सैकड़ों साल से घुमंतू जीवन जीने वाले गाड़िया लोहार समाज के बच्चे अब अपने लिए एक स्थाई घर और रोजगार के सपने देख रहे हैं और इसे पूरा करने के लिए पढ़ने-लिखने लगे हैं। इन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कार दिलाने के लिए सेवा भारती के कार्यकर्ताओं की एक टोली काम कर रही है
उस दिन उमस भरी गर्मी थी। पटरी पर बनी पांच गुणा पांच फुट की एक झोपड़ी की देहरी पर उसकी मालकिन लकड़ी के चूल्हे पर खाना बना रही थी और अंदर कुछ बच्चे पढ़ रहे थे। झोपड़ी की छत के नीचे लकड़ी से लटका एक छोटा-सा पंखा खटर-खटर की आवाज के साथ चल रहा था। इस कारण बच्चों को हवा तो लग रही थी, लेकिन उसके साथ चूल्हे का धुआं भी अंदर जा रहा था। इसके बावजूद बच्चे मास्टर जी की बात सुन रहे थे और कुछ पूछने पर जवाब भी दे रहे थे। यानी वे बच्चे न तो गर्मी की परवाह कर रहे थे और न ही सड़क पर चलने वाली गाड़ियों के शोर से परेशान थे। इनमें से एक बालक था कवि। पूछा कि इतनी उमस भरी गर्मी में सड़क के किनारे और वह भी गाड़ियों के शोर के बीच में पढ़ रहे हो, तो क्या तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो रही है? उसने कहा, ‘‘बिल्कुल नहीं। चाहे गर्मी हो या बरसात या गाड़ियों का शोर, इनका हम सब पर कोई असर नहीं होता है, क्योंकि हम लोग इसके आदी हो गए हैं। यहीं सड़क के किनारे पैदा हुए, यहीं सड़क के किनारे पले-बढ़े और अब यहीं जवान हो रहे हैं। हमारे माता-पिता ने इसी सड़क के किनारे वर्षों का समय काट दिया है। अब हमारी पीढ़ी के बच्चे नहीं चाहते कि यहीं जिंदगी कटे। मन में एक सपना है कि अपना एक आशियाना हो, अपना एक घर हो, अपनी एक छत हो, जहां हम सब सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें।’’
कवि नई दिल्ली के मायापुरी-फेज दो में सीएनजी पेट्रोल पंप के पास सड़क के किनारे पटरी पर रहता है। इस समय यहां गाड़िया लोहार समाज के 42 परिवार रहते हैं। इन्हीं में एक परिवार कवि का है। कवि दिन में तो स्कूल जाता है, लेकिन शाम को यहां चलने वाले संस्कार केंद्र (ट्यूशन सेंटर) में पढ़ता है। यहां दो संस्कार केंद्र चलते हैं। एक छोटे बच्चों के लिए और दूसरा बड़े बच्चों के लिए। इनका संचालन विद्या भारती द्वारा संचालित हरिनगर स्थित महाशय चुन्नीलाल सरस्वती शिशु मंदिर करता है। इनमें पढ़ने वाले बच्चों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। बड़े बच्चों को रोहित और छोटे बच्चों को मोहित पढ़ाते हैं। ये दोनों भी छात्र ही हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए विद्यालय द्वारा कुछ मानधन दिया जाता है। महाशय चुन्नीलाल सरस्वती शिशु मंदिर के प्राचार्य कुलदीप चौहान ने बताया, ‘‘उपेक्षित समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए विद्यालय द्वारा सात संस्कार केंद्र चलाए जा रहे हैं। इनमें से दो मायापुरी की गाड़िया लोहार बस्ती में चल रहे हैं।’’
बता दें कि इस बस्ती में रहने वाले सभी लोग गाड़िया लोहार समाज से हैं और आपस में रिश्तेदार भी हैं। इनका काम लोहे के सामान बेचने का है। ये लोग छेनी, कैंची, कुल्हाड़ी, हथौड़ा, खुरपा, दराती, अंगेठी आदि बनाकर बेचते हैं और अपनी गुजर-बसर करते हैं।
उल्लेखनीय है कि गाड़िया लोहार समाज घुमंतू समाज है, कहीं एक जगह टिकता नहीं है। यह इनकी सदियों पुरानी परंपरा रही है, लेकिन अब इस परिवार के बहुत सारे लोग अपने बच्चों के भविष्य को लेकर कहीं एक जगह भले ही फुटपाथ हो, रेलवे पटरी का किनारा हो या फिर कोई पार्क, वहीं वर्षों से रह रहे हैं, अपने बच्चों को पढ़ाने का प्रयास रहे हैं। उनके इस प्रयास को गति देने का काम सेवा भारती के कार्यकर्ता और कुछ अन्य संगठन कर रहे हैं।
इन कार्यकर्ताओं ने इस समाज के 15 बच्चों का महाशय चुन्नीलाल सरस्वती बाल मंदिर और माता लीलावंती विद्यालय के अलावा जनकपुरी और राजौरी गार्डन के सरस्वती विद्या मंदिरों में दाखिला करवाया है। चूंकि ये विद्यालय अपने क्षेत्र में काफी प्रतिष्ठित हैं और यहां से पढ़े छात्र समाज जीवन के हर क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं, इसलिए इनका शुल्क भी ठीकठाक है, लेकिन गाड़िया लोहार के बच्चों से हर माह केवल 1,000 रु. शुल्क लिया जाता है।
