भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का उद्घोष करती है। हम ‘भारत भवंतु सुखिन:’ नहीं बोलते। यहां तक कि ‘मनुष्य भवंतु सुखिन:’ भी नहीं कहते। ‘सर्वे’ में सब हैं, सबके कल्याण का भाव है, प्रकृति पूजक समाज का भाव है, सबमें ईश्वर तत्व को देखने का भाव है।
भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का उद्घोष करती है। हम ‘भारत भवंतु सुखिन:’ नहीं बोलते। यहां तक कि ‘मनुष्य भवंतु सुखिन:’ भी नहीं कहते। ‘सर्वे’ में सब हैं, सबके कल्याण का भाव है, प्रकृति पूजक समाज का भाव है, सबमें ईश्वर तत्व को देखने का भाव है। यह प्राचीन जरूर है लेकिन अप्रासंगिक नहीं। समय के साथ नश्वरता के उद्घोष का अपने जीवन में यदा-कदा-सर्वदा अनुभव करने के बीच एक शाश्वत भाव। शाश्वत इसलिए कि इसमें ‘स्व’ की सार्थकता सर्वहितकारी उद्देश्य में रम जाना है। इसलिए यह परम समावेशी, परम प्रगितिशील, परम वैज्ञानिक भाव है।
आज दुनिया परस्पर निर्भरता, इसकी प्रकृति और इसके प्रभाव-दुष्प्रभाव को देख रही है। इंसान बहुत अधिक पानी निकाल ले, तो वृक्ष और अन्य पशु-पक्षियों पर भी असर पड़ता है। यानी यदि कोई एक संसाधन का अतिरेकी उपयोग कर ले तो दूसरों के लिए दिक्कत हो जाती है। प्रश्न है कि प्रकृति की, संसाधनों की पवित्रता और सततता कैसे बनी रहे। इसका उत्तर भारत के पास है।
भारतीय संस्कृति सबको साथ लेकर चलती है। सृष्टि में व्याप्त सभी कृतियों में सामंजस्य ही सृष्टि को निरंतरता देता है, सततता देता है। सभी कृतियों मात्र में ही नहीं, विगत और आगत में भी सामंजस्य है, तारतम्यता है, एक-दूसरे की चिंता है।
ईशोपनिषद में कहा गया है-
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा: मा गृध: कस्य स्विद् धनम्॥
‘कल्याण : उपनिषद् अंक’ में उक्त मंत्र का अर्थ इस प्रकार दिया गया है-अखिल ब्रह्मांड में जड़-चेतन स्वरूप जो भी जगत् है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्यागपूर्वक (इसे) भोगते रहो, आसक्त मत होओ (क्योंकि) धन-भोग्य पदार्थ-किसका है(?), अर्थात् किसी का नहीं है।
भारतीय वाङ्गमय में लिखित ये बातें महज पन्नों तक सीमित नहीं हैं। भारतीय जनमानस ने इसे अपने स्वभाव में उतारा है। प्रकृति को सहेजने की दुनिया में कहीं ऐसी कोई कल्पना नहीं मिलेगी जो भारत में उपलब्ध है। पेड़ों को बचाने के लिए लोगों ने अपने सिर कटा दिए। लोग पेड़ों के लिए जान न्योछावर कर देने की हुंकार भरते हैं। परंतु भारत के सिवा कहीं ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा।
भारत संभावनाओं का क्षेत्र है। प्राचीन ज्ञान से लेकर नई दृष्टि से भरपूर है। यहां की संस्कृति में सर्व का भाव इसे स्वाभाविक रूप से दुनिया के नेतृत्वकर्ता के रूप में खड़ा करता है। यहां की जीवन-पद्धति प्रकृति से सामंजस्य की रही है, प्रकृति के अनुरूप रही है। इसीलिए भारत में सूर्य, धरती, वायु, जल, अग्नि और आकाश को देव का दर्जा दिया गया है।
पेड़ के लिए कटवाए सिर
