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‘समय’ का समरूप है वट वृक्ष

भारतीय संस्कृति में वट वृक्ष को विशेष महत्व प्राप्त है। इस वृक्ष को प्रकृति के सृजन का और चैतन्य सत्ता प्रतीक माना जाता है

by पूनम नेगी
May 26, 2022, 11:30 am IST
in भारत, संस्कृति
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भारतीय संस्कृति में वट वृक्ष को विशेष महत्व प्राप्त है। इस वृक्ष को प्रकृति के सृजन का और चैतन्य सत्ता प्रतीक माना जाता है। आयुर्वेद में भी वटवृक्ष को आरोग्य प्रदाता माना गया है। विभिन्न शोधों से यह साबित हो चुका है कि प्रचुर मात्रा में प्राणवायु (आक्सीजन) देने वाला यह वृक्ष मनों-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने व ध्यान में स्थिरता लाने में सहायक है

वृक्षों-वनस्पतियों के प्रति जो श्रद्धाभाव भारतीय संस्कृति में दिखता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। हमारे मनीषियों को इन वृक्षों के प्रति एक अनूठी आत्मीयता का एहसास हुआ और उन्होंने प्रकृति की इस सुरम्य कोख में वेद-वेदांगों, उपनिषदों आदि की रचना कर समूचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान की आधारशिला रखी थी। भारतीय ऋषियों ने अपने शोधों में पाया था कि वृक्षों में विराट विश्व एवं प्रकृति की विराटता का कोमल एहसास है तथा धरती के प्रत्येक वृक्ष व वनस्पति में प्रकृति की एक अनुपम शक्ति छिपी है। यही गुण-धर्म उन्हें देवत्व प्रदान करते हैं।

हमारी इस अनमोल वृक्ष सम्पदा में अन्यतम है वट वृक्ष। अपनी विराटता, सघनता, दीर्घजीविता व आरोग्यप्रदायक गुणों के कारण इसे ‘कल्प वृक्ष’ की संज्ञा दी गई है। ‘समय’ का समरूप है वट वृक्ष। जिस तरह समय वर्तमान में हमारे सामने रहते हुए भी अतीत को पीछे छोड़े भविष्य की ओर सतत बढ़ता रहता है; ठीक वैसे ही वटवृक्ष प्रत्यक्ष में हमारे सामने खड़े रहकर भी न जाने कब से पृथ्वी में बहुत गहरे अपनी जड़ें जमाए एक के बाद एक शाखाओं को और उससे विकसित जड़ों को पृथ्वी में स्तंभ के रूप में गाड़ते हुए भूत से भविष्य की यात्रा करता जाता है। सनातन दर्शन में वटवृक्ष को तपोवन की मान्यता यूं ही नहीं दी गई है। यह वृक्ष अपने असीमित विस्तार में अपने चारों ओर इतना व्यापक घेरा बना लेता है कि अपने शरणागत को किसी जंगल-सा आभास देता है। कहा जाता है कि भारत पर आक्रमण करने आए सिकंदर की सात हजार सैनिकों वाली सेना को जब एक बार बारिश से बचने की जरूरत पड़ी तो उसे एक विशाल बरगद के नीचे ही शरण मिली। वे विदेशी सैनिक यह देखकर बेहद अचरज में पड़ गए कि जहां वे खड़े थे, वह कोई जंगल नहीं बल्कि एक ही पेड़ का घेरा था!

समूचे देश में अनेक प्रसिद्ध वटवृक्ष हैं किंतु इनमें प्रयाग के अक्षयवट, गया के बोधिवट, वृंदावन के वंशीवट तथा उज्जैन के सिद्धवट के प्रति हिंदू धर्मावलंबी विशेष आस्था रखते हैं। प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर अवस्थित अक्षय वट हिंदुओं ही नहीं; जैन व बौद्ध की भी आस्था का केंद्र है। गोस्वामी तुलसीदास भी इस वटवृक्ष का गुणानुवाद करना नहीं भूले। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर स्थित वटवृक्ष के बारे में माना जाता है कि यह कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है। इसी तरह श्राद्ध तीर्थ गया में भी एक सर्व सिद्धिदायक वटवृक्ष है

