दुनिया भर में तमाम मीडिया पुरस्कार हैं। आज सवाल उनकी साख को बनाने या बचाए रखने का है। साथ ही सवाल उस दृष्टिकोण को विकसित करने या बचाए जाने का भी है, जिसे हम महत्वपूर्ण मानते हैं। तभी उस कौशल की रक्षा हो सकेगी, जिसे हम सूचना-क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण मानते हैं
नोबेल और पुलित्जर पुरस्कार 12 साल के अंतर से शुरू हुए थे। दोनों के जन्मदाता पैसे वाले और प्रतिष्ठा-कामी थे। दोनों ने पुरस्कारों के लिए बड़ी धनराशि छोड़ी थी और आज दोनों पुरस्कारों का बड़ा वैश्विक-सम्मान है। हालांकि इनाम देने का यह नया चलन था, फिर भी सम्मान हासिल करने में दोनों को लम्बा समय लगा। बढ़ती प्रतिष्ठा के साथ दोनों पुरस्कारों के राजनीतिक-दृष्टिकोणों को लेकर शिकायतें भी सामने आईं और आज भी आ रही हैं।
जिस तरह पत्रकारिता की वस्तुनिष्ठता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, उसी तरह पुरस्कारों की ‘दृष्टि’ को लेकर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। नोबेल जहां वैश्विक-सम्मान है, वहीं पुलित्जर अमेरिकी पत्रकारिता का सबसे बड़ा पुरस्कार है। भारत जैसे विशाल और विकासमान देश में अब यह सवाल उठने लगा है कि क्यों नहीं हमारे यहां भी ऐसे पुरस्कारों की स्थापना की जाए, जो इन वैश्विक सम्मानों से टक्कर लें।
पुलित्जर पुरस्कार अमेरिकी सम्पादक और पत्र-प्रकाशक जोसफ पुलित्जर के नाम पर दिए जाते हैं। उनकी याद में और उनकी वसीयत के मुताबिक कोलंबिया स्कूल आॅफ जर्नलिज्म ने यह पुरस्कार देना शुरू किया था। पुरस्कारों के चयन के लिए एक बोर्ड बनाया जाता है। पुरस्कार की साख लम्बे समय तक कायम रही, पर समय के साथ उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। ये अंतर्विरोध केवल भारत को लेकर ही नहीं हैं। अमेरिकी समाज के भीतर से भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर कई प्रकार के विरोध उभर कर सामने आ रहे हैं।
लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे आस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। इन सबके साथ ये तस्वीरें छपीं, जिन्हें पुलित्जर पुरस्कार दिया गया है। यह कैसा सम्मान है, जो हमारे मन को ठेस लगाता है?
पुलित्जर केवल अकेला पुरस्कार नहीं है। दुनिया में आज सैकड़ों-हजारों मीडिया पुरस्कार हैं और नए पुरस्कारों की रचना भी होती जा रही है। उनके नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं से लेकर सरकारों, समाजसेवी संस्थाओं, पत्रकार संगठनों और मीडिया हाउसों के तमाम पुरस्कार हैं।
सवाल उनकी साख को बनाने या बचाए रखने का है। साथ ही उस दृष्टिकोण को विकसित करने या बचाए जाने का भी है, जिसे हम महत्वपूर्ण मानते हैं। तभी उस कौशल की रक्षा हो सकेगी, जिसे हम सूचना-क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण मानते हैं। पत्रकारिता के श्रेष्ठ-कर्म की रक्षा करने के लिए ऐसे मीडिया-पुरस्कारों की जरूरत है, जो इस साख की रक्षा करें।
जलती चिताओं की तस्वीरें
पुलित्जर पुरस्कार-2022 के विजेताओं की घोषणा हाल में हुई है। फोटोग्राफी वर्ग के पुरस्कार भारत में सन 2021 में कोविड-19 के कारण हुई मौतों की तस्वीरों के लिए दानिश सिद्दीकी, अदनान आबिदी, सना इरशाद मट्टू और अमित दवे को दिए गए हैं। दानिश सिद्दीकी वही हैं, जिनकी पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबानियों ने हत्या कर दी थी। तालिबानी कार्रवाई को लेकर मीडिया में कुछ सुगबुगाहट हुई भी थी। बहरहाल, दानिश सिद्दीकी को इससे पहले रोहिंग्या मुसलमानों की त्रासदी की तस्वीरें खींचने के लिए रायटर्स की एक टीम के साथ 2018 का पुलित्जर पुरस्कार भी मिला था।
