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साझेदारी का संबंध प्रतिबंध नहीं

महिलाओं की आजादी की अवधारणा को तरह-तरह से गढ़ा जा रहा है

by WEB DESK and कुमुद शर्मा
Jun 30, 2022, 06:14 pm IST
in भारत
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महिलाओं की आजादी की अवधारणा को तरह-तरह से गढ़ा जा रहा है। बिना समझे कि उनकी संस्कृति क्या है, इस पर साहित्य लिखा जा रहा है। सच्चाई तो यह है कि नारी मुक्ति को लेकर दुनियाभर की महिलाएं ही बंटी हुई हैं

पश्चिम की औद्योगिक क्रांति से शुरू महिला आंदोलन में ‘अधिकार’ और ‘बराबरी’ का मुद्दा नारा बना, जो 1960-70 तक ‘उत्पीड़न’ और ‘मुक्ति’ में बदल गया। इस नई शब्दावली से नारी शक्ति के संदर्भ में एक नए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का सूत्रपात हुआ। इस तरह, ‘मुक्ति’ या ‘आजादी’ नारी आंदोलन का बीज शब्द बन गया। भूमंडलीकरण ने इस शब्दावली को बाजार के निहितार्थ अलग ढंग से इस्तेमाल किया।

आज नारी की आजादी की धमक हर जगह सुनाई पड़ रही है। तरह-तरह से स्त्री की आजादी, स्वतंत्रता, मुक्ति की अवधारणा को गढ़ा जा रहा है। मुक्ति संबंधी पश्चिमी सैद्धांतिकी के विविध परिपार्श्वों को खोला जा रहा है। मीडिया में नारी देह की बढ़ती दृश्यमानता ने इसकी अर्थ व्यजंना में कई रंग भर दिए हैं। आंतरिक और बाह्य परिवेश से टकराते हुए अपनी आकांक्षाओं और सपनों की जमीन पर विधेयक तत्वों की खोज करने वाली वर्तमान पीढ़ी की नई लड़कियों को आजादी के नए मुहावरे लुभा रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है। आजादी की परिकल्पना चेतना की किसी भी गहराई या परिस्थितियों से उपजी हो, वह कैसी भी हो, मगर वह होती अभीष्ट है, क्योंकि मुक्ति या आजादी न तो मात्र विचार है और न आदर्श। वह मात्र एक नारा या मनोभाव भी नहीं है, बल्कि वह जीवन जीने की बुनियादी शर्त है, क्योंकि स्वाधीनता ऐसा मूल्य है जिसके बिना स्त्री या पुरुष, किसी को भी मनुष्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

यह सुखद है कि लड़कियों और स्त्रियों का आत्मप्रबोध उनके भीतर अपनी-अपनी तरह से उनकी अंतश्चेतना को आयाम दे रहा है। स्त्री विरोधी जटिलताओं को वे अपने सहज अनुभव में पक कर भी जान-समझ रही हैं। तमाम तरह के प्रतिबंधों को प्रश्नवाचक दृष्टि से समाजशास्त्री ढंग से देखने की कोशिश कर रही हैं। सवालों से लगातार टकरा रही हैं। दिक्कत यह है कि स्त्री आजादी की अवधारणा का तरीका क्या हो, यह तय कर पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। उन्हें कैसी और कितनी आजादी चाहिए? उन्हें पुरुषों से आजादी चाहिए? या समाज से? या फिर दासता और उत्पीड़न से? उनकी आजादी का मापदंड क्या होना चाहिए? इन सब सवालों की परिधि में आजादी की कोई सार्वभौमिक अपील तैयार नहीं कर पा रही हैं। सवाल, सवाल की शक्ल में आज तक बरकरार हैं।

