‘महिलाओं का काम सिर्फ बच्चे पालना’, खास सोच फैलाते हैं मदरसे

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आलोक गोस्वामी

मदरसों में पढ़े ऐसे बहुत कम लोग हैं जो महिलाओं की उच्च शिक्षा तथा नौकरी-पेशे से जुड़ी महिलाओं के प्रति सकारात्मक रवैया रखते हों। अधिकांश मुस्लिम पुरुषों की मानसिकता में आज भी महिलाओं का दर्जा दोयम है

बहुत बार सुनने में आया है कि मदरसों में जिस तरह की तालीम दी जाती रही है या दी जाती है उसने मुस्लिम पुरुषों को महिलाओं को कमतर आंकने और घर की चारदीवारी में कैद रखने की समझ को बढ़ाया ही है। वे इससे आगे समाज में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं देखते। आश्चर्य तो यह कि इस मदरसी तालीम को लेकर बनी यह सोच अब यूनेस्को की रिपोर्ट से भी झलकती है। यह रिपोर्ट साफ कहती है कि जिस पुरुष ने किसी मदरसे में तालीम ली है, उसके लिए महिलाएं बस ‘बच्चे पैदा करने की मशीन’ से ज्यादा कुछ नहीं हैं।

खास सोच फैलाते हैं मदरसे  
अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को की हाल ही में आई रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसों के मजहबी और संस्थागत इतिहास की बात करें तो ये अक्सर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों के बीच की हद को धुंधलाते हैं। इससे यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि वे एक मजहबी संस्थान की तरह काम करते हैं या गैर-सरकारी तालीमी संस्थान की तरह। इनमें कोई विषय पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा छात्रोें में एक खास सोच पर चलने, मजहबी किताबों तथा इस्लाम की तालीम पर बल दिया जाता है। इनमें इस बात पर काफी जोर दिया जाता है कि छात्र आसपास की मस्जिदों से जुड़ें और उनमें आएं-जाएं। एक आंकड़े के अनुसार, भारत में सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 16,461 मदरसे मान्यता प्राप्त हैं, जिनमें से 560 को सरकारी अनुदान मिलता है। इनके अलावा कथित गैर-पंजीकृत मदरसे भी कम नहीं हैं।

यूनेस्को की रिपोर्ट का मुखपृष्ठ

मदरसों की बढ़ती तादाद को लेकर इस रिपोर्ट में यह कयास झलकता है कि मदरसी तालीम जितनी फैलेगी उतनी ही पुरुषों और महिलाओं में समानता को लेकर किए जा रहे प्रयासों को ठेस पहुंचेगी। कथित तौर पर मदरसों के पाठ्यक्रम और उनमें पढ़ाई जा रहीं किताबें पुरुषों और महिलाओं की स्थिति और अधिकारों के बारे में समान रूप से बात नहीं करतीं

 

वर्षों से भारत, या अन्य देशों में भी, मदरसों को मुस्लिम बालकों में कट्टरपंथी सोच फैलाने के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। आधुनिक शिक्षा पद्धति और शिक्षा के अधिकांश विषयों को लेकर मदरसों ने सदा एक वैर भाव दिखाया है। एक मौलवी की मौजूदगी में मुस्लिम लिबास पहने मदरसों के छात्र आगे—पीछे हिलते हुए अरबी में कुरान की आयतें रटते दिखाई देते हैं। वहीं विज्ञान और अंग्रेजी की तालीम से वे तौबा ही करते नजर आते हैं।

इसलिए जिस वहाबी सोच के तहत अफगानिस्तान में तालिबान ने ‘शरिया’ की आड़ में महिलाओं पर दमन का चक्र चला रखा है, मदरसों पर ठीक वैसी ही सोच रखने और उसे छात्रों में भरने की बात अक्सर सुनाई देती है। वहां दी जाने वाली तालीम को लेकर इसीलिए लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन इसे ‘मजहबी तालीम’ का हिस्सा बताकर मामले को रफा-दफा किया जाता रहा है। यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में यही बात लिखी है कि मदरसों में पढ़े लोग महिलाओं को लेकर एक पूर्वाग्रही नजरिए के शिकार हैं।

महिलाओं की उच्च शिक्षा का विरोध
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि मदरसों में पढ़े ऐसे बहुत कम लोग हैं जो महिलाओं की उच्च शिक्षा तथा नौकरी-पेशे से जुड़ी महिलाओं के प्रति सकारात्मक रवैया रखते हैं। ज्यादातर का मानना है कि बीवियों का खास काम तो बच्चों को पालना-पोसना है। यूनेस्को की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसा छात्र महिलाओं और उनकी काबिलियत को लेकर उतना सकारात्मक नजरिया नहीं रखते। गौरतलब है कि पारंपरिक मदरसों में मौलवियों के परिवार काफी बड़े देखे गए हैं।

मदरसों की बढ़ती तादाद को लेकर भी रिपोर्ट में यह कयास झलकता है कि मदरसी तालीम जितनी फैलेगी, उतनी ही पुरुषों और महिलाओं में समानता को लेकर किए जा रहे प्रयासों को ठेस पहुंचेगी। मदरसों में कथित तौर पर पाठ्यक्रम और उनमें पढ़ाई जा रहीं किताबें पुरुषों और महिलाओं को समान दृष्टि से देखने पर बल नहीं देतीं। वे परंपरा से जिसकी जो स्थिति चली आ रही है, उसी पर जोर देती हैं। यूनेस्को के अनुसार, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया तथा सऊदी अरब में किए गए अध्ययनों से यही बात सामने आई है।

इसके साथ ही, मदरसों में दी जा रही तालीम और सामाजिक मेलमिलाप में पुरुषों और महिलाओं में बढ़ता एक तरह का अलगाव इस मान्यता को और पक्का कर सकता है कि कथित ‘लैंगिक असमानता को समाज स्वीकार करता है’। इसके पीछे एक आशंका यह है कि मदरसों के मौलवियों के पास पुरुषों और महिलाओं से जुड़े मुद्दों का हल करने लायक प्रशिक्षण नहीं है। इसी तरह वे परिवार के आकार और महिलाओं की प्रजनन की क्षमता को लेकर छात्रों के सोच पर असर डाल सकते हैं।

रिपोर्ट आगे कहती है कि मदरसों में आमतौर पर एक ही तरह का कोर्स चलता है, जिसमें ज्यादातर चीजें मजहब से जुड़ी हैं। हालांकि यह बात भी सही है कि हर देश में मदरसों में एक जैसी स्थिति नहीं है। कुछ देशों में मदरसों में सरकारी मान्यताप्राप्त पाठ्यक्रम जुड़ा हुआ है, जबकि दूसरे मदरसों में पहले से चले आ रहे ढर्रे पर ही तालीम दी जाती है।

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