पुलित्जर अमेरिकी मीडिया के पुरस्कार हैं, पर भारत की तस्वीरें या रिपोर्ट जब अमेरिकी मीडिया में प्रकाशित होती हैं, तब वे भी पुरस्कार पाने की अर्हता प्राप्त कर लेती हैं। संयोग से पुलित्जर पुरस्कार एक अरसे से भारत की नकारात्मक तस्वीर के लिए पहचाने जाने लगे हैं। पिछले साल जब जलती चिताओं की तस्वीरें भारतीय और उससे ज्यादा विदेशी मीडिया में प्रकाशित हो रही थीं, तब यह बात कही जा रही थी कि देखिएगा, इन तस्वीरों को पुलित्जर पुरस्कार मिलेगा।
पुरस्कारों का मिजाज
पिछले साल जब भारत में कोविड-19 का तांडव चल रहा था, न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। लंदन के गार्डियन ने लिखा, ‘द सिस्टम हैज कोलैप्स्ड’। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे आस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। इन सबके साथ ये तस्वीरें छपीं, जिन्हें पुलित्जर पुरस्कार दिया गया है। यह कैसा सम्मान है, जो हमारे मन को ठेस लगाता है? पत्रकारों और फोटोकारों को जब अमेरिकी मीडिया का मिजाज जब समझ में आ जाता है, तब वे पुरस्कार पाने वाली तस्वीरें खींचने लगते हैं और वैसी ही रिपोर्ट लिखी जाने लगती हैं।
पुरस्कार-समर्थकों का कहना है कि फोटो झूठ नहीं बोलते, पर क्या यही सच है? दूसरे सच भी होंगे, पर फोटो वही दिखाते हैं, जो फोटोग्राफर दिखाना चाहते हैं और इनाम देने वाले देखना चाहते हैं। हमारा सवाल तस्वीर के दूसरे रुख से जुड़ा है। पत्रकारिता का एकांगी और एकतरफा होते जाना चिंता का विषय है। भारतीय राष्ट्रवाद को टेढ़ी निगाहों से देखने वाले अमेरिकीमीडिया के व्यवहार को देखना है, तो यूक्रेन-युद्ध के दौरान उसके व्यवहार को देखना होगा।
इनामी तस्वीरें
पिछले साल जब पश्चिमी मीडिया में ‘असहाय भारत’ की तस्वीर पेश की जा रही थी, तब भारत में बहुत से पत्रकार ‘इनाम पाने लायक’ खबरें तैयार कर रहे थे। पुरस्कारकामी पत्रकारों ने श्मशानों में डेरा जमाया, जिसके परिणाम भी सामने आए हैं। उसके पहले जम्मू एवं कश्मीर के तीन छायाकारों को फीचर फोटोग्राफी के लिए 2020 का पुलित्जर पुरस्कार दिया गया था। उस पुरस्कार को देते समय इस बात का उल्लेख किया गया था कि जम्मू एवं कश्मीर के तीन फोटो पत्रकारों को अगस्त- 2019 में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद क्षेत्र में जारी बंद के दौरान सराहनीय काम करने के लिए ‘फीचर फोटोग्राफी’ की श्रेणी में सम्मानित किया गया है।
पुरस्कार के साइटेशन की भाषा सारी कहानी खुद कह रही थी। पुलित्जर पुरस्कार के लिए चुने जाते समय कैप्शन लगाने में भी ‘राजनीतिक-दृष्टिकोण’ का सहारा लिया गया और यहां तक कि तथ्यों को लेकर भी हठधर्मी बरती गई। जैसे एक तस्वीर के नीचे कैप्शन लिखा गया कि 11 साल के बच्चे को भारतीय सेना ने मार दिया, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। हत्या आतंकवादियों ने की थी। एक तस्वीर में पत्थरबाजों को हीरो की तरह पेश किया गया है।
राजनीतिक दृष्टि
इस साल जिन भारतीयों को पुलित्जर पुरस्कार मिला है उनमें सना इरशाद मट्टू का नाम भी है। ये भी कश्मीरी हैं और सोशल मीडिया में भारतीयसेना पर कीचड़ उछालने वाली इनकी कई पोस्ट हैं। इनकी तस्वीरें ‘अल जजीरा’ के अलावा भारत के उन पोर्टलों और पत्रिकाओं में भी जगह पाती रही हैं, जो भारत सरकार की कश्मीर नीति की आलोचक हैं। इससे पुरस्कार की राजनीतिक प्रकृति पर रोशनी पड़ती है।
सना और 11 अन्य व्यक्तियों को 2021 में मैग्नम फाउंडेशन ने फोटोग्राफी एंड सोशल जस्टिस फैलोशिप के लिए चुना था। यह कार्यक्रम जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन द्वारा सहायता प्राप्त है। इस फाउंडेशन का भारतद्वेष जाना-पहचाना है।
