बहुत बार सुनने में आया है कि मदरसे में जिस तरह की तालीम दी जाती रही है उसने मुस्लिम पुरुषों को महिलाओं को कमतर आंकना और घर की चारदीवारी में कैद रखने की ही समझ दी है। उससे आगे वे समाज में महिलाओं की कोई भूमिका ही नहीं देखते। आखिरकार इस मदरसाई तालीम को लेकर बनी ये सोच अब यूनेस्को की रिपोर्ट से भी झलकती है। यह रिपोर्ट साफ कहती है कि जिसने भी मदरसे में तालीम ली है, उसके लिए महिलाएं बस बच्चे पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र की बहुप्रसिद्ध संस्था यूनेस्को की रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसों के मजहबी और संस्थागत इतिहास की बात करें तो ये अक्सर सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के बीच की हद को धुंधलाते हैं। यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि वे मजहबी संस्थान की तरह काम करते हैं या गैर सरकारी तालीमी संस्थान की तरह। कोई विषय पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा छात्रोें में एक खास सोच पर चलने, मजहबी किताबों तथा इस्लाम की तालीम पर ज्यादा बल दिया जाता है। इनमें इस बात पर भी काफी जोर दिया जाता है कि छात्र आसपास की मस्जिदों से जुड़ें और आना-जाना करें। एक आंकड़े के अनुसार, भारत में सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 16,461 मदरसे ही मान्यता प्राप्त हैं, जिनमें से 560 को सरकारी अनुदान मिलता है। इनके अलावा कथित गैर पंजीकृत मदरसे भी कम नहीं हैं।
वर्षों से भारत या अन्य देशों में भी मदरसे मुस्लिम बालकों में कट्टरपंथी सोच फैलाने के जिम्मेदार माने जाते रहे हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति और शिक्षा के अधिकांश विषयों से मदरसों ने एक वैर का सा भाव सदा दिखाया है। एक मौलवी की मौजूदगी में मुस्लिम लिबास पहने मदरसा छात्र आगे—पीछे हिलते हुए अरबी में कुरान की आयतें रटते दिखाई देते हैं। विज्ञान और अंग्रेजी की तालीम से वे तौबा ही करते दिखे हैं। इसलिए जिस वहाबी सोच के तहत अफगान तालिबान ने ‘शरिया’ की आड़ में महिलाओं पर दमन का चक्र चलाया हुआ है, मदरसों पर ठीक वैसी ही सोच रखने और अपने छात्रों में भरने की बात अक्सर सुनाई देती है। वहां दी जाने वाली तालीम को लेकर इसीलिए लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन इसे मजहबी तालीम का हिस्सा बताकर मामला रफा-दफा किया जाता रहा है। यही बात संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसों में पढ़े लोगों में महिलाओं को लेकर एक पूर्वाग्रही नजरिया होता है।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि मदरसों में पढ़े ऐसे बहुत कम लोग हैं जो महिलाओं की उच्च शिक्षा तथा नौकरी-पेेशे से जुड़ी महिलाओं के प्रति सकारात्मक रवैया रखते हैं। ज्यादातर का मानना है कि बीवियों का खास काम तो बच्चों को पालना-पोसना होता है। इस तरह की सोच रखने वाले लोग चाहते हैं कि परिवार बड़े होने चाहिए। यूनेस्को की रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसा छात्र महिलाओं और उनकी काबिलियत को लेकर उतना सकारात्मक नजरिया नहीं रखते। पारंपरिक मदरसों में मौलवियों के परिवार काफी बड़े देखे गए।
मदरसों की बढ़ती तादाद को लेकर यह कयास भी रिपोर्ट में झलकता है कि जितनी मदरसाई तालीम फैलेगी उतनी ही पुरुषों और महिलाओं में समानता को लेकर किए जा रहे प्रयासों को ठेस पहुंचेगी। कथित तौर पर मदरसे की तालीम के पाठ्यक्रम और उसमें पढ़ाई जा रहीं किताबें पुरुषों और महिलाओं की समान रूप से बात नहीं करतीं। वे परंपरा से जिसकी जो स्थिति चली आ रही है उसी पर बल देती हैं। यूनेस्को के अनुसार, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया तथा सऊदी अरब में किए गए अध्ययनों से यही बात सामने आई है।
इसके साथ ही, मदरसों में दी जा रही तालीम और सामाजिक मेलमिलाप में पुरुषों और महिलाओं में एक तरह का अलगाव इस मान्यता को और पक्का कर सकते हैं कि कथित लैंगिक असमानता को समाज स्वीकार करता है।
इसके पीछे एक आशंका यह है कि मदरसों के मौलवियों के पास पुरुषों और महिलाओं से जुड़े मुद्दों का हल करने लायक प्रशिक्षण नहीं है। इसी तरह वे परिवार के आकार और महिलाओं की प्रजनन की काबिलियत को लेकर छात्रों की सोच पर असर डाल सकते हैं।
रिपोर्ट आगे कहती है कि मदरसों में आमतौर पर एक ही तरह का कोर्स चलता है, जिसमें ज्यादातर मजहब चीजें ही होती हैं। यह भी सही है कि हर देश में मदरसों में एक जैसी स्थिति नहीं है। कुछ देशों में मदरसों में सरकारी पाठ्यक्रम जोड़ा हुआ है, जबकि दूसरों में पहले से चले आ रहे ढर्रे पर ही तालीम दी जाती है।
A Delhi based journalist with over 25 years of experience, have traveled length & breadth of the country and been on foreign assignments too. Areas of interest include Foreign Relations, Defense, Socio-Economic issues, Diaspora, Indian Social scenarios, besides reading and watching documentaries on travel, history, geopolitics, wildlife etc.
टिप्पणियाँ