विश्नोई समाज की कहावत है-‘सर साठे रूख रहे, तो भी सस्तों जांण’ यानी अगर सिर कटने से वृक्ष बच रहा हो तो ये सस्ता सौदा है। 1730 में जोधपुर जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली में खेजड़ी के बहुत पेड़ थे। खेजड़ी को अन्य प्रदेशों में शमी के नाम से जाना जाता है। जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह को महल बनाने के काम में मजबूत लकड़ी की आवश्यकता पड़ी। उनके मंत्री खेजड़ी के पेड़ काटने खेड़जली गांव गए। वहां अमृता विश्नोई नामक महिला ने विरोध किया। मंत्री नहीं माने, उन्होंने सैनिकों को कुल्हाड़ी चलाने का आदेश दिया। अमृता पेड़ से लिपट गर्इं। कुल्हाड़ी के वार से पेड़ के साथ अमृता का सिर भी कट के गिर पड़ा। तब उनकी दोनों बेटियों ने मोर्चा संभाला। उनके भी सिर कटे। तब विश्नोई समाज के पुरुष आगे आए। उनके भी सिर कटे। एक-एक कर 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए सिर कटा दिए। बात राजा तक पहुंची। उन्होंने खेजड़ी के वृक्षों को काटने पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेजों ने भी इस प्रतिबंध को बरकरार रखा।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने भी इस आदेश को बनाए रखा। 1983 में राजस्थान सरकार ने खेजड़ी को राजस्थान का राजवृक्ष घोषित किया। इस घटना का उल्लेख लेखक बनवारी लाल साहू द्वारा लिखित पुस्तक ‘पर्यावरण संरक्षण एवं खेजडली का बलिदान’ पुस्तक में किया गया है। इस घटना की याद में आज भी खेजडली में भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को वृक्ष मेला लगता है। बाद में 1970 के दशक में वर्तमान उत्तराखंड में पेड़ों को बचाने के लिए इसी तर्ज पर चिपको आंदोलन चला।
पुरखों की सीख
आज देश के कोने-कोने में पर्यावरण बचाने के लिए लोग जुटे हैं। ये आम लोग हैं। प्रकृति को बचाने के लिए तीन आयामों पर खास काम हो रहा है- पहला, जल प्रबंधन; दूसरा, अक्षय ऊर्जा और तीसरा, कचरा प्रबंधन। जल प्रबंधन के लिए जो तकनीकें अपनाई जा रही हैं, वे निहायत देसी हैं। बुंदेलखंड के बांदा जिले के जखनी गांव में उमाशंकर पाण्डेय ने दशकों से पानी की किल्लत से जूझ रहे गांव को अपने दादाजी से मिली सीख के आधार पर जलग्राम में परिवर्तित कर दिया। उनकी मुहिम ने सरकार को देशभर में 1050 जलग्राम बनाने की सीख दी। बुंदेलखंड के ही पुष्पेंद्र भाई ने इलाके की पथरीली जमीन, जहां भूजल की बड़ी दिक्कत है, में बारिश का पानी रोकने के लिए जगह-जगह तालाब बनवा कर समस्या का हल निकाला। उनके ‘अपना तालाब अभियान’ से प्रेरित होकर सरकार ने देशभर में ‘खेत तालाब योजना’ शुरू की। ऐसे ही उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में सच्चिदानंद भारती ने दशकों से वीरान पड़ी पहाड़ी पर गड्ढे खुदवा कर पानी संचित करने का अभियान शुरू किया। 32 वर्ष में अब यहां पानी की समस्या तो नहीं ही है, जमीन नम हो जाने से 800 हेक्टेयर क्षेत्र में हरे-भरे जंगल ने क्षेत्र की वीरानगी को समाप्त कर दिया है।
अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ते कदम
कोयले से बिजली बनाने से होने वाले प्रदूषण से बचने के लिए अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ना जरूरी है। 2015 में पेरिस जलवायु सम्मेलन में भारत के नेतृत्व में 106 देशों का अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन बना। इसके बाद से सरकार इस क्षेत्र में बहुत ही योजनाबद्ध और तेज रफ्तार से सक्रिय है। मई, 2014 की स्थिति के अनुसार भारत में तब सौर ऊर्जा उत्पादन 2647 मेगावाट था। 2022 में सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता 52,000 मेगावाट से अधिक हो गई है। देश में तेजी से सौर उद्यान विकसित हो रहे हैं। एशिया का सबसे बड़ा सौर उद्यान भारत में विकसित हो रहा है। भारत में कुल 40 से अधिक सौर उद्यान विकसित हो चुके हैं।
अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आम लोग अपने-अपने तरीके से जुटे हैं। इंदौर के रजनीश शर्मा ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी। परंतु देश के लिए कुछ नया करने के जुनून के कारण ‘मेक इन इंडिया’ के तहत पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रौद्योगिकी देने के काम में जुटे हुए हैं। वे सोलर लाइट और पैनल ही नहीं बनाते, बल्कि पैनल बनाने वाली मशीन भी बनाते हैं। इसी तरह, झारखंड में रामगढ़ जिले के बेयांग गांव के 12वीं पास केदार प्रसाद महतो ने कुछ उपकरणों को जोड़कर एक ऐसी मशीन बनाई है जो सामान्य रूप से बह रही जलधारा से बिजली पैदा करती है। इसमें कोयला और बायलर की भी जरूरत नहीं पड़ती। इसी टरबाइन से गांव को मुफ्त बिजली मिल रही है और गांव की गलियां एवं मंदिर रोशन हो रहे हैं।
कचरा प्रबंधन
पर्यावरण के लिए कचरा, प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है। बढ़ते उपभोग से कचरा भी बढ़ रहा है। इसके निस्तारण की समस्या बड़ी है। सरकार अपने स्तर पर लगी है। परंतु इसके निस्तारण में जनभागीदारी की भूमिका महत्वपूर्ण है। हरियाणा के नितिन ललित पेशे से आॅटोमोबाइल इंजीनियर हैं और कनाडा में नौकरी करते थे। देश के लिए कुछ करने की ललक इन्हें भारत खींच लाई। करनाल में शोध करने के पश्चात् इन्होंने कचरा प्लास्टिक से गमला बनाना शुरू किया। इस गमले से पानी की बचत होती है और इसमें लगने वाले पौधों से हरियाली आती है। हरियाणा के ही बहादुरगढ़ में पुराने जूते-चप्पलों के पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) से कचरा भी साफ हो रहा है और नए उत्पाद भी बन रहे हैं। उत्तराखंड में गंगोलीहाट के राजेंद्र बिष्ट ने स्वच्छ भारत योजना से बहुत पहले ही 84 गांवों में शत-प्रतिशत शौचालय बनवाए जिनसे इन गांवों को निर्मल ग्राम का पुरस्कार मिला।
आज दुनिया पर्यावरण प्रदूषण को इस सृष्टि के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रही है। प्रदूषण के कारण ऐसा पहली बार हुआ है कि दोनों ध्रुवों के ग्लेशियरों के एक साथ पिघलने की खबरें मिल रही हैं। धरती का तापमान तेजी से बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इन खतरों से बचने के लिए दुनिया भारत की ओर देख रही है। भारत संभावनाओं का क्षेत्र है। प्राचीन ज्ञान से लेकर नई दृष्टि से भरपूर है। यहां की संस्कृति में सर्व का भाव इसे स्वाभाविक रूप से दुनिया के नेतृत्वकर्ता के रूप में खड़ा करता है। यहां की जीवन-पद्धति प्रकृति से सामंजस्य की रही है, प्रकृति के अनुरूप रही है। इसीलिए भारत में सूर्य, धरती, वायु, जल, अग्नि और आकाश को देव का दर्जा दिया गया है। इनमें किसी तत्व को विकृत करने का अर्थ स्वयं के अस्तित्व को विकृत करने के समान है। विनाश की ओर बढ़ती दुनिया की बाध्यता है कि वह स्व-रक्षा के लिए प्रकृति-रक्षा के सिद्धांत को अपनाए। ऐसे में उसका तारणहार भारत का वही समाज बनेगा जिसकी संस्कृति में प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर जीने के गुणसूत्र हैं।
@hiteshshankar
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