हाल ही में भारत सरकार ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी के चलते भारत से गेहूं का निर्यात काफी बढ़ गया था। दुनिया में गेहूं की कीमत भी अक्टूबर 2021 में 354.7 डालर प्रति टन से बढ़ती हुई अप्रैल 2022 तक 495.3 डालर प्रति टन पहुंच चुकी है। भारत में कटाई के बाद गेहूं, बाजारों में लाया जा रहा है, किसान निजी खरीददारों से ज्यादा कीमत मिलने के कारण अपना गेहूं उनको बेच रहे हैं। ऊंची अंतरराष्ट्रीय कीमतों के चलते, चूंकि किसानों को निजी खरीददारों के माध्यम से अपने गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत मिल रही है। सरकार पर खरीदारी का बोझ तो घट गया है, लेकिन एक नया सवाल भी खड़ा हुआ है कि क्या सरकार द्वारा कम खरीद के चलते, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मुश्किलें बढ़ तो नहीं जाएंगी।
गौरतलब है कि पिछले लंबे समय से सरकार के पास खाद्यान्नों का भंडार, मानकों से कहीं अधिक रहा है। जहां मानक मात्र 175.2 लाख टन का था, अप्रैल 2020 में केंद्रीय पूल में सरकारी खाद्यान्न भंडार 569.4 लाख टन, अप्रैल 2021 में 564.2 लाख टन और अप्रैल 2022 में 513.1 लाख टन थे। उसका लाभ यह हुआ कि कोरोना काल में सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था संभव हो सकी। यह सही है कि अभी भी सरकारी खाद्यान्न भंडार मानकों से अधिक ही है। इसका कारