बात ज़रा सी पुरानी है। बात तब की है जब राज्यसभा जाने के लिए आपका संबंधित राज्य से होना ज़रूरी होता था। आपके लिए आवश्यक था कि आप उसी राज्य के निवासी हों, जहां से आपको उच्च सदन जाना है। तो हुआ यह कि दुनिया के सबसे ईमानदार घोषित सरदार मनमोहन सिंह जी को कांग्रेस राज्यसभा भेजना चाह रही थी। लेकिन गुंजाइश बन रही थी असम से। फिर क्या था, झट ‘ईमानदार साहब’ को असम का निवासी बना दिया गया। वहां के सीएम तब होते थे हितेश्वर सैकिया, उन्होंने बकायदा सिंह साहब को अपना किरायेदार बनाया और ‘असमिया’ मनमोहन सिंह पहुंच गए ऊपरी सदन। प्रधानमंत्री रहते भी मनमोहन सिंह जी बतौर सैकिया के किरायेदार ही राज्यसभा में विराजमान रहे।
ये तो बात हुई सबसे ईमानदार कांग्रेसी की, वह भी तब जब ऐसी बाध्यता थी। आज तो कम से कम ईमानदारी का दावा तो कोई कांग्रेसी नहीं करते और न ही बाध्यता है अब राज्यसभा में राज्य के निवासी होने की। ऐसे में कांग्रेस का आलाकमान ज़ाहिर है वही करता जो उसने किया। छत्तीसगढ़ से खाली हो रही दो राज्यसभा सीटें, जो विधायकों की संख्या के हिसाब से कांग्रेस को ही जानी है, से कांग्रेस ने इस बार बिहार से रिश्ता रखने वाले रंजीत रंजन और उत्तर प्रदेश से आने वाले राजीव शुक्ला को छत्तीसगढ़ से उम्मीदवार बनाया है। श्रीमती रंजीत की बिहार में सबसे बड़ी उपलब्धित यही है कि वे उस बाहुबली राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव की पत्नी हैं, जिन पर न जाने कितने आपराधिक मामले दर्ज हैं। कम्युनिस्ट विधायक के हत्या के मामले में तो पप्पू आजीवन कारावास के सजायाफ्ता भी हो गए थे, जिन्हें उच्च न्यायालय से राहत मिली। अपहरण आदि के तमाम आरोपों की लम्बी फेहरिश्त है रंजन पति की। छत्तीसगढ़ से माननीय सांसद होने जा रहे दूसरे सज्जन राजीव शुक्ला भी परिचय के मुहताज नहीं हैं। उन्हें आप कांग्रेस का ‘अमर सिंह’ कह सकते हैं।
बहरहाल, दिक्कत इस बात से नहीं है कि किसी एक राज्य का व्यक्ति दूसरे राज्य से अब उच्च सदन नहीं जा सकता। लेकिन सवाल इस बात का है कि लगातार तीन सांसद चुनने का मौक़ा कांग्रेस विधायकों को मिला है, लेकिन उनमें से एक भी क्या छत्तीसगढ़ के स्थानीय व्यक्ति नहीं हो सकते थे ? यह सवाल इसलिए और अधिक प्रासंगिक है क्योंकि विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति तक में सीएम भूपेश बघेल न केवल जातिवादी कार्ड खेलते हैं, बल्कि उन्होंने कुलपति नियुक्ति के मुद्दे को हाल ही में बाहरी बनाम स्थानीय का मुद्दा बना दिया था। खुद को छत्तीसगढ़िया कहने वाले, बोरी बासी, भौरा बाटी आदि खेल कर स्थानीयता का राग अलापने वाले को इस हद तक छत्तीसगढ़ विरोधी कृत्य करता देख कर खुद कांग्रेस के लोग भी सकते में होंगे ही।
राजनीति निश्चित ही अवधारणाओं का खेल है। दिलचस्प यह है कि छत्तीसगढ़ी अस्मिता की बात करते हुए हमेशा बघेल उस भाजपा को कठघरे में खड़ा कर सुर्खियां भी बटोर लेते हैं, जिस भाजपा ने ही छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया है। लगभग पचास वर्ष तक अवसर मिलने के बावजूद कांग्रेस ने हर तरह से योग्य होते हुए भी छत्तीसगढ़ को कभी राज्य का दर्ज़ा नहीं दिया। प्रदेश के अपार खनिज एवं वन्य संसाधनों से देश भर के कांग्रेसी तृप्त होते रहे थे, जबकि प्रदेश के हिस्से में आती रही थी गरीबी, भुखमरी और शोषण। समूची दुनिया में जिस वनवासी बहुल छत्तीसगढ़ को कांग्रेस ने पलायन, शोषण और पिछड़ापन का प्रतीक बना दिया था, उसी छत्तीसगढ़ के बारें में डींगें हांकते वे उस भाजपा पर सवाल उठाते हैं जिसने न केवल प्रदेश की समृद्धि को पहचान दी बल्कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का भी दर्ज़ा दिया।
महज़ नमक के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा देने वाले वनवासी क्षेत्र के गरीबों सहित समूचे प्रदेश के ज़रूरतमंदों को नमक समेत सम्मान से भोजन, चावल, शिक्षा, सड़क आदि ज़रूरतों को पूरा करने में जी-जान से कोशिश भाजपा ने की। उस भाजपा ने जैसा कि पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह कहते हैं – ‘जिसने लगातार अवसर मिलने के बावजूद कभी भी यहां से किसी गैर-छत्तीसगढ़िया को राज्यसभा नहीं भेजा।’ खुद भूपेश बघेल के घर पर ‘छत्तीसगढ़’ लिखने वाली भाजपा इस अस्मिता की विरोधी करार दे दी गयी, जबकि दस जनपथ के आदेश पर यहां के संसाधन से देश भर में चुनाव लड़ने वाले, प्रदेश के लोगों का हक़ छीन कर दिल्ली पहुंचा देने वाले बघेल ‘छत्तीसगढ़िया’ हो गए। क्या कहा जाए इस विडंबना को!
