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भारतीय मीडिया : निष्पक्ष या पक्षपाती

लोकनीति केंद्र, नई दिल्ली ने ऐसा ही एक शोध किया जिसके निष्कर्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं

by शुभम वर्मा
Jun 1, 2022, 10:15 pm IST
in भारत
रोहित वेमुला

रोहित वेमुला

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भारतीय मीडिया का एजेंडाधारी स्वरूप कई बार सामने आ चुका है। देखा गया है कि मीडिया कई बार इस बात का ध्यान तक नहीं रखता कि उसके खबरों के प्रकाशन से समाज में वैमनस्य न फैले। इसके बजाय वह कई बार सीधे-सीधे पक्षपाती और उकसाने वाली खबरें छापता दिखता है। लोकनीति केंद्र, नई दिल्ली ने ऐसा ही एक शोध किया जिसके निष्कर्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं

भारतीय मीडिया आज दुनियाभर में अपनी खबरें पहुंचा रहा है। किसी भी पक्षपाती एजेंडे को थोपे बिना खबर दिखाना मीडिया हाउस की जिम्मेदारी मानी जाती है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से यह पाया गया है कि कुछ मीडिया हाउस मीडिया की नैतिकता का पालन नहीं कर रहे और समाचारों का निष्पक्ष कवरेज दिखाने के बजाए, समाचारों में एक खास विचारधारा के प्रभाव में अपनी राय जोड़ रहे हैं। लेकिन, हम बिना सबूत के यह नहीं कह सकते कि वे ऐसा कर रहे हैं क्योंकि कुछ लोग अभी भी सोचते हैं कि मीडिया निष्पक्ष है। इसलिए, लोकनीति शोध केंद्र, नई दिल्ली ने कुछ वर्ष पहले यह शोध करने का फैसला किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि रिपोर्टिंग करते समय मीडिया पक्षपाती है या निष्पक्ष।

इस शोध में कुछ कुख्यात घटनाओं की रिपोर्टिंग को लिया गया। ऐसी दो बड़ी घटनाएं थीं – रोहित वेमुला आत्महत्या तथा अखलाक हत्याकांड। इन घटनाओं को मीडिया ने इतना बढ़ा-चढ़ा कर उठाया था कि देशभर में आंदोलन शुरू हो गया था। इसमें एक घटना थी – एक छात्र की अत्महत्या तथा दूसरी – एक धर्म के लोगों द्वारा दूसरे मजहब के व्यक्ति की हत्या करना। हमने रोहित वेमुला और अखलाक कांड के समय दूसरे स्थान पर हुई आत्महत्या तथा एक मजहब के दूसरे धर्म के व्यक्ति की हत्या कर देने के बारे में 5 अखबारों के रेपोर्टिंग पैटर्न की जांच की। इसका निष्कर्ष चौंकाने वाला था। नीचे दोनों घटनाओं की रिपोर्टिंग किस तरह हुई, इसके आंकड़े हैं-
शोध में हमने कुख्यात रोहित वेमुला आत्महत्या का मामला लिया और इसकी तुलना तमिलनाडु के एक ऐसे ही मामले से की जिसमें विल्लुपुरम की 3 लड़कियों ने आत्महत्या की थी। रोहित वेमुला आत्महत्या घटना जहां 17 जनवरी, 2016 को हुई थी, वहीं 3 छात्राओं की आत्महत्या की घटना 23 जनवरी, 2016 को हुई थी। दोनों ही घटनाएं दक्षिण भारत की थीं तथा छात्र आत्महत्या से संबंधित थीं। इसमें हमने 5 समाचार पत्रों (अंग्रेजी + हिन्दी) का चयन किया और दोनों मामलों के 10 दिनों के कवरेज का अध्ययन किया। इस अध्ययन के परिणाम निम्नलिखित हैं –