अनंत जीवन का प्रतीक
बरगद को अमरत्व, दीर्घायु और अनंत जीवन के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। यही वजह है कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्या की थी। अब तो विभिन्न शोधों से भी साबित हो चुका है कि प्रचुर मात्रा में प्राणवायु (आक्सीजन) देने वाला यह वृक्ष मनो-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने व ध्यान में स्थिरता लाने में सहायक होता है। महात्मा बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे संबोधि (आत्मज्ञान) प्राप्त हुआ था। बौद्ध धर्मग्रन्थों के अनुसार इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद उनका अंतस बोधि वृक्ष के प्रति कृतज्ञता से भर गया। बोधगया के महाबोधि मन्दिर का वट वृक्ष आज भी तथागत की महान तपस्या का मूक साक्षी है। कहा जाता है कि तमाम आक्रांताओं ने कई बार इस पवित्र वृक्ष को नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन हर ऐसे प्रयास के बाद बोधि वृक्ष फिर से पनप गया। बोधगया के महाबोधि मंदिर के परिसर में स्थित इस प्राचीन वृक्ष की नियमित जांच व संरक्षण में लगे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक महाबोधि वृक्ष आज भी पूर्ण स्वस्थ है। गौरतलब है कि यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शुमार इस पवित्र महाबोधि वृक्ष को देखने के लिए हर साल देश-विदेश से लाखों पर्यटक बोधगया आते हैं।

वृक्षों में चैतन्य सत्ता का वास
ध्यातव्य है कि भारत के महान वनस्पति विज्ञानी डॉ. जगदीशचन्द्र बसु ने अपने यांत्रिक प्रयोगों से यह साबित कर दिखाया था कि हम मनुष्यों की तरह वृक्षों में भी चैतन्य सत्ता का वास होता है। उनका यह शोध भारतीय संस्कृति की वृक्षोपासना की महत्ता को साबित करता है। वट वृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि हमें किसी भी परिस्थिति में अपने मूल से नहीं कटना चाहिए और अपना संकल्प बल व आत्म सामर्थ्य को सतत विकसित करते रहना चाहिए। सनातन दर्शन में वट वृक्ष की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-‘जगत वटे तं पृथुमं शयानं बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि।’ अर्थात् प्रलयकाल में जब सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो गई तब जगत पालक श्रीहरि अपने बालमुकुंद रूप में उस अथाह जलराशि में वटवृक्ष के एक पत्ते पर निश्ंिचत शयन कर रहे थे। सनातन धर्म की मान्यता है कि वट वृक्ष प्रकृति के सृजन का प्रतीक है। अकाल में भी नष्ट न होने के कारण इसे ‘अक्षय वट’ कहा जाता है। स्वयं त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) इसकी रक्षा करते हैं। वट वृक्ष की अभ्यर्थना करते हुए वैदिक ऋषि कहते हैं- मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखा शंकरमेव च। पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम् वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते।। ‘अर्थात् हम उस वट देवता को नमन करते हैं जिसके मूल में चौमुखी ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में महादेव शिव का वास है।’

वट वृक्ष की उत्पत्ति यक्षों के राजा मणिभद्र से मानी जाती है। इसीलिए इसे ‘यक्षवास’, ‘यक्षतरु’ व ‘यक्षवारूक’ आदि नामों से पुकारा जाता है। यों तो समूचे देश में अनेक प्रसिद्ध वटवृक्ष हैं किंतु इनमें प्रयाग के अक्षयवट, गया के बोधिवट, वृंदावन के वंशीवट तथा उज्जैन के सिद्धवट के प्रति हिंदू धर्मावलंबी विशेष आस्था रखते हैं। प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर अवस्थित अक्षय वट हिंदुओं ही नहीं; जैन व बौद्ध की भी आस्था का केंद्र है। कहा जाता है कि महर्षि भारद्वाज ने इसी अक्षयवट की छाया में पावन रामकथा का गान किया था। गोस्वामी तुलसीदास भी इस वटवृक्ष का गुणानुवाद करना नहीं भूले। इसी तरह महात्मा बुद्ध ने प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज कैलाश पर्वत पर बोया था। इसी तरह जैनियों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रयाग के अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। इस स्थान को ऋषभदेव की तपोस्थली के नाम से जाना जाता है। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर नामक स्थान पर भी एक वटवृक्ष है जिसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है। इसी तरह श्राद्ध तीर्थ गया में भी एक सर्व सिद्धिदायक वटवृक्ष है। कथानक है कि इसका रोपण ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर किया था। बाद में जगद्जननी सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा जग विख्यात हुई।