भाजपा के उल्ट कांग्रेस को लगभग जब भी मौक़ा मिला, उसने अधिकांशतः यहां की सीट से आलाकमान को एक सेवक की तरह खुश करने का काम किया है। इससे पहले के.टी.एस. तुलसी और मोहसिना किदवई जैसे ऐसे लोगों को राज्यसभा भेजा गया, जिन्होंने सांसद बनने से पहले छत्तीसगढ़ को केवल नक़्शे पर देखा हुआ था। तुलसी का मामला तो और रोचक है। वे तो राज्यसभा में हुई जीत का प्रमाण पत्र तक लेने छत्तीसगढ़ आने की ज़हमत नहीं उठायी। तुलसी को उनके घर जाकर प्रदेश के एक कैबिनेट मंत्री सांसदी का प्रमाण पत्र दे आये, जिसे लेकर वे छत्तीसगढ़ियों को चिढ़ाते हुए सदन में पंजाबी में शपथ ली थी. क्या कहा जाय इसे।
ऐसे हालात में प्रदेश में भाजपा को क्या करना चाहिए ? ज़ाहिर है संख्या बल के अनुसार उसके पास फिलहाल छग विधानसभा में कोई अवसर नहीं है। लेकिन फिर भी भाजपा को ऐसे तरीके खोजने चाहिए जिससे प्रतीकात्मक ही सही लेकिन विरोध दर्ज कराया जा सके। छत्तीसगढ़ में सरकार बना लेने के बाद कांग्रेस ने सबसे अधिक ‘भरोसे का संकट’ पैदा किया है। उसने जो भी कहा ठीक उसका उल्टा करने का रिकॉर्ड स्थापित किया है। जैसे शराबबंदी का वादा कर शराब की ऑनलाइन डिलीवरी शुरू कर दी। किसानों को मंडी टैक्स माफ़ करने का वादा कर उसे डेढ़ गुना अधिक बढ़ा दिया। बेरोजगारी भत्ता देने का लिखित वादा कर साफ़ ही मुकर गयी कि ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था। और अब ये कि स्थानीयता का ढोल पीट-पीटकर इस बहाने प्रदेश में उग्र ताकतों को संरक्षण तक देकर अपनी राजनीति चमकाई, खुद राम-राम करते रहे जबकि पिता ने श्रीराम के बारे में अनर्गल बयानबाजी और अपशब्द कहते रहने का कीर्तिमान अपने नाम किया, और राज्यसभा से लगातार तीन सांसद ऐसे बनाए जिनका छत्तीसगढ़ से उतना ही लेना देना रहा है जितना कांग्रेस का ‘ईमान’ से लेना देना होता है.
दिलचस्प यह भी है कि सत्ता वाले दोनों राज्य में कांग्रेस ने स्थानीय नेताओं के साथ ऐसा ही चमत्कार किया है। राजस्थान से जिन रणदीप सिंह सुरजेवाला, मुकुल वासनिक और प्रमोद तिवारी को उम्मीदवार बनाया गया है, उनमें से किसी का भी रिश्ता राजस्थान से नहीं है। हालांकि वहां कम से कम एक कांग्रेस विधायक संयम लोढ़ा ने सवाल उठाने की हिमाकत की और कहा कि – ‘पार्टी को बताना होगा कि राजस्थान से किसी को भी उम्मीदवार क्यों नहीं बनाया गया।’ दुःख की बात यह है कि छत्तीसगढ़ के 71 कांग्रेस विधायकों में से किसी में इतना तक कह पाने का भी साहस नहीं है। यहां तक कि उन स्वास्थ्य मंत्री टी. एस. सिंहदेव भी इस मामले में भी जुबान खोलने की हिम्मत नहीं कर पाए जिन्हें ढाई-ढाई साल के फार्मूले का झूठा आश्वासन देकर पहले ही ठगा जा चुका है। जिनके पास खोने को फ़िलहाल कुछ अधिक नहीं है।
फिलहाल तो तीन-तीन बाहरी सांसदों को नियुक्त कर स्थानीय अस्मिता का राग अलापते मुख्यमंत्री के दोमुंहापन को एकटक देखते रहने के अलावा छत्तीसगढ़ के लोगों, कांग्रेसियों के पास और चारा ही क्या है ? प्रदेश के कांग्रेसियों की तपस्या में निश्चय ही पवन खेड़ा, नगमा या आचार्य प्रमोद कृष्णम, आज़ाद जैसी कुछ कमी रह गयी होगी। नारे तो खैर फिर भी बघेल लगायेंगे ही- सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया।
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