रोहित वेमुला आत्महत्या केस – (17 जनवरी, 2016):
इस केस की शुरूआत होती है 3 अगस्त, 2015 को, जब रोहित और चार अन्य एएसए ने 1993 के मुंबई बम विस्फोटों में शामिल एक दोषी आतंकवादी याकूब मेमन को मौत की सजा के खिलाफ प्रदर्शन किया। जवाब में, एबीवीपी के स्थानीय नेता नंदनम सुशील कुमार ने उन्हें ‘गुंडे’ कहा, जिसके बाद कुमार के ऊपर उनके छात्रावास के कमरे में हमला किया गया। उन्होंने कहा कि ‘मेरे कमरे में घुसने वाले लगभग 40 एएसए सदस्यों ने उनके साथ मारपीट की।’ रोहित वेमुला और चार अन्य एएसए सदस्यों को निलंबित कर दिया गया और उनके छात्रावास आने पर रोक लगा दी गई। जनवरी 2016 में निलंबन की पुष्टि के बाद, रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली और एक नोट लिखा जिसमें उन्होंने खुद को आत्महत्या के लिए दोषी ठहराया। रोहित की आत्महत्या पर विपक्ष ने पूरे भारत में विरोध और आक्रोश फैलाया और दलितों के खिलाफ भेदभाव के कथित मामले के रूप में मीडिया ने इसका व्यापक प्रचार किया। इसमें सरकार को तो दलित विरोधी बताया ही गया बल्कि भारत दलित विरोधी देश है, देश की ऐसी छवि बनाने का मीडिया में प्रयास किया गया जबकि इस केस का जाति से कोई संबंध नहीं था।

विल्लुपुरम मे 3 छात्राओं की आत्महत्या की घटना – (23 जनवरी 2016): तमिलनाडु में विल्लुपुरम के पास कल्लाकुरिची में एसवीएस योग मेडिकल कॉलेज में नेचुरोपैथी का कोर्स कर रही तीन छात्राओं ने प्रशासन पर अधिक फीस वसूलने और यातना देने का आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली और कॉलेज के अध्यक्ष को उनकी मौत के लिए दोषी ठहराया। तीनों के शव कॉलेज के पास एक कुएं में मिले। फीस के साथ-साथ यातना का भी मामला था किन्तु मामला तमिलनाडु का था और न विपक्ष को इसमें रुचि थी, न ही मीडिया को। अत: यह देखना समीचीन है कि इसका कवरेज उन्हीं 5 अखबारों में किस तरह किया गया।

दोनों ही घटनाएं वंचित तबके के छात्रों की थीं, दक्षिण भारत की थीं, दोनों ही घटनाएं जनवरी की थीं किन्तु एक को मीडिया ने उछाला और दूसरी घटना का कवरेज जितना होना चाहिए था, उतना नहीं किया गया।

अखलाक हत्याकांड: इसमे उत्तर प्रदेश के दादरी में 28 सितम्बर 2015 को अखलाक की हत्या हो गई थी। इस घटना में उत्तर प्रदेश के बिसारा गांव में कुछ लोगों ने अखलाक नामक मुसलमान व्यक्ति की हत्या कर दी। हत्या का कारण उसके घर में गाय के मांस का होना बताया गया, बाद में एक रिपोर्ट ने भी यह कहा कि वह गौ मांस ही था। मगर फिर भी, एक व्यक्ति की हत्या को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। इस हत्या के बाद मीडिया ने इसे इतना अधिक कवरेज दिया कि देशभर में विपक्ष ने आंदोलन शुरू कर दिया। विदेशी अखबारों में भारत को अल्पसंख्यक विरोधी देश बताया जाने लगा तथा कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों ने अवार्ड वापसी शुरू कर दी। इसी घटना के 3 महीने के भीतर 2 घटनाएं और हुईं जिसमें एक समुदाय के लोगों की भीड़ ने दूसरे समुदाय के एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी। हमने तीनों घटनाओं का मीडिया कवरेज देखा कि किसे कितना स्थान मिला है तो नतीजे फिर चौंकाने वाले थे। शुरूआत करते हैं अखलाख की घटना की कवरेज से इस घटना में एक मुस्लिम की हिन्दू भीड़ ने हत्या कर दी थी। अब देखें यही घटना जब दो अलग जगहों पर हिन्दू युवकों के साथ हुई जिसमे मुस्लिम समुदाय की भीड़ ने उनकी हत्या की, तब मीडिया ने क्या किया –

