है (सचिन को प्रशिक्षण लेने के लिए परिवार से अलग अपने रिश्तेदार के यहां 4 वर्षों तक रहना पड़ा), किस मैदान पर खेलना है (वे सचिन को अपने स्कूटर पर बिठाकर अलग-अलग मैचों में खेलने के लिए ले जाते थे), किस मैच में उतरना है, किस तकनीक का इस्तेमाल करना है, सारे निर्णय किए। एक बार सचिन को किसी मैच में स्कूल के सारे सीनियर खिलाड़ियों के उतरने के कारण मौका नहीं मिला और पे मैदान के किनारे अपनी टीम का मनोबल बढ़ाने के लिए तालियां बजा रहे थे।
अचरेकर सचिन को अपने पास बुलाकर झिड़कते हुए अंदाज में बोले- ‘तुम मैदान पर दूसरों के लिए तालियां न बजाओ… कुछ ऐसा कर दिखाओ कि दुनिया तुम्हारे लिए ताली बजाए।’ अचरेकर की उस डांट और उसके पीछे छिपे अद्भुत ज्ञान ने सचिन के जीवन को ही बदल दिया और वे अपने समय के महानतम क्रिकेटर बनने के अलावा एक संवेदनशील इनसान बनने में सफल रहे। ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ व ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित गुरु अचरेकर को नमन्।
गुरु के साथ सजग प्रहरी थे गुरु हनुमान
आए दिन लोगों को यह कहते सुना जाता है – ‘गुरु ने हमारे जीवन को सफल कर दिया’ या फिर ‘आज अगर मैं खिलाड़ी नहीं होता तो कभी एक सफल इनसान नहीं बन पाता।’ ये भले ही आम प्रतिक्रियाएं हैं, लेकिन इनके पीछे कुछ शिक्षकों या प्रशिक्षक विशेष का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गुरु हुनमान इसके सटीक उदाहरण थे।
राजस्थान के चिड़ावा गांव में पैदा हुए विजय पाल (गुरु हनुमान) युवावस्था में ही दिल्ली आ गए थे। करने को कुछ विशेष था नहीं, अलबत्ता कुश्ती से उन्हें अत्यंत लगाव था और पारंपरिक कुश्ती के वह बहुत गहन जानकार थे। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में दिल्ली में कुश्ती व्यायामशाला की शुरूआत की। चूंकि अद्भुत बलशाली और अनुशासनप्रिय भगवान् हनुमान उन्हें सबसे प्रिय थे इसलिए उन्होंने अपना नाम हनुमान रख लिया और आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की सौगंध ली।
देश की आजादी के बाद वे पारंपरिक भारतीय कुश्ती व आधुनिक कुश्ती की शैलियों मिलाकर युवा पहलवानों को प्रशिक्षण देने लगे। उनकी शर्त थी मेरे सारे शिष्य मेरे बच्चे की तरह अखाड़े में ही रहेंगे और उसके अंदर की दिनचर्या व अनुशासन का पालन करना सबके लिए अनिवार्य होगा। प्रात: चार बजे से कठिन अभ्यास का दौर शुरू हो जाता था और उनके सभी शिष्यों को शाम को भी चार घंटे के दूसरे अभ्यास सत्र में भाग लेना होता था। इस बीच दूध-दही, देसी घी, मेवे, छाछ व लस्सी सहित अनिवार्य रूप से पहलवानों को शाकाहारी खाना लेना होता था। उनके इन्हीं गुणों के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा था ‘गुरु हुनमान गुरु परंपरा के चमकते प्रकाश स्तंभ थे।’
गुरु हनुमान तड़के तीन बजे उठ जाते थे और एक छड़ी लेकर अपने सभी शिष्यों को उठाकर प्रात: चार बजे तक अखाड़े में ले आते थे। इसमें गुरुजी किसी भी शिष्य की कोई आनाकानी सहन नहीं करते थे और उनकी छड़ी के आगे किसी की एक न चलती थी। इसी तरह कुछ सीनियर पहलवान रात में छुप-छुपाकर सिनेमा देखने भाग जाते थे तो अनुशासनप्रिय गुरुजी उनका स्वागत अपने सोंटे से करते थे। भारतीय कुश्ती के भीष्म पितामह कहे जाने वाले गुरु हनुमान की मेहनत व समर्पण का ही यह नतीजा था कि उनके अखाड़े से अनेक ओलंपियन पहलवान निकले जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ढेरों पदक जीतते हुए देश का परचम लहराया। गुरु हनुमान को वर्ष 1983 में ‘पद्मश्री’ और 1988 में ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ से सम्मानित किया गया।
त्याग और समर्पण की मूरत हैं गोपी
भारत ने इस सदी में कई खेल स्पर्धाओं जैसे कुश्ती, मुक्केबाजी, शूटिंग और बैडमिंटन में उल्लेखनीय प्रदर्शन करते हुए विश्व खेल मंच पर सशक्त दावेदारी पेश की है। उनमें से विशेषकर बैडमिंटन में भारत ने चीन, इंडोनेशिया, कोरिया व मलेशिया जैसी महाशक्तियों को कड़ी टक्कर देते हुए पहले तो अपनी पहचान बनाई और आज स्थिति यह है कि एशियाई खेलों से लेकर ओलंपिक खेलों तक पोडियम फिनिश करने की भारतीय खिलाड़ियों की आदत सी पड़ गई है। इसके पीछ पूर्व आल इंग्लैंड चैंपियन व ओलंपियन पुलेला गोपीचंद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
गोपीचंद अन्य प्रशिक्षकों से कहीं अलग और आगे की सोचते हैं जिससे भारतीय खिलाड़ियों का सोच पूरी तरह से बदल गया है। अब भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में महज भागीदारी नहीं, बल्कि पदक जीतने उतरते हैं। गोपीचंद का मानना है कि इन दिनों हर खिलाड़ी पदक जीतने के इरादे से कोर्ट में उतरता है, लेकिन उसके लिए कितनी तैयारी की गई है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
प्रात: 5 बजे से शाम 7-8 बजे तक वे अपनी अकादमी में खिलाड़ियों से एक-एक शॉट और बेहतर तकनीक पर कड़ी मेहनत कराते हैं, जबकि पिछली गलतियों को सुधारने से पहले तक गोपीचंद अपने खिलाड़ियों को राहत नहीं लेने देते। गोपीचंद कहते हैं – ‘मैं अपनी अकादमी में उन्हीं खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देना चाहता हूं जिनमें खेल के प्रति लगाव हो, वह खेल कर खुश हो रहा हो, उनका हैंड-आई कोआॅर्डिनेश सही हो, कोर्ट में खाली जगह पर गिर रही शटल को संभाल सकता हो और किसी खिलाड़ी विशेष से लगातार हारने के बावजूद उसे हराने की इच्छाशक्ति हो। मैं अपने खिलाड़ियों पर विश्व चैंपियनशिप में पदक जीतने का दबाव नहीं डालता, लेकिन हर शॉट खेलने और विपक्षी के हर शॉट का जवाब देने के लिए उन्हें पूरी तरह से तैयार करता हूं।’
भारतीय बैडमिंटन टीम के मुख्य राष्ट्रीय प्रशिक्षक गोपीचंद ने हैदराबाद में अकादमी खोल कर एक तरह से देश के युवा खिलाड़ियों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की राह खोल दी। गोपीचंद अकादमी में प्रशिक्षण लेते हुए सायना नेहवाल (2012 लंदन) और पी वी सिंधू (2016 रियो व 2020 टोक्यो) ने ओलंपिक खेलों में भारत के लिए पदक जीतते हुए इतिहास रच दिया। हालांकि, पुरुष वर्ग में भारत अब तक कोई ओलंपिक पदक नहीं जीत सका है, लेकिन गोपीचंद अकादमी से पूर्व विश्व नंबर एक खिलाड़ी किदाम्बी श्रीकांत, पी. कश्यप और साईं प्रणीथ जैसे कई धुरंधर खिलाड़ी निकले हैं। श्रीकांत के नेतृत्व में इस वर्ष भारत ने पहली बार थॉमस कप खिताब जीतकर इतिहास रचा, जो स्पष्ट संकेत है कि पुरुष वर्ग में ओलंपिक पदक उनकी जद से दूर नहीं है।
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