यह पुस्तक ‘विनाशपर्व : अंग्रेजों का भारत पर राज’ उन तमाम धारणाओं और बखानों को झूठा साबित करती है जो उन्हें लेकर उनके समर्थकों द्वारा गढ़े गए हैं। लेखक ने साक्ष्यों के साथ यह चित्रित किया है कि अंग्रेजों ने भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से मजबूत राष्ट्र पर शासन करने के लिए किस तरह हमारी सभी मूल व्यवस्थाओं, व्यापार, शिक्षा आदि का क्रमबद्ध ढंग से विनाश करने की साजिश रची और भारत की मूल स्थिति के विपरीत छवि गढ़ी
सन् 1817 से 1819 के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना और बाजीराव पेशवा ‘द्वितीय’ की मराठा सेना में तीसरा अंग्रेज-मराठा युद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठा सेना की हार हुई। पेशवा पकड़े गए और अंग्रेजी सेना ने उन्हें कानपुर के नजदीक बिठूर रियासत में भेज दिया। इसी युद्ध के बीच 17 नवंबर, 1817 को अंग्रेजी सेना ने मराठा साम्राज्य के मुख्य महल पुणे के शनिवार वाडा पर कब्जा कर लिया और उस पर यूनियन जैक फहराया। इसी के साथ व्यावहारिक रूप से सतलुज के नीचे के भारत के बहुत बड़े भूभाग पर अंग्रेजों का विधिवत शासन शुरू हो गया था।
1850 के आसपास पंजाब भी अंग्रेजों के राज तले आ गया, और भारत में कोई भी स्वतंत्र राज, जो अंग्रेजों का मांडलिक न हो, नहीं बचा। इसके बाद अगले पचास वर्षों में अंग्रेजों का भारत में एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था— भारत की विविध आधारभूत संस्थाओं, चाहे वे औद्योगिक संस्थाएं हों, विधि और कानून संस्था, संवैधानिक संस्था या आयुर्विज्ञान को अपने हिसाब से पुनर्निर्मित करना। भारत के अलावा, जहां भी अंग्रेजों की औपनिवेशिक बस्ती थी, उनके लिए वहां यह काम करना तुलनात्मक रूप से आसान था क्योंकि आस्ट्रेलिया, अमेरिका के औपनिवेशिक भाग या अफ्रीका आदि में सांस्कृतिक धरोहर काफी हद तक प्रारंभिक थी।
अंग्रेजों के आने से पहले मानो भारत एक असंस्कृत, जंगली, असभ्य समाज था, ऐसी भावना भारतीय मन में भर देना, यह एक ही मार्ग था जिससे अंग्रेज अपने फायदे के लिए इस देश के नियम-कानून, व्यवस्थाएं बना सकते थे, और उन्होंने यही किया। अंग्रेजों द्वारा इस धरोहर को नष्ट करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया का भाष्य करती है यह किताब ‘विनाशपर्व’।
किन्तु भारत की बात अलग थी। यह वह भूभाग था जिसका यूरोप से हजारों वर्षों से व्यापारिक सम्बन्ध बना हुआ था। रोमन युग से लेकर यूरोप के मध्य काल तक भारतीय उपमहाद्वीप समुद्री तथा थल-मार्ग से व्यापार और अन्य कारणों से यूरोप में भली-भांति परिचित था। यूरोपीय संस्कृति में भारतीय उपखंड, मध्य-पूर्व एवं चीन— यह पूरा भाग ‘ओल्ड वर्ल्ड’ नाम से मशहूर था। ऐसे में इस ओल्ड वर्ल्ड के एक ऐसे देश में, जहां की सांस्कृतिक धरोहर सदियों पुरानी है, जहां की आधारभूत संरचनाएं हजारों वर्ष से विकसित होते-होते मजबूत होती गई हैं, जहां मानवी संस्कृति के प्रथम कुछ कदम रखे गए हैं, जहां विश्व के पहले कुछ विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ हो, अंग्रेजों के सामने यह प्रश्न था कि किस तरह इस भूमि की आधारभूत संस्थाओं को अपने हिसाब से ढाला जाए? और अगर इन संस्थाओं को अंग्रेजियत में नहीं ढाला जाए तो इस भूमि पर राज कैसे किया जाए?