संजू राठौर हत्याकांड, रामपुर (29 जुलाई 2015) :
उत्तर प्रदेश के ही रामपुर के कुपगांव गांव में मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति के खेत में एक गाय चली गई। इस पर मुस्लिम समुदाय इतना नाराज हुआ कि मस्जिद से फतवा जारी हुआ कि इन हिन्दुओं की गाय हमारे खेत खा रही हैं। इसके बाद गुस्साए लोगों ने 15 वर्षीय संजू राठौर को गोली मार दी और उसकी मौत हो गई। देखिए, अखबारों ने इस खबर को कितना स्थान दिया –
सिर्फ एक बार इस घटना को छापा गया। क्या सिर्फ इसलिए कि संजू हिन्दू था?

गौरव हत्याकांड, अलीगढ़ (12 नवम्बर 2015) :
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ क्षेत्र में पटाखे चलाते समय एक मुस्लिम घर में थोड़ी चिन्गारी चली गई। इस बात पर उन्होंने बाहर आकर झगड़ा किया तथा गौरव को गोली मार दी। इसके बाद इलाके में तनाव बढ़ गया। गौरव के विषय में समाजवादी पार्टी से यह सवाल भी पूछा गया कि गौरव के मरने के बाद उसके परिवार को अखलाक से कम मुआवजा क्यों दिया गया? इस घटना में भी एक समुदाय की भीड़ द्वारा दूसरे समुदाय के व्यक्ति की हत्या का मामला था। मीडिया का कवरेज कुछ इस प्रकार रहा-

इन तीन मामलों को तुलनात्मक अध्ययन के लिए चुनने का कारण ये था कि यह सभी लगभग 5 महीनों के भीतर एक ही प्रदेश में हुए मामले थे, तथा सभी में दो समुदाय शामिल थे। अखलाक कांड के विषय में सभी जानते हैं क्योंकि यह चर्चित मामला है तथा इसमें नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी आदि बुद्धिजीवियों ने अवार्ड वापसी और असहिष्णुता आदि वाले बयान दिए थे। किन्तु बाकी के 2 मामलों में अधिकतर विपक्ष, मानवाधिकार वाले और सिविल सोसाइटी शांत दिखाई दी। ऐसे में मीडिया का यह फर्ज बनता था कि वह तटस्थ रहते हुए तीनों हत्याकांड को जनता के सामने समान रूप से रखती किन्तु मीडिया ने एक खास विचारधारा, जो भारत को अल्पसंख्यक विरोधी तथा दलित विरोधी बताकर अपनी रोटियां सेंकती है, इन्हीं के विचार के अनुरूप उन्हीं मामलों को उछाला और बाकी मामलों में एक गुप्त मौन धारण कर लिया।

आज भी देखा जाए तो कभी अफजल गुरु, यासीन मालिक तो कभी याकूब मेनन के समर्थन मे खबरें निरंतर छप रही हैं किन्तु देश में हो रहे सकारात्मक कार्यों के विषय में बहुत कम खबरें बनती हैं। अल्पसंख्यकों पर एक अपराध हो जाए तो इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और इस तरह दुनिया के सामने रखा जाता है जैसे भारत में सारे अल्पसंख्यक बहुत अत्याचार का सामना कर रहे हैं। जबकी असलियत में ऐसा बिलकुल भी नहीं है तथा भारत से अधिक सहिष्णु सभ्यता कोई दूसरी नहीं है। अत: मीडिया को संयमित रहते हुए इस तरह की पत्रकारिता करनी चाहिए जिससे न तो भारत की छवि वैश्विक स्तर पर धूमिल हो और न ही भारत की जतियों और समुदायों में आपस में वर्ग संघर्ष की स्थिति बने।

(लेखक लोकनीति शोध केंद्र में शोधकर्ता रह चुके हैं)

Topics: लोकनीति केंद्रकुपगांव गांवमुस्लिम समुदायभारतीय मीडियाअखलाक हत्याकांड:
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