मुक्ति पर मतभिन्नता
विश्व की स्त्रियां बंटी हुई हैं। कुछ गर्भधारण नहीं करना चाहती हैं, तो कुछ इसे प्राकृतिक अधिकार समझती हैं। कुछ अपनी मुक्ति समलैंगिक संबंधों में देखती हैं, जिसे दुनिया की अधिकांश औरतें अप्राकृतिक मानती हैं। इसलिए विभिन्न समुदायों, विभिन्न देशों में मत-भिन्नता की वजह से प्रश्न अलग-अलग हैं। उनकी मुक्ति या आजादी संबंधी परिप्रेक्ष्य भी अलग हैं। भारत में ही स्त्रियों की कोई एक छवि नहीं है। कुछ श्रम विभाजन और श्रमिक से बंधी हैं, कुछ राजनीतिक दलों में सक्रिय हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में कार्यरत हैं। कुछ अपनी सामुदायिक प्रतिबद्धताओं से मजबूर हैं। कुछ समलैंगिक सिद्धांतों में उलझी हैं। कुछ सौंदर्य के बाजार में मुक्ति का स्वप्न देख रही हैं। कुछ प्यार, मित्रता और कामुकता पर प्रश्न खड़े कर रही हैं। कुछ गर्भधारण करने जैसी संस्थापित प्राकृतिक दृष्टि को भी चुनौती दे रही हैं, तो कुछ देह को हथियार मानकर अपनी मर्जी से उसका इस्तेमाल कर देह की आजादी का उत्सव मना रही हैं। स्त्री अनुभवों की दर्जनों श्रेणियां हैं। इसके अलावा, तकनीक ने भी उनकी आजादी के समीकरणों को बदल दिया है। संचार क्रांति ने उसके पंखों को उन्मुक्त उड़ान के लिए नया आकाश दिया है। अभिव्यक्ति के बंद दरवाजों को खोल दिया है, जहां तरह-तरह से आजादी का वक्तव्य लिखने और गढ़ने वाली महिलाओं के अनगिनत बिंब और छवियां हैं।

भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में महिला अध्ययन विभाग खुल गए हैं। विडंबना यह है कि यहां के अधिकांश पाठ्यक्रम स्त्री अध्ययन की पश्चिमी अवधारणाओं पर निर्भर हैं। तरह-तरह की पश्चिमी सैद्धांतिकी से स्त्री संबंधी बौद्धिक विमर्श को बढ़ा रहे हैं। स्त्री आजादी की परिकल्पना का नैरेटिव गढ़ रहे हैं। यहां दुराग्रहपूर्ण स्वैच्छिक आजादी के विविध परिपार्श्वों की पश्चिमी जमीन को सींचने का काम हो रहा है। 

समस्या फिर भी बनी हुई है। आजादी का सर्वमान्य सिद्धांत नहीं गढ़ा जा सका। वस्तुत: अलग-अलग वर्गों की स्त्रियों के लिए मुक्ति और आजादी के मायने अलग-अलग हैं। स्त्रीवादी चिंतकों द्वारा स्त्री मुक्ति की अवधारणा को सैद्धांतिकी में ढाला जा रहा है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ‘स्त्री अध्ययन’ एक नया ‘बौद्धिक अनुशासन’ है। भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में महिला अध्ययन विभाग खुल गए हैं। विडंबना यह है कि यहां के अधिकांश पाठ्यक्रम स्त्री अध्ययन की पश्चिमी अवधारणाओं पर निर्भर हैं। तरह-तरह की पश्चिमी सैद्धांतिकी से स्त्री संबंधी बौद्धिक विमर्श को बढ़ा रहे हैं। स्त्री आजादी की परिकल्पना का नैरेटिव गढ़ रहे हैं। यहां दुराग्रहपूर्ण स्वैच्छिक आजादी के विविध परिपार्श्वों की पश्चिमी जमीन को सींचने का काम हो रहा है। 

