अफगानिस्तान में तालिबान का औरतों पर कहर जारी है। अब मीडिया में एंकर्स को भी बुर्के में आने के लिए और पूरा चेहरा ढककर काम करने के लिए कहा गया है। हालांकि इस निर्णय का विरोध हुआ, परन्तु फिर इस निर्णय को स्वीकार कर लिया गया। वहां पर महिला एंकर्स अब अपना पूरा चेहरा ढककर ही काम कर रही हैं। गुरुवार को अफगानिस्तान के दौरे पर गए संयुक्त राष्ट्र के एक अवलोकनकर्ता ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि तालिबान औरतों को समाज से गायब ही कर देना चाहता है।
अगस्त में जब से तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता संभाली है, तभी से जिस अनहोनी की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वह अब स्पष्ट हो गयी है और अब यह सामने आ रहा है कि तालिबान दरअसल औरतों को उसी प्रकार गायब कर रहा है, जैसे पहले कर चुका था। किशोर लड़कियों के स्कूल जाने पर प्रतिबंध लग चुका है और हर लड़की को घर से बाहर निकलने पर पूरी तरह से खुद को ढककर निकलने का भी आदेश जारी हुआ था। स्कूल, ऑफिस और अब बाजार से भी लड़कियों को गायब कर दिया है। एक क्षेत्र शेष था और वह था मीडिया। परन्तु मीडिया पर भी उनकी कुदृष्टि गयी और अब मीडिया में काम करने वाली एंकर्स को लेकर यह आदेश आया कि उन्हें पूरी तरह से खुद को ढककर रखना है। मतबल कि सार्वजानिक क्षेत्र से औरतों को पूरी तरह से मिटा देना, जैसा कि फेमिनिस्ट लीला सलमा ने भी ट्वीट किया कि
https://twitter.com/leyla_salama/status/1530467663130001409
तालिबान का अफगानिस्तान के लिए यही सपना है कि एक ऐसा अफगानिस्तान बने जहां पर औरतों का कोई सार्वजनिक जीवन न हो, उसकी कोई आजादी न हो, उसके पास कोई भी विकल्प न हो और उसका कोई भविष्य ही न हो! जब मीडिया में एंकर्स के लिए आदेश आया तो पहले तो इस आदेश का विरोध किया गया, परन्तु शीघ्र ही यह पता चल गया कि दरअसल इस विरोध का कोई भी अर्थ नहीं है और फिर इस आदेश को मान लिया गया। परन्तु यह भी देखना बहुत हैरान करने वाला है कि तालिबान को समर्थन करने वाली लिबरल मुस्लिम जमात पूरी तरह से अफगानिस्तान में हो रहे इस अत्याचार पर मौन है। इस विषय में पांचजन्य के सम्पादक हितेश शंकर ने भी ट्वीट किया कि महिलाओं का गला दबाने वाली आजादी झटके से नहीं आती। पहले ख्वाब दिखाए जाते हैं और फिर मजहब या प्रगतिशीलता में से किसी एक के चाकू से धीरे-धीरे हलाल किया जाता है।
महिलाओं का गला दबाने वाली आजादी झटके से नहीं आती।
पहले ख्वाब दिखाए जाते हैं।फिर मजहब या प्रगतिशीलता में से किसी एक के चाकू से धीरे-धीरे हलाल किया जाता है.
प्रगतिशील महिलाओं को यही देवबंदी वहाबी आजादी देना चाहते हैं जो तालिबान ने अफगानिस्तानी महिलाओं को दी है। pic.twitter.com/WSf8DpXDTI
— Hitesh Shankar (@hiteshshankar) May 25, 2022
यही ख्वाब ईरान में भी इस्लामिक क्रांति के दौरान दिखाए गए थे, परन्तु इस्लामिक क्रान्ति के बाद आज वहां पर औरतों को परदे में रहना पड़ता है जबकि पहले ऐसा नहीं था। यह भी मीडिया में आया था कि ईरान की इस्लामी क्रांति के नेता अयातोल्लाह रुहोल्ला खोमैनी ने बार-बार इस बात पर जोर दिया था कि महिलाओं को शालीन कपड़े पहनने हैं और क्रान्ति में केवल उन्हीं महिलाओं ने योगदान दिया था जो महिलाएं शालीन कपड़े पहनती हैं। अर्थात किसी भी इस्लामिक क्रान्ति के बाद जो सबसे पहला हमला होता है वह औरतों की आजादी पर ही होता है और चूंकि वह सरकार मजहब के आधार पर होती है तो उसकी सुनवाई भी पूरे विश्व में कहीं नहीं होती है। जैसे ईरान में अभी हिजाब विरोधी आन्दोलन में न जाने कितनी लड़कियों ने जेल जाना क़ुबूल किया, परन्तु उन्होंने हिजाब नहीं पहना। फिर भी एक बहुत बड़ा कथित प्रगतिशील वर्ग ईरान की उन महिलाओं के साथ नहीं है, जो बार बार आजादी के लिए विरोध कर रही हैं।
फिर से अफगानिस्तान पर आते हैं। अफगानिस्तान में मीडिया पर इस प्रतिबन्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्र अवलोकनकर्ता ने यह कहा कि अफगानिस्तान में औरतों पर से प्रतिबन्ध हटाया जाना चाहिए, तो तालिबान सरकार की ओर से यह प्रतिक्रिया आई कि चूंकि अफगानिस्तान में रहने वाले अधिकतर लोग मुस्लिम हैं और वह यह जानते हैं कि उनकी मजहबी पहचान और तहजीब के लिए हिजाब बहुत आवश्यक है। अत: इस प्रकार के कार्यों में किसे का भी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है।
देखना होगा कि विश्व मौन धारण करे एक समाज से उसकी औरतों को इस प्रकार विलुप्त होने देता है या फिर कोई सामूहिक कदम उठाया जाएगा? परन्तु इस विषय में भारत में प्रगतिशील वर्ग का मौन बहुत कुछ कहता है, उनकी निष्ठा किस ओर है यह भी बताता है!
टिप्पणियाँ