पुरस्कार के पीछे की मंशा को समझने की जरूरत भी है। बुरहान वानी और बिट्टा कराटे के प्रति हमदर्दी पैदा करने वाली पत्रकारिता आतंकवादी हिंसा से पीड़ित परिवारों की पीड़ा को सामने नहीं लाती है। उसके लिए पत्रकारों की एक नई पीढ़ी को आगे आना होगा। दूसरी तरफ सामाजिक जीवन में आ रहे बदलाव और सकारात्मकता से जुड़ी पत्रकारिता भी हमें चाहिए। पर्यावरण, सार्वजनिक-स्वास्थ्य, विज्ञान और तकनीक से जुड़े नए विषयों की पत्रकारिता को बढ़ावा देने की जरूरत भी है।
मीडिया का विस्तार
पत्रकारिता केवल संवाद संकलन, लिखने की शैली या फोटोग्राफी का शिल्प भर नहीं है। उसके साथ जुड़े जोखिम, विवेचन और विश्लेषण शैली तथा नैतिक-मूल्य भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक होने के साथ इस कर्म का नाम अब मीडिया हो गया है। तमाम नई श्रेणियां इसमें जुड़ती जा रही हैं। पहले टीवी, फिर इंटरनेट और उसके बाद सोशल मीडिया के प्रवेश के साथ इसका प्रभाव और प्रसार क्षेत्र गजब तेजी से बढ़ता जा रहा है।
मीम, वायरल आडियो, वीडियो और तस्वीरों के रूप में गलत सूचनाएं, फेकन्यूज और डीप फेक के रूप में सामने आ रही हैं। इस बीच फैक्ट चेक के नाम पर एक नया कारोबार शुरू हो गया है, जिसमें चुनिंदा सूचनाओं की जांच होती है और फिर उसमें लपेट कर कुछ गलत सूचनाएं फैला दी जाती हैं। ऐसी संस्थाएं खड़ी हो गई हैं, जो अपनी दिलचस्पी के फैक्टचेक करती हैं, जरूरी बातों की अनदेखी करती हैं और गैर-जरूरी बातों को उछालती हैं।इन परिस्थितियों में गुणात्मक, धारदार-जोरदार और मूल्यबद्ध पत्रकारिता की रक्षा के लिए जरूरी है कि पुरस्कारों की साख बढ़ाई जाए। पर कैसे?
लोकतंत्र की गाड़ी सूचनाओं के सहारे चलती है। व्यवस्था की पारदर्शिता और वैचारिक आदान-प्रदान इसके वाहक हैं। तकनीकी विकास के साथ मीडिया सबसे बड़ा ‘इनफ्लुएंसर’ बनकर उभरा है। इस उभार के साथ पहले पेड न्यूज और अब फेक न्यूज ने सिर उठाया है। सूचना की बहुलता भ्रम भी फैलाती है और भंडाफोड़ भी करती है। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हर्बर्ट सायमन के शब्दों में इससे खबरदारी की मुफलिसी (पॉवर्टी आफ अटेंशन) पैदा हो रही है। सूचना की साख कम हो रही है।
पाखंडी फैक्टचेकर
‘पाञ्चजन्य-आर्गनाइजर पुरस्कारों’ पर विचार करते यह बात सामने आई कि ऐसे युवा पत्रकार भी हैं, जो ‘पाखंडी फैक्टचेकरों’ के झूठ को पकड़ते हैं। ऐसे पत्रकारों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीय हितों की रक्षा और सामाजिक-एकता को सुनिश्चित करने वाली पत्रकारिता को संरक्षण देने की जरूरत है।
पुलित्जर पुरस्कारों के एकांगी-दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए भी इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि पिछले 105 साल में इस पुरस्कार ने अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार के रूप में अपनी जगह बनाई है। फिर भी तमाम ऐसे मौके आए हैं, जब इसके पुरस्कारों की चूक बाद में साबित हुई है।
1932 में न्यूयॉर्क टाइम्स के मॉस्को संवाददाता वॉल्टर ड्यूरांटी का पुरस्कार विवाद का विषय बना। 1981 में पुरस्कार समिति ने जेनेट कुक का पुरस्कार वापस लिया। दो साल पहले न्यूयॉर्क टाइम्स की प्रसिद्ध रिपोर्टर रुक्मिणी कैलीमाची को अलकायदा और इस्लामिक स्टेट की जबर्दस्त रिपोर्टिंग विवाद का विषय बनी। उनको मिले पुरस्कार भी विवाद के दायरे में आए। इसलिए इन पुरस्कारों की साख को स्थापित करना महत्वपूर्ण हो जाता है।
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