हुर्रियत की हुल्लड़बाजी बीते जमाने की बात हो चुकी है. भाड़े के पत्थरबाज दुबक गए हैं. उनको दिहाड़ी देने वाले हवालाबाज हवालात में हैं. “मुजाहिदीन” घाटी में सक्रिय होने के चंद हफ़्तों के अंदर ही सुपुर्द ए ख़ाक हो जाते हैं. ऐसे में सुरक्षाबलों के हाथों पिट रहे हताश कश्मीरी जिहादी निहत्थे हिंदुओं को निशाना बना रहे हैं. सरकार और उच्च सुरक्षा अधिकारी नए हालातों पर नयी रणनीति बना रहे हैं. इस बीच वामपंथी ब्रिगेड, कांग्रेस सहित अन्य “सेकुलर दलों” और सफेदपोश जिहादियों ने लोगों की आँखों में धूल झोंकने का नया पैंतरा शुरू किया है. वे सुरक्षा नीति और सुरक्षाबलों पर उंगली उठा रहे हैं. 370 को निष्प्रभावी बनाने के फैसले को कोस रहे हैं, और उस मूल जिहादी विचारधारा और उसे आगे बढ़ाने वाली तंजीमों को ओट दे रहे हैं, जो कश्मीरी हिंदुओं के खून खराबे के लिए जिम्मेदार है. ताकि असल मुद्दे पर बात न हो सके. वह मुद्दा है, जिहाद का. निज़ाम ए मुस्तफा, शरिया और खिलाफत कायम करने के जूनून का.
बहुचर्चित फिल्म कश्मीर फाइल्स पर बवाल काटा जा रहा था कि उसमें एक तरफ़ा सच दिखाया गया है. कुछ लोगों में निर्लज्जता की मात्रा इतनी ज्यादा है कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर पुलिस के पास दर्ज मामलों पर आधारित इस फिल्म को झूठा प्रोपेगंडा तक कह डाला. घाटी में सारा तमाशा जिहाद के नाम पर हुआ है, लेकिन घाटी के बाहर उसे “राजनैतिक समस्या” बतलाए जाने का फैशन रहा है. आज जहां एक तरफ फिर उसी घिसे-पिटे कैसेट को बजाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ घाटी में जिहादी आतंक का मुँह तोड़ने वाली मोदी सरकार को कश्मीरी हिंदुओं की रक्षा करने में असमर्थ बतलाकर वोटों का गणित भिड़ाया जा रहा है. ये बड़ी अनोखी मिसाल है, जहाँ हिंदुओं को मारकर/मरवाकर उनकी लाशों को भी हिंदू हितों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए बार-बार इस सच को उजागर करने की आवश्यकता है कि घाटी में जो हुआ, जो हो रहा है, वो सिर्फ और सिर्फ जिहाद के लिए, जिहाद के नाम पर, जिहादियों द्वारा किया गया है, किया जा रहा है. घाटी के आतंकवाद की जड़ें इस्लामी जिहाद की जमीन में फ़ैली हैं, जिनको पोसने का काम “सेकुलर/लिबरल” गिरोह ने किया है.
सिर्फ जिहाद और कुछ नहीं…
आज देश में इस्लामी नेता अपनी सुविधानुसार कभी संविधान की दुहाई देते हैं, और कभी कहते हैं कि हम कुरान और शरीयत से ऊपर और कुछ नहीं मानते. कश्मीरी जिहाद में भी यही दाव-पेंच आजमाए जाते रहे. संविधान की अस्थायी धारा 370 को अकाट्य सर्वकालिक सत्य बताकर प्रस्तुत किया जाता और कश्मीर में नारा—ए—तकबीर गुंजाया जाता. सरकारी पैसे पर जिन्दगी भर पले अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी, के बारे कम चर्चित तथ्य यह है कि वो जमात—ए—इस्लामी कश्मीर का एक प्रमुख चेहरा था. जमात के टिकट पर गिलानी तीन बार 1972, 1977 और 1987 में सोपोर विधानसभा से चुने गए थे. गिलानी ने साफ़ कहा था, “मैं कभी नहीं चाहूँगा कि कश्मीर का मुसलमान सेकुलरिज्म को अपना आदर्श माने.” जमात—ए—इस्लामी कश्मीर की ‘मुकदमा-ए-इलहक'” ( भारत में विलय का मुकदमा) नामक लघुपुस्तिका में कहा गया है “तुम, कश्मीरी इस्लामी मुल्क के तुम लोग, कब तक आसानी से बनाये नये गुलामों की फेहरिस्त में खुद को गिनवाते रहोगे? ये ऊंची सिनेमा की इमारतें, नंगे नाच के ये घर, हर गली में शराब की दुकानें, ये इदारे जहां मर्द और औरतें बेहयाई से साथ रहते हैं, ये स्कूल और कॉलेज, ये सब इस बात का संकेत है कि तुमसे तुम्हारी मज़हबी पहचान छीनी जा रही है. तुम्हारी तहजीब के ताजमहल को किसने ख़ाक में मिलाया है ? तुम्हारे जवानों के ज़मीर को किसने कमज़ोर कर दिया है ? तुम्हारे दीन और ईमान को किसने ख़ाक में मिलाया है ? तुम कब तक सोते रहोगे ? तुम कब तक दूसरों की मतलबी सियासत का शिकार होते रहोगे ? कब तक तुम कुफ्र का शिकार रहोगे ? क्या तुम उस दिन का इन्तजार कर रहे हो जब, जैसा कि अफगानिस्तान में हुआ, तुम्हारी मस्जिदों को काफिरों के स्थान में बदल दिया जायेगा जहां कुरान के कागजों का इस्तेमाल धूल और गन्दगी साफ करने के लिए किया जायेगा ?”