बाकी का सारा खर्च सेवा भारती के कार्यकर्ता उठाते हैं। नक्स नामक एक बच्चा हरिनगर स्थित माता लीलावंती विद्यालय में तीसरी कक्षा में पढ़ता है। उसके पिता राकेश कहते हैं, ‘‘हमारे पूर्वज पटरी पर ही रहे और पटरी से ही इस दुनिया से विदा हो गए। वे इतने गरीब थे कि अपने लिए एक छत तक नहीं बनवा सके। यदि मेरे माता-पिता हमें पढ़ाते तो शायद आज हम यहां नहीं रहते, लेकिन उनकी भी मजबूरियां थीं। पर अब हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे पटरी पर रहें। इसलिए हम अपने बच्चों को पढ़ने भेजते हैं। पढ़ाने में सेवा भारती के कार्यकर्ता मदद कर रहे हैं।’’
उल्लेखनीय है कि गाड़िया लोहार समाज के बीच काम करने के लिए सेवा भारती के कार्यकर्ताओं की एक टोली है, जिसमें 20 सदस्य हैं। ये लोग इस समाज की हर समस्या का समाधान करवाने का प्रयास करते हैं। टोली के प्रमुख शैलेन्द्र विक्रम कहते हैं, ‘‘पहला काम है इस समाज के बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाना। इसके लिए जो कुछ भी करना होता है, वह किया जाता है। शिक्षा ही इस समाज को हर बंधन और गरीबी से मुक्त कर सकती है। इसलिए सेवा भारती के कार्यकर्ता इनके बच्चों को पढ़ाने के लिए हर त्याग करने को तैयार हैं।’’
सेवा भारती के कार्यकर्ताओं के इस प्रण का ही असर है कि आज इस समाज के लगभग 50 बच्चे विभिन्न विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। इनमें कुछ बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं।
कवि के अलावा विवेक, विनय, वंश एवं अनुज भी इसी फुटपाथ पर रहते हैं। विवेक कक्षा नौवीं का छात्र है, जबकि वंश और अनुज कक्षा सातवीं में पढ़ते हैं। ख्याला में रहने वाला हिमांशु भी कक्षा नौवीं में पढ़ता है। इन सबकी पढ़ाई सेवा भारती के सहयोग से हो रही है। इस समाज के रोहित पहले ऐसे युवा हैं, जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
ये अभी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) से स्नातक कर रहे हैं। इसके साथ ही सेवा भारती में घुमंतू समाज प्रमुख का दायित्व निभा रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘जब तक बाहरी समाज से नहीं जुड़ा था, तब तक लगता था कि हमारा काम है लोहे का सामान बेचकर अपना परिवार पालना, लेकिन सेवा भारती के संपर्क में आने के बाद आंखें खुल गई। अब लगता है कि अपने समाज को आगे बढ़ाने से अच्छा और कोई काम नहीं है।’’
यही कारण है कि रोहित अपनी पढ़ाई के अलावा पूरी तरह अपने समाज की सेवा में लगे हैं। वे अपनी टोली के साथ मिलकर अपने समाज के बच्चों का नामांकन विभिन्न विद्यालयों में करवाते हैं। इसके साथ ही अन्य जरूरी सरकारी कागजात बनवाते हैं। सड़क किनारे रहने से अनेक तरह की समस्याएं आती हैं, इन सबको भी सुलझाते हैं। सेवा भारती के संपर्क में कैसे आए! इस पर रोहित बताते हैं, ‘‘कुछ साल पहले की बात है। उन दिनों सेवा भारती के कुछ कार्यकर्ता हमारे समाज के बीच आने-जाने लगे थे।
एक दिन एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मुझसे कहा कि तुम आगे की पढ़ाई करो और इसमें जो भी मदद चाहिए, वह सेवा भारती करेगी। इसके बाद उनके सहयोग और देखरेख में ही आज इग्नू से स्नातक की पढ़ाई कर रहा हूं और साथ ही कुछ सामाजिक कार्य भी।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘यदि सेवा भारती से नहीं जुड़ते तो शायद हमारे समाज के इतने बच्चे पढ़ने से वंचित रह जाते। अब हमारे समाज के बच्चे पढ़-लिखकर अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करना चाहते हैं, अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान बनाना चाहते हैं और इस धारणा को धोना चाहते हैं कि हम तो घूमते ही रहने वाले हैं, हमारा कोई घर-बार नहीं है।
कौन हैं गाड़िया लोहार
