अठारह सौ सत्तावन का सिपाही विद्रोह?…ना! ना! वह तो स्वतंत्रता के लिए किया गया युद्ध था।” इस बात को साबित करने के लिए स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने बरतानियों के सम्पूर्ण दस्तावेजों का अध्ययन करना शुरू किया। और जब उनका विचार पक्का हो गया तब वे उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुंचे। उन्होंने इस विषय पर विस्तृत ग्रंथ- “सत्तावनचें स्वातंत्र्य समर” लिखा, जो आगे चलकर स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा देने वाला मौलिक ग्रंथ बन गया। इस ग्रंथ में उल्लेख है कि बरतानियों ने छल-बल का प्रयोग कर हिन्दुस्थान के सभी राज्यों को जीतकर और संस्थानों को खत्म कर अपना अधिराज्य स्थापित किया।
इस घटना के तुरंत बाद सभी भारतीय रजवाड़े, बादशाह, पेशवे, नवाब तथा अनेक रियासतों ने बरतानी सरकार के विरुद्ध सैन्य गोलबंदी की। बरतानी सरकार को पूरी तरह नेस्तनाबूद किए बगैर उन्हें सत्ता वापस नहीं मिलने वाली, यह भावना उनमें जगी और इस दृष्टि से इन सभी पूर्व सत्ताधारियों ने गुप्त रूप से आपस में बातचीत कर सैनिक क्रांति का विचार किया। उसके लिए इन सभी ने अपने-अपने राज्यों में जन-जन की एकजुटता का आह्वान किया। जनता की मनोभूमिका तैयार करने के लिए गांव-गांव में संन्यासी, मौलवी, फकीर, बैरागियों ने खुद को झोंक दिया। तब इन संन्यासी, मौलवी, फकीर, बैरागियों पर कोई पाबंदी नहीं थी। ये बड़े ही सरल अंदाज में स्वधर्म की दुरावस्था और बरतानियों के अत्याचार को लोगों के बीच रखकर स्वतंत्रता प्राप्ति की चर्चा करते थे। इस प्रकार लोगों के ह्मदय में उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति की ज्वाला भड़का दी।
ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों के बीच इन्हें आमंत्रित किया जाता था और इनका प्रवचन कराया जाता था। ये संत-महात्मा, मौलवी अपने प्रवचनों के जरिए उन सैनिकों में स्वधर्म और देशप्रेम का भाव जगाते, उनमें बरतानियों से विद्रोह की भावना उत्पन्न करते। इस प्रकार स्वदेशी सत्ताधीशों, सैनिकों तथा आम जनता- इन तीनों ने एक ही समय में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई का बिगुल बजा दिया। 1857 के स्वतंत्रता समर का नेतृत्व करने वाले हिन्दुस्थानी सत्ताधीशों के घोषणा पत्र से क्रांति के उद्देश्यों की साफ झलक मिलती है। दिल्ली के बादशाह की एक घोषणा में यह कहा गया- “हिन्दुस्थानियो! अगर तुम चाहो तो पल भर में अपने शत्रु का नाश कर अपने प्रिय धर्म को तथा अपने देश को गुलामी से पूरी तरह से मुक्त करा सकते हो!” अयोध्या के नवाब ने बरेली में घोषणा की- “हिन्दुस्थान के हिन्दुओ और मुसलमानो, जागो! परमेश्वर ने हमें बहुत सी भेंट दी है, उनमें से सबसे अनुपम भेंट “स्वराज्य” है। इन राक्षसों ने इस अनुपम भेंट को हमसे छीना है। क्या वे इसे बहुत दिन तक पचा पाएंगे? अब वे हमारे पवित्र धर्मों को नष्ट करने की सोच रहे हैं। जो पवित्र “धर्मयुद्ध” में अपनी पवित्र तलवार चलाते हैं वे ईश्वर के समान हैं। तो हिन्दुस्थान के भाइयो, उठो! इस ईश्वरीय कार्य हेतु रणभूमि में कूच करने की तैयारी करो।” और श्रीमंत नाना साहब पेशवा ने अपनी घोषणा में कहा, “हिन्दुस्थानियो! ईश्वर की आज्ञा है-स्वराज्य स्थापित करो, क्योंकि वह स्वधर्म रक्षा का मूल साधन है। जो स्वराज्य प्राप्त नहीं करता, जो गुलामी में तटस्थ रहता है, वह अधर्मी और धर्मद्रोही होता है। इसलिए स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो।”