इसका एक ही मार्ग था: भारतीय ज्ञान-विज्ञान औद्योगिक, शैक्षणिक, संस्थाओं और व्यवस्थाओं को सिरे से नष्ट कर देना। साथ ही साथ भारतीय समाज के मन में अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति इस तरह से हीनभावना भर देना कि अंग्रेज उन्हें अपने मसीहा लगने लगें। अंग्रेजों के आने से पहले मानो भारत एक असंस्कृत, जंगली, असभ्य समाज था, ऐसी भावना भारतीय मन में भर देना, यह एक ही मार्ग था जिससे अंग्रेज अपने फायदे के लिए इस देश के नियम- कानून, व्यवस्थाएं बना सकते थे। और उन्होंने यही किया। अंग्रेजों द्वारा इस धरोहर को नष्ट करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया का भाष्य करने वाली किताब है ‘विनाशपर्व’, जिसे लिखा है श्री प्रशांत पोल ने।
पद्धतिबद्ध लूट
यह किताब अत्यंत विस्तार से अंग्रेजों की भारत की एक-एक आधारभूत संस्था को नष्ट करने की क्रूर एवं निर्दयी प्रक्रिया का कच्चा चिट्ठा खोलती है। किताब की शुरुआत होती है ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत में प्रवेश से। हालांकि ईस्ट इंडिया कम्पनी की आड़ में ब्रिटिश सरकार ने भारत पर सन् 1800 के आसपास से राज करना शुरू किया परन्तु इस प्रवास के बीज तो सन् 1600 में ही बो दिए गए थे, अर्थात् अंग्रेजों के भारत पर राज करने के 200 वर्ष पहले।
क्या यह थोड़ा विस्मयकारक नहीं है कि अंग्रेजों और अंग्रेजी मानसिकता वालों ने जिस देश का चित्रण आगे जाकर जंगली, अराजक, असभ्य समाज की तरह किया, उस जंगली, असभ्य देश से व्यापारिक रिश्ते बनाने के लिए ब्रिटन के बड़े-बड़े व्यवसायी उसी देश के नाम से कम्पनी की शुरुआत करने के लिए तरस रहे थे? इस किताब का पहला अध्याय ईस्ट इंडिया कम्पनी की शुरुआत से अगले दो सौ वर्ष में की गई भारत की पद्धतिबद्ध लूट का बहुत ही सटीक और विस्तृत विवरण देता है।
अंग्रेजों द्वारा भारत की धरोहर का विनाश करने की इस गाथा को यह किताब नौ भागों में बयान करती है, जिनके शीर्षक हैं— अंग्रेजों का भारत प्रवेश, नौका उद्योग का विनाश, वस्त्र उद्योग को समाप्त करने का प्रयास, आयुर्विज्ञान पद्धति को नष्ट करना, शिक्षा प्रणाली का ध्वस्तीकरण, भारतीय शासन प्रणाली पर किया गया प्रहार, भारत की व्यापारिक लूट, और अंत में अंग्रेजों का भारत से भागने का कारण और इस विनाशपर्व का अंत।
और इन भारतीयों को सुधारने के लिए आए हुए अंग्रेज क्या खुद सुसंस्कृत थे? क्या उन्होंने इस देश के नागरिकों के साथ सभ्य व्यवहार किया? पहले अध्याय में इसका एक छोटा-सा उदाहरण है सन् 1770 का बंगाल का भीषण अकाल जिसमें कंपनी सरकार ने जनता की मदद के लिए कोई भी नीति नहीं बनाई और उसे भूखे मरने के लिए छोड़ दिया। इस अकाल में बंगाल की एक तिहाई जनता भूख से मारी गई थी। अंग्रेजों ने भारत में जो लूट मचाई, उसकी गंभीरता को दर्शाने के लिए एक ही संख्या काफी है – प्लासी की लड़ाई के बाद रॉबर्ट क्लाइव को बंगाल से मिले 2.3 करोड़ पाउंड और ईस्ट इंडिया कंपनी को मिले 25 करोड़ पाउंड। 2015 की विदेशी मुद्रा विनिमय दर के आधार पर इसकी कीमत होती है-तीन लाख करोड़ डॉलर।
नौकायन से शिक्षा तक
अंग्रेजों के भारतीय धरोहर का विनाश करने की इस गाथा को यह किताब नौ भागों में बयान करती है। इनके शीर्षक हैं – अंग्रेजों का भारत प्रवेश, नौका उद्योग का विनाश, वस्त्र उद्योग को समाप्त करने का प्रयास, आयुर्विज्ञान पद्धति को नष्ट करना, शिक्षा प्रणाली का ध्वस्तीकरण, भारतीय शासन प्रणाली पर किया गया प्रहार, भारत की व्यापारिक लूट, और अंत में अंग्रेजों का भारत से भागने का कारण और इस विनाशपर्व का अंत।
औद्योगिक क्रांति के साथ ही जिस तरह से यूरोपीय सामंती शक्तियों ने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य का विस्तार करना शुरू किया, उसके पीछे एक बहुत बड़ा हाथ उनकी नौकायन शक्ति थी। सन् 1488 में पहली बार बाटोर्मेलु डियास नामक पुर्तगाली नाविक ने केप आफ गुड होप को पार किया। उस समय तक ऐसा करने वाला वह पहला यूरोपीय नाविक था। केप आफ गुड होप को पार करने का मतलब था, भारत और चीन तक पहुंचने के लिए यूरोपीय जहाजों को अब मध्य-पूर्व एशिया के बंदरगाहों और थल मार्गों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं थी। चूंकि भारत में नौकायन के मार्ग से ही यूरोपीय उपनिवेशवाद की शुरुआत हुई, इसलिए एक ऐसा विमर्श या नरेटिव तैयार किया गया कि अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय शासकों और राज्यों को समुद्री मार्ग का कोई ज्ञान ही नहीं था जबकि वस्तुस्थिति इसके एकदम उलट है। और यह बात आपको तथ्य और प्रमाणों से इस किताब में जानने को मिलती है।