आयुर्वेद में वटवृक्ष को आरोग्य प्रदाता माना गया है। आचार्य चरक के अनुसार वटवृक्ष के नियमित दर्शन, पूजन, स्पर्श व परिक्रमा से आरोग्य की वृद्धि होती है। उन्होंने वटवृक्ष को शीतलता-प्रदायक, सभी रोगों को दूर करने वाला तथा विष-दोष निवारक बताया है। इस वृक्ष पर अनेक जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों का जीवन निर्भर रहता है। पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में भी इसकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।


भारतीय स्त्रियों की अदम्य जिजीविषा का प्रतीक है वट सावित्री व्रत

उत्तर भारत विशेषकर पूर्वांचल में बरगदाही के नाम से लोकप्रिय वट सावित्री व्रत हिन्दू सुहागिनों का प्रमुख व्रत है। यह व्रत भारतीय संस्कृति की एक महान नारी सती सावित्री की ईशनिष्ठा, अनूठे बुद्धि कौशल व पातिव्रत धर्म की अद्भुत शक्ति का परिचायक है। व्रत से जुड़ी सावित्री-सत्यवान की कथा से प्राय: हर सनातनधर्मी भली-भांति परिचित है। सावित्री की उस महाविजय के उपलक्ष्य में प्राचीनकाल से भारत की सुहागन स्त्रियां पति की दीर्घायु व उत्तम पारिवारिक जीवन के लिए ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वट सावित्री का व्रत पूजन करती आ रही हैं। कहते हैं कि महासती सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे ही मृत्यु के देवता यमराज से अपने मृत पति का पुनर्जीवन हासिल किया था; तभी से वट वृक्ष देव वृक्ष के रूप में पूज्य हो गया।

दार्शनिक दृष्टि से वट वृक्ष को दीघार्यु व अमरत्व-बोध का प्रतीक माना जाता है।अक्षय वट के समान अपने सुहाग को अक्षय रखने की भारतीय स्त्री की कामना हमारे उत्कृष्ट सनातन जीवन मूल्यों की पोषक-परिचायक है। सावित्री-सत्यवान की नारी शक्ति की अदम्य जिजीविषा की प्रतीक है। एक भारतीय नारी अपने संकल्पित पातिव्रत धर्म की शक्ति के बल पर जिस तरह अपने पति को मृत्यु के मुख से बाहर निकाल लाती है, ऐसा विलक्षण उदाहरण किसी अन्य धर्म-संस्कृति में मिलना दुर्लभ है। वट पूजन के इस महाव्रत में नारी शक्ति की प्रबल जिजीविषा की विजय के महाभाव के साथ हमारे जीवन में वृक्षों की महत्ता व पर्यावरण संरक्षण का पुनीत संदेश छुपा है।