अलग-अलग हिन्दुस्थानी रजवाड़ों की इन घोषणाओं से यह सिद्ध होता है कि अठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्रता संग्राम एक सिपाही विद्रोह न होकर योजनाबद्ध तरीके से किया गया एक देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम था। यह बात वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक में सप्रमाण और पूरी दमदारी से प्रस्तुत की, जिसका अंग्रेजी सरकार ने तीव्र विरोध किया था। तब उनके टुकड़ों पर पलने वाले हिन्दुस्थानी अधिकारियों, कुछ सार्वजनिक संस्थाओं तथा समाज के तथाकथित विशिष्टजन ने उनके सुर में सुर मिलाया था। “सत्तावनचें स्वातंत्र्य समर” पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन सर्वश्री लाला हरदयाल, मादाम कामा जैसे क्रांतिकारियों ने आपस में धन एकत्र कर गुप्त रूप से इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और सेना तथा सशस्त्र क्रांतिकारियों के बीच इसे बांटा था। यह ग्रंथ इतना लोकप्रिय हो गया कि विदेश में तिगुने दामों पर बिकने लगा। क्रांतिकारियों ने आगे चलकर इस ग्रंथ का पुन: प्रकाशन कराकर अपने-अपने बंधुओं के बीच बांटा। इस ग्रंथ से प्रेरणा पाकर अनेक क्रांतिकारी देशभक्ति के कार्यों में पूरे जोश के साथ जुट गए। इन क्रांतिकारियों के दिल में वीर सावरकर के प्रति अपार श्रद्धा थी और इन्हें सशस्त्र क्रांति के लिए सावरकर के मार्गदर्शन व महत्व पर पूरा भरोसा था। इस पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण का पुन: मुद्रण और वितरण कई स्थानों पर भगत सिंह, महर्षि अरविन्द और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था। इतना ही नहीं, मशहूर क्रांतिकारी सर्वश्री राजगोपालाचारी, डा. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, इंदुलाल याज्ञिक, डा. राजन, आसफ अली आदि नेता सावरकर के इस ग्रंथ से प्रेरणा लेकर देशभक्ति के पवित्र कार्य में लगे थे।
इस ग्रंथ को वीर सावरकर ने मराठी भाषा में तब लिखा था जब वे लंदन में थे। सावरकर ने पहले ही भांप लिया था कि इस पुस्तक के छपते ही अंग्रेज सरकार इसे जब्त कर लेगी। इसलिए उन्होंने इस पुस्तक की हस्तलिखित तीन प्रतियां तैयार की थीं। एक प्रति उन्होंने भारत में छापने के लिए अपने भाई बाबाराव सावरकर के पास भेजी थी। दूसरी प्रति फ्रांस में मादाम कामा के पास तथा तीसरी प्रति अपने मित्र डा. कुटिन्हो के पास भेजी थी। बाद में जब भारत में इस पुस्तक को छापना असंभव हो गया तो इसे वापस लंदन भेज दिया गया।फिर यह ग्रंथ लगातार 38 वर्ष तक अंधकार के गर्त में पड़ा रहा। परंतु श्री मो.शि. गोखले ने इस पुस्तक का मुद्रण गुप्त रूप से किया और सार्वजनिक रूप से बेचकर सरकारी कानून तोड़ा। इससे पूर्व इस पुस्तक पर से पाबंदी हटाने के लिए लोगों ने काफी आंदोलन किया था। इन आंदोलनों की वजह से आगे चलकर कांग्रेस सरकार ने “1857 का स्वातंत्र्य समर” पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद पर से पाबंदी उठा ली। इस पुस्तक का फिर से श्री.वि.वि. पटवर्धन द्वारा मराठी रूपांतर किया गया। मैं पुणे में 1946 में जब शिक्षण प्राप्त कर रहा था उस समय “हिंदुराष्ट्र” दैनिक के संपादक श्री गोडसे ने इस पुस्तक का पहला संस्करण मुझे उपहार स्वरूप दिया था। अभिनव भारत के प्रखर साधक डा. कुटिन्हो ने वीर सावरकर के उस स्मरणीय हस्तलिखित दस्तावेज को संजोकर रखा था। स्वतंत्रता मिलने के बाद अमरीका में बसे डा. कुटिन्हो ने वाशिंगटन निवासी डा. डी.वान गोहोकर के हाथों वह हस्तलिखित प्रति सावरकर के पास भिजवाई।
श्री गोहोकर ने नागपुर पहुंचकर इस दस्तावेज को डा. मुंजे को दिखाया और कहा कि इसे सावरकर के पास पहुंचाना है। डा. मुंजे से पता लेकर श्री गोहोकर सन् 1949 में स्वयं मुम्बई स्थित सावरकर भवन में आए और सावरकर के उस स्मरणीय दस्तावेज को सावरकर के ही हाथों में सौंप दिया। सावरकर जी कुछ देर तक अपनी हस्तलिपि को निर्निमेष देखते रहे। शायद स्मृतियां ताजा हो आईं। वे थोड़ा भावुक हो गए, क्योंकि चालीस वर्ष पहले उन्हीं के हाथों लिखा दस्तावेज पुन: उनके हाथों में आया था। बाद में इसे केसरी के कार्यालय में भिजवा दिया गया। आगे चलकर केसरी ने मुखपृष्ठ को प्रकाशित किया।
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