समाज और साहित्य पर असर
समाज और साहित्य की स्त्री पर इसका असर पड़ रहा है। इसी तर्ज पर साहित्य लिखा जा रहा है, बिना यह समझे कि उनकी संस्कृति क्या है? हमारी संस्कृति क्या है? हमारे यहां स्त्री उत्पीड़न के वास्तविक बिंदु क्या हैं? साहित्य एवं राजनीतिक स्तर पर उन्हें कैसे उठाया जाए? दरअसल, ‘उत्पीड़न’ और ‘मुक्ति’ में अवधारणात्मक स्तर पर एक पारस्परिक संबंध है। यहां मुक्ति का तात्पर्य उन प्रतिबंधों से आजादी है, जो न्यायपरक नहीं है और जिनसे छुटकारा चाहिए। अगर कन्या भ्रूण हत्या करके आप किसी को दुनिया में आने के नैसर्गिक आजादी के अधिकार से वंचित कर दें। घर के लड़के को शिक्षा अवसर मिले और लड़की को शिक्षा पाने की आजादी न दें। लड़के के लिए पौष्टिक भोजन की चिंता करें और लड़की को कुपोषण का शिकार होने दें।

आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना में लड़कियों और महिलाओं के लिए जगह न हो, नौकरियों में महिलाओं के लिए ‘ग्लास सीलिंग’ को बरकरार रखा जाये।। लड़कियां और महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हों। घरों में, बसों में लड़कियों का बलात्कार हो। यह सब कुछ उत्पीड़न के खाते में गिना जाएगा। लड़के-लड़की के बीच यह भेदभाव नारी जाति का उत्पीड़न है। इस तरह के भेदभावपूर्ण वातावरण से मुक्ति चाहिए। लेकिन यहां यह भी समझने की जरूरत है कि ‘आजादी पर थोपे गए मानवीय प्रतिबंध’ हमेशा उत्पीड़क नहीं होते। ‘पूर्ण आजादी’ की आकांक्षा में अपने-पराए बन जाएं। प्रेम बंधन लगने लगे, जिन संबंधों की साझेदारी में हम भारतीय अपनी पहचान ढूंढ़ते आए हैं, वे सारे संबंध बोझ लगने लगें। संबंधों की साझेदारी की परिकल्पना में प्रतिबंधों की जकड़न महसूस होने लगे, तो सोचने-समझने में कहीं खोट जरूर हे।

नरेंद्र मोदी सरकार स्त्री के लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण और संवर्द्धन के प्रति पूरी तरह सचेष्ट है। तीन तलाक की समाप्ति जैसा ऐतिहासिक कदम नारी आजादी के परिप्रेक्ष्य में ही उठाया गया कदम था। अबकी कुंजी मानकर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लिंग समावेशी कोष का प्रावधान किया गया है। लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में ‘संविधान की स्त्री’ और ‘समाज की स्त्री’ के फासले को दूर करने के प्रयास जारी हैं। लड़कियां शिक्षा और आत्मनिर्भरता की डगर पर ही अपने अधिकारों और कर्तव्यों की रोशनी में स्त्री की आजादी और शक्ति का नया अध्याय रच सकेंगी।

समाजशास्त्री यह मानते हैं कि समाज वस्तुत: व्यक्तियों का एक ‘नैतिक समुदाय’ है, जिसका प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे से ‘साझी नैतिकता’ से जुड़ा है और समाज कभी न खत्म होने वाली साझेदारी है। यह साझेदारी जीवित लोगों के बीच ही नहीं होती, बल्कि उनके बीच भी रहती है जो मर चुके हैं। इसीलिए आज आधुनिक भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को अपनी मर्जी का जीवन जीने की सीख देते हुए यह कहना नहीं भूलते कि उन्हें अपने परिवार की प्रतिष्ठा और दादा-दादी की गरिमा को अक्षुण्ण रखना है।

आजादी का मतलब स्वच्छंदता नहीं
‘उत्पीड़न’ और ‘मुक्ति’ वस्तुत: प्रत्यक्ष रूप से आजादी, न्याय और बराबरी की दार्शनिक अवधारणाओं से संबद्ध है। राजनीतिक दर्शन और नैतिक दर्शन में गहराई का अंतर्संबंध है, क्योंकि दोनों समाज में न्याय की प्रकृति तय करते हैं, जिससे हमारी मूल्य व्यवस्था का निर्माण होता है। स्त्री की स्वच्छंद आजादी को संगत ठहराना कठिन होगा। नारी अपनी भावनाओं, आकांक्षाओं, योग्यताओं और विश्वासों का प्रतिफलन समाज में ही देखती है। नारी के अंतर्मन और बाहरी अनुभव को अर्थवत्ता प्रदान करती है। उसकी रुचियों को सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों के बाहर रख कर नहीं देखा जा सकता। भारत की संलिष्ट सांस्कृतिक क्रियाओं में नारी विरोधी मूल्यों और विचारों के परिप्रेक्ष्य में नारी चेतना का आह्वान करने का विधान रचा हुआ है।

नारी मुक्ति का वास्तविक सूत्र क्या है? यह समझ सही ढंग से विकसित करने की जरूरत है। आजादी का वास्तविक सूत्र सामजिक यथार्थ के दायरे के भीतर ही गढ़ना होगा। मानव जैविकीय की बुनियाद पर मानव समाज की सृष्टि टिकी हुई है। आजादी को सामाजिक ताने-बाने के भीतर ही समझना होगा। पुरुषों की तरह ही स्त्री समाज से अलग नहीं रहती। उसका कर्म क्षेत्र भी समाज है। उसका आचरण भी समाजिक आचरण है। यह सही है कि व्यक्ति का आचरण पूरी तरह से उसकी कृति होता है। इसके बावजूद उस आचरण का एक अंश भी ऐसा नहीं है, जो केवल उसी का हो और दूसरों का न हो। वह जो कुछ भी है और वह जो कुछ भी करता है, उससे दूसरों पर असर पड़ता है। इसलिए उसका संबंध दूसरों से होता है।

किसी भी देश में महिलाओं को आजादी दिए बिना किसी भी क्षेत्र में तरक्की के मायने बेमानी हैं। भारतीय संविधान में भी विकसित राष्ट्रों की तरह स्त्रियों को वे सभी नागरिक अधिकार प्राप्त हैं, जिसका उपयोग पुरुष करते हैं। वह आजादी से सोचने-बोलने, कहीं भी जाने और रहने के लिए आजाद है। उसकी धार्मिक आस्था, उसके व्यवसाय चुनने, अभिव्यक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। जहां कहीं, जब कहीं स्त्रियों के लोकतांत्रिक हनन की घटना सामने आती है, पूरा समाज आंदोलित होता है।

अच्छी बात है कि नरेंद्र मोदी सरकार स्त्री के लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण और संवर्द्धन के प्रति पूरी तरह सचेष्ट है। तीन तलाक की समाप्ति जैसा ऐतिहासिक कदम नारी आजादी के परिप्रेक्ष्य में ही उठाया गया कदम था। अबकी कुंजी मानकर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लिंग समावेशी कोष का प्रावधान किया गया है। लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में ‘संविधान की स्त्री’ और ‘समाज की स्त्री’ के फासले को दूर करने के प्रयास जारी हैं। लड़कियां शिक्षा और आत्मनिर्भरता की डगर पर ही अपने अधिकारों और कर्तव्यों की रोशनी में स्त्री की आजादी और शक्ति का नया अध्याय रच सकेंगी। बस उन्हें यह स्मरण कराने की जरूरत है कि की हमारी संलिष्ट सांस्कृतिक क्रियाओं में नारी विरोधी मूल्यों और विचारों के परिप्रेक्ष्य में नारी चेतना का आह्वान करने का विधान रचा हुआ है।

Topics: औद्योगिक क्रांतिमहिला आंदोलनस्त्री के लोकतांत्रिक अधिकारस्त्री शिक्षानारी सशक्तिकरण
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