सनातन संस्कृति में वनस्पतियों की मान्यता
वट वृक्ष के अलावा हिन्दू संस्कृति में तुलसी, पीपल, नीम, बेल, अशोक, आम, पलाश, शमी व केला आदि वृक्ष- वनस्पतियों की भारी मान्यता है। श्रीमद्भगवद् गीता के 10 वें अध्याय में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां अर्थात् वृक्षों में मैं पीपल हूं। गौरतलब है कि चौबीसों घंटे प्राणवायु देने वाला पीपल ऐसा वृक्ष है जिसमें कभी कीड़े नहीं लगते। ज्योतिष विज्ञानी शनि के प्रकोप से बचने के लिए पीपल के पेड़ की पूजा का विधान बताते हैं। हिन्दू धर्म में पीपल के पेड़ को काटना महापाप माना जाता है। इसी तरह ‘जो शोक निवारे सो अशोक’। इस वृक्ष की महत्ता बताने के लिए सिर्फ सीता माता का ही उदाहरण काफी है जिन्होंने रावण की स्वर्णनगरी में अशोक वाटिका को अपना आश्रय बनाया था। मान्यता है कि घर में अशोक वृक्ष लगाने से वास्तु दोष समाप्त हो जाता है। नीम के पेड़ की उपयोगिता भी कुछ कम नहीं है। इसे मां दुर्गा का वृक्ष माना जाता है। इस वृक्ष के औषधीय गुणों से हम सब भलीभांति वाकिफ हैं। यहां यह इसे नीमारी देवी के नाम से भी पुकारा जाता है तथा देवी मंदिर के पास इसका रोपण शुभ माना जाता है।

जानना दिलचस्प होगा कि ग्राम्यांचलों में आज भी चेचक निकलने (आम देशज भाषा में माता आने) पर नीम की पत्तियों का उपयोग किया जाता है। बेल के पेड़ यानी बिल्व वृक्ष के तो क्या कहने। इसकी प्रशस्ति में तो ‘विल्वाष्टक’ स्त्रोत तक रचा जा चुका है। कहा जाता है कि बिल्वपत्र चढ़ाने से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। आम तो फलों का राजा है ही, इसका पेड़ भी उतना ही शुभ, पवित्र व उपयोगी होता है। प्रत्येक मांगलिक कार्य व पूजा-अनुष्ठान में आम्र पल्लवों का कलश इस्तेमाल होता है। पर्व-त्योहार घर के प्रवेशद्वार पर भी आम के पत्तों का बंदनवार सजाया जाता है। हवन में भी आम की लकड़ी प्रयुक्त होती है। वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की आराधना के लिए आम के फूलों का इस्तेमाल होता है। ऐसे ही केले के फल व पत्तों का भी विशेष महत्व है। इसे भगवान विष्णु का पेड़ माना जाता है। इसके पत्तों का सत्य नारायण की पूजा में विशेष तौर पर इस्तेमाल होता है। सुख-समृद्धि के लिए केले के पेड़ की पूजा शुभ मानी जाती है। हरिप्रिया तुलसी की महिमा का तो कहना ही क्या! तुलसीपत्र के बिना पंचामृत पूर्ण ही नहीं हो सकता। इसकी रोग निवारक व पर्यावरण शुद्धि क्षमता से भी हम सभी भलीभांति परिचित हैं। हमारी समूची आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली वृक्ष वनस्पतियों पर ही आधारित है।

सार रूप में कहें तो हमारे देश की समग्र सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं अध्यात्म-दर्शन का विकास वनों में ही हुआ है। हमारे समूचे पर्यावरण की सेहत इन्हीं मूक देवताओं की कृपा पर टिकी है; मगर दुर्भाग्यवश आज परिस्थितियां सर्वथा विपरीत हैं। वनों के प्रति प्यार व श्रद्धा चिह्न पूजा मात्र रह गई है। हमने अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए जंगलों का विनाश किया, धरती के आंचल को क्षत-विक्षत करके उसके अन्दर बहने वाली जलधारा तक को सुखा दिया। अपनी घोर स्वार्थलिप्सा के कारण हम यह भूल गए कि प्रकृति के ये जड़ देवता हम मनुष्यों पर कितना उपकार करते हैं, हमें कितने तरह के लाभ देते हैं।  आइए मिल कर भूल सुधारें और वट पूजन के इस पुनीत पर्व पर वनों की महत्ता को सही ढंग से पहचानकर अन्तर्मन से उनको संरक्षित व संवर्धित करने का संकल्प लें।

Topics: नीमबेलअशोकआमपलाशशमी व केलासावित्री व्रतपीपलभारतीय संस्कृतिऋषभदेव की तपोस्थलीहिन्दू संस्कृति में तुलसी
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