गाड़िया लोहार समाज पर शोध कर रहे शैलेन्द्र विक्रम ने बताया कि राजधानी दिल्ली में इस समाज के लोग 92 स्थानों पर रहते हैं। ये लोग आज भी मूल-भूत आवश्यकताओं से कोसों दूर हैं। इनके पास अपना कोई घर नहीं है। ये किसी सड़क के किनारे ही रहते हैं। शौचालय, स्नान का स्थान एवं पीने का पानी आज भी इनके दैनिक संघर्ष के विषय हैं। विक्रम मानते हैं कि इनकी गरीबी का मुख्य कारण है परम्परागत रोजगार के प्रति अत्यधिक लगाव। उल्लेखनीय है कि इस समाज के लगभग 90 प्रतिशत लोग भी घरेलू आज लोहे के सामान और खेती के औजारों को बनाते और बेचते हैं। पुरुष समाज जहां निर्माता है, वहीं महिलाएं अपने पति की सहयोगी और निर्मित सामान की विक्रेता हैं। इस समाज के 90 प्रतिशत बच्चे केवल 8वीं तक ही नियमित विद्यालय जाते हैं। शेष 10 प्रतिशत में से ज्यादातर लड़कियां हैं। यानी लड़कों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम है। विक्रम ने बताया कि सेवा भारती के कार्यकर्ताओं के प्रयासों से आज इस समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन एवं समरसता के क्षेत्र में रचनात्मक परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन इस समाज के लिए बहुत ही जरूरी है।
गाड़िया लोहार समाज का संबंध हल्दी घाटी के युद्ध से है। उस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने मुगलों को भारी क्षति पहुंचाई थी। मुगल सैनिक गाजर-मूली की तरह काटे जा रहे थे। इसके बाद मुगलों ने अन्य राजाओं के सहयोग से अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा ली। इसके बाद महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध करने की नीति बनाई। इस रणनीति के अंतर्गत राजपूत, भील एवं अन्य समाज के बहुत सारे लोगों ने महाराणा की ओर से युद्ध लड़ने की घोषणा की। वहीं गाड़िया लोहार समाज एक मात्र ऐसा समाज था, जिसने अपने पूरे कुनबे के साथ युद्ध में हिस्सा लिया। इसके साथ ही इस समाज ने यह भी प्रण लिया कि जब तक महाराणा प्रताप विजयी नहीं होंगे, तब तक वे लोग पांच कार्य नहीं करेंगे। ये पांच कार्य हैं-चित्तौड़ दुर्ग पर नहीं चढ़ेंगे, घर बनाकर नहीं रहेंगे, खाट पर नहीं सोएंगे, दीपक नहीं जलाएंगे और कुएं से पानी खींचने के लिए रस्सा नहीं रखेंगे। विक्रम कहते हैं कि इतना बड़ा प्रण कौन ले सकता है! इसका उत्तर वही इन शब्दों में देते हैं, ‘‘एक देशभक्त समाज ही ऐसा प्रण ले सकता है। यह कोई साधारण प्रण नहीं है और सबसे बड़ी बात आज भी वे इस प्रण से बंधे हैं, लेकिन अब पुरानी बातों को छोड़कर आगे बढ़ने का समय है। इसलिए इस समाज के कुछ लोग स्थाई रूप से कहीं रहकर अपने बच्चों को पढ़ाने लगे हैं।
भले ही हमारे पूर्वजों ने तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर ऐसा निर्णय लिया था, लेकिन अब समय बदल गया है और इसलिए हमें भी बदलना है। नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ियों की जिंदगी भी हमारे पूर्वजों की तरह अभाव में कटेगी।’’ वहीं विवेक ने बताया, ‘‘अब हम सब युवा जाग चुके हैं। हम लोग पटरी या पार्क के किनारे जिंदगी नहीं गुजारने वाले।’’
इस मामले में हिमांशु तो दो कदम आगे दिखे। उन्होंने कहा, ‘‘अब गाड़िया लोहार समाज स्थाई रूप से कहीं बसना चाहता है, लेकिन उसके पास न तो इतना पैसा है कि वह कहीं जमीन खरीद कर अपना घर बना सके। हमारे समाज का यह सपना तब पूरा होगा जब हम बच्चे पढ़-लिखकर कुछ नया करेंगे, कुछ नई सोच के साथ काम करेंगे। इसलिए हम सभी घरों के लोगों से कहते हैं कि अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें। इस कारण बस्ती के बच्चे कई विद्यालयों में पढ़ने जा रहे हैं। आप विश्वास कीजिए, 8-10 साल में हमारे समाज के लोग भी वैसे ही जिंदगी जिएंगे जैसे और लोग जीते हैं।’’
इन बच्चों की बातें सुनकर एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि अब ये बच्चे कुछ नया अवश्य करेंगे और उन्हें करना भी चाहिए। उम्मीद है कि ये लोग अच्छी तरह पढ़-लिखकर अच्छा कार्य करेंगे, ताकि इनके सपने पूरे हों।
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