सच तो यह है कि वास्को डे गामा को मालिन्दी से भारत के कालीकट बंदरगाह तक पहुंचने में एक भारतीय व्यापारी ने मदद की थी। सिर्फ यही नहीं, किस तरह पिछले-डेढ़ दो हजार वर्षों में भारतीय नाविकों ने पूर्व में जावा-सुमात्रा द्वीप समूहों से लेकर पश्चिम में अफ्रÞीकी बंदरगाहों तक सफलतापूर्वक व्यापार किया, इसका विस्तृत विवरण हमें नौका उद्योग से जुड़े अध्याय में पढ़ने को मिलता है।
इसी प्रकार भारतीय वस्त्र उद्योग, आयुर्विज्ञान, और शिक्षा नीति को किस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत ने जान-बूझकर नष्ट करने की कोशिश की, यह पढ़कर हर वाचक के मन में क्रोध की भावना उत्पन्न होगी। भारतीय वस्त्र उद्योग पर लिखे उद्धृत अध्याय में काफी गहराई से, अध्ययन और तर्क के आधार पर यह साबित किया गया है कि किस तरह अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीय कारीगरों/जुलाहों के व्यापार और कारीगरी को नष्ट करने का पाप किया। और यह तर्क इस किताब में विविध ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय अभ्यासकों के अभ्यास को प्रमाण मानते हुए रखा गया है। इसके कई पन्नों पर वाचक को विविध अभ्यासकों के विधान उद्घृत होते हुए मिलते हैं जो इस पुस्तक की प्रामाणिकता पर मुहर लगाते हैं।
झूठे बखान की पोल
‘अंग्रेजों का न्यायपूर्ण शासन?’ अध्याय में अंग्रेजों द्वारा भारत में किए गए निर्मम अत्याचार और बर्बरता की कहानी पढ़ना जहां एक तरह आंखें खोल देने वाला अनुभव है, वहीं दूसरी तरफ इस निर्ममता के किस्से पढ़ना एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए कई बार अत्यंत कठिन साबित हो सकता है। भारत में रेल लाने के पीछे अंग्रेजों के असली मकसद और ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने की कुटिलता से भी हम इसी भाग में परिचित होते हैं।
आखिर अंग्रेजों के भारत छोड़ कर जाने के पीछे असली कारणों की मीमांसा और उनके जाने के बाद भी उनकी व्यवस्थाओं का झूठा बखान करने वाले हमारे कुछ नेताओं के व्यवहार की खूब विस्तार से की गई चीरफाड़ इस किताब के अंतिम दो अध्यायों में हमें पढ़ने को मिलती है, जो अपने आप में आंखें खोल देने वाली है। अंत में चार पृष्ठ की सन्दर्भ सूची और लार्ड मैकाले का बहुचर्चित विवरण पत्र लेखक के अभ्यास और प्रामाणिकता की साक्ष्य देते हैं।
पुस्तक समीक्षा
लेखक : प्रशांत पोल
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 184
मूल्य : 220 रु.
क्या सचमुच अंग्रेजों ने भारत को उस आधुनिक सभ्यता से परिचित कराया जिसका गुणगान अंग्रेजी हुकूमत के समर्थक करते हैं? या यह सिर्फ हमारी हीनता को बढ़ावा देने के लिए आंख में ही झोंकी गई धूल था जिससे अंग्रेज हम पर आसानी से राज कर सकें? इस पुस्तक को पढ़ने के बाद वाचक के मन में यह प्रश्न उत्पन्न करने में यह पुस्तक कामयाब है जो लेखक की सफलता का द्योतक है। पुस्तक की शुरुआत में इस लेखक कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर जो 190 वर्ष शासन किया, वह भारतवर्ष के लिए विनाशपर्व ही था।
किताब पढ़ने के बाद पाठक के मन में इस बारे में कोई भी संदेह नहीं रहता। यह सम्पूर्ण काल एक विनाशपर्व ही था। एक ऐसा विनाशपर्व जिससे मुक्ति पाने के लिए हमें आजादी के बाद भी कई दशकों तक जूझना पड़ा। इस विनाशपर्व को आने वाली पीढ़ियां न भूलें, इसलिए यह आवश्यक है कि इस तरह की किताबों को लिखा जाए, इन विषयों पर चर्चा हो, और हम एक समाज के रूप ने इससे शिक्षा ग्रहण करें कि यह गलती हमसे फिर न हो।
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