कश्मीर को उबाला जा रहा था. कश्मीरी हिंदुओं के लिए तेजाब तैयार हो रहा था, लेकिन इसमें केवल घाटी की जिहादी तंजीमे भर शरीक नहीं थीं. कश्मीर पर अपनी किताब में जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन एक घटना का हवाला देते हैं, “शुक्रवार 8 अप्रैल, 1988 को अनन्तनाग की नमाज के बाद दिल्ली जामा मस्जिद के इमाम ने बहुत उत्तेजक भाषण दिया. उसने पाक-समर्थक भावनाओं को पुष्ट करते हुए अलगाववादी मज़हबी कठमुल्लेपन का जहर उगला. कश्मीर के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को पूरी तरह लागू करने पर जोर दिया. इस प्रस्ताव का उल्लेख करने के पीछे उसकी मंशा स्पष्ट थी. उसके भाषण के दो दिन बाद रावलपिण्डी के निकट पाकिस्तानी गोला-बारूद के भण्डार में जबरदस्त विस्फोट हुआ. उसमें लोग मरे भी और सम्पत्ति की भी हानि हुई. इस घटना के अगले ही दिन श्रीनगर, अनन्तनाग तथा अन्य नगरों में व्यापक अशान्ति रही…”
अखिल इस्लामवाद (पैन इस्लामिज्म)
जगमोहन आगे लिखते हैं, “पाकिस्तानी गोला-बारूद के भण्डार के विस्फोट ने चिन्गारी का काम किया, भारी अशान्ति फैली जिसमें एक आदमी मरा और सौ के लगभग घायल हुए. तीन मोटर वाहनों, जिनमें एक सेना की जीप भी थी, को फूंक डाला गया और सात दुकानें लूट ली गईं. यह हिंसापूर्ण घटनाएं उसी दिन श्रीलंका के प्रधानमंत्री श्री प्रेमदास के श्रीनगर पहुंचने पर हुई. उपद्रवियों ने भारत विरोधी नारे लगाये और श्रीलंका में सिंहली मुस्लिमों की हत्याओं के संबंध में भी नारे लगाये…” इस घटनाक्रम को विगत वर्षों के घटनाक्रम से मिलाकर देखना चाहिए. जैसे, फ्रांस में कार्टून पर भारत में प्रदर्शन. रोहिंग्याओं और जमात— —ए—इस्लामी बांग्लादेश के युद्ध अपराधियों को बांग्लादेश की अदालत द्वारा फाँसी की सजा दिए जाने पर भारत में हिंसक प्रदर्शन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भारत दौरे के समय दिल्ली में सुनियोजित दंगा.
घटनाओं के आगे के विवरण इस प्रकार हैं,“ 17 अगस्त की देर शाम को जब जनरल जिया की मौत की खबर मिली तो श्रीनगर के निचले क्षेत्र में बड़ी मात्रा में इकट्ठे होकर लोगों ने भारत और रूस विरोधी नारे लगाये. हालांकि कर्फ्यू लगा दिया गया फिर भी श्रीनगर, बारामूला, पुलवामा और अदरवाह के कुछ क्षेत्रों में दंगे हुए. चार दिन तक लड़ाई-झगड़ा चलता रहा और पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिसकी वजह से 18 अगस्त और 21 अगस्त को चार लोगों की मृत्यु हुई.
23 अगस्त को शिया-प्रधान मुहल्लों में कुछ मुठभेड़े हुईं और कर्फ्यू लगा दिया गया. 24 अगस्त को, जब लगभग 50 शिया मुसलमान मुहर्रम के जुलूस में अब्लगुजर जा रहे थे, तो उन पर हमला हुआ और पत्थर फेंके गये. शिया और सुन्नियों में तनाव को देखते हुए मुहर्रम का जुलूस रोक दिया गया. श्रीनगर में फिर कर्फ्यू लगा दिया गया. 26 अगस्त को जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद जिसमें जनरल जिया की ‘फतह’ की कामना की गई, मस्जिद से बाहर आती भीड़ हिंसात्मक हो उठी. पुलिस को फिर फायरिंग का सहारा लेना पड़ा…“
कश्मीरी जिहाद की हजारों ऐसी घटनाएँ दस्तावेजों में दर्ज हैं. आज इन सब पर धूल डालकर संविधान और शरीयत की कसमें साथ-साथ खाई जा रही हैं. मौलाना मदनी पहले मंच से धमकाते हैं. “तुम्हारा क़ानून” और “हमारी शरीयत” का हवाला देते हैं. दम भरते हैं कि “हमारे खाने-पीने के तरीके, रहने के तरीके पसंद नहीं हैं, तो ये मुल्क छोड़कर चले जाओ…” और फिर आँसू भी गिराने लगते हैं. भ्रमित “सेकुलर” मीडिया मदनी की आँख से गिरे इन मोतियों को समेटने दौड़ पड़ता है. इतिहास को लेकर बेसिर-पैर के दावे किये जाते हैं और उनकी सचाई की पड़ताल किए बिना उन्हें जनता को परोस दिया जाता है. असल मुद्दे से ध्यान हटा दिया जाता है और बार-बार कहा जाता है कि असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए काशी—मथुरा की बात की जा रही है. कश्मीर की कहानी कश्मीर घाटी तक सीमित नहीं है. यह ध्यान रखने की ज़रुरत है. केवल बंदूक की गोली पर नज़र रखने से काम नहीं चलने वाला है. ट्रिगर को दबाने वाली उंगली किस मस्तिष्क से संचालित होती है, किस विचार से प्रेरणा पाती है, यह असली मुद्दा है.
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