ईश्वर को दिए गए 99 नाम के अलावा किसी दूसरे नाम से बुलाना भी हराम है। इसके खिलाफ फतवे हैं, शिर्क है, दोजख जाने का डर है और अंत में काफिर और ईमान वालों की सदियों पुरानी और कभी न खत्म होने वाली लड़ाई।
एक तरफ वह विचार है, जो मानता है कि ईश्वर को दिए गए 99 नाम के अलावा किसी दूसरे नाम से बुलाना भी हराम है। इसके खिलाफ फतवे हैं, शिर्क है, दोजख जाने का डर है और अंत में काफिर और ईमान वालों की सदियों पुरानी और कभी न खत्म होने वाली लड़ाई। दूसरी तरफ वह विचार है, जो कहता है कि आप अपने हिसाब से अपने ईश्वर की कल्पना करें। वीणा नहीं तो जापानी वीवा हो, हंस न हो तो ड्रैगन और सरस्वती न हों तो नाम बेंजाइटन ही सही, लेकिन वह होनी ज्ञान की देवी ही चाहिए।
ईश्वर का रूप अपने अनुसार चुनिए, लेकिन उसका गुण, ज्ञान, धर्म, प्रेम, करुणा, त्याग, दया ही होना चाहिए। यह जो दूसरा विचार है, वह हमारा है। इसी विचार ने हजारों वर्षों तक दुनिया का नेतृत्व किया है। उसी विचार की वजह से ही भारत में इतनी शांति के साथ इतनी सांस्कृतिक विभिन्नता विकसित हुई है। इस विचार की वजह से ही इतनी दरिद्रता के बाद भी यह देश एक रहा है।
हमेशा इसी विचार को लेकर चलिए, क्योंकि जो एक ईश्वर या एक विचारधारा की तानाशाही की बात करते हैं, उनके इतिहास में नरसंहार और तानाशाहों के अलावा कुछ नहीं है। आप बहुत सिकुड़ चुके हैं, और मत सिकुड़िए। अपना विचार फैज का विचार नहीं है कि ‘‘सब बुत उठवाएं जाएंगे, नाम रहेगा बस अल्लाह का।’’ वह दिन भी देखें, जब यूरोप या अफ्रीकी ज्ञान की देवी गिटार थामे हो। यह तब होगा, जब आप डटकर अपने विचार पर खड़े होंगे।
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गणपति पेशवाओं के इष्ट देवता थे। पेशवाई के दौरान मराठा साम्राज्य में गणेश पूजा का शाही महत्व था। अंग्रेजों के उदय के साथ गणेश पूजा पारिवारिक उत्सव बन कर रह गई, लेकिन लोकमान्य तिलक ने शिवाजी जयंती और गणेश चतुर्थी को फिर से समाज के बीच में स्थापित कर दिया। क्या शिवाजी जयंती देश की राजनीतिक एकता में बाधक होगी? ऐसे सवालों के साथ लोकमान्य तिलक के ऊपर संपादकीय लिखे गए।
महाराष्ट्र के बाहर शिवाजी महाराज की स्वीकार्यता होगी, इस पर संदेह जताया गया। आज सौ साल के बाद देखिए। गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र के बाहर निकल कर एक अखिल भारतीय त्योहार बन चुकी है। हिन्दू जनमानस में शिवाजी महाराज का क्या दर्जा है, लिखने की जरूरत नहीं।
ऐसा तब होता है, जब आप अपनी संस्कृति पर टिके रहते हैं। उसे लेकर आगे बढ़ते हैं और धीरे-धीरे वह समाज की मुख्यधारा बन जाती है। दूसरी तरफ, बंगाल को देखिए। एक ऐसा राज्य, जिसे अंग्रेजों ने सीधे मुगलों से जीता। जहां राम नाम को राजनीतिक तौर पर बाहरी बताया गया और जिस दुर्गा पूजा को बंगाल की संस्कृति माना गया, वह दुर्गा पूजा आधी बंग भूमि (बांग्लादेश) से भी समाप्त हो गई।
गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा हमें बताते हैं कि राजनीतिक तौर पर सजग रहने का क्या सांस्कृतिक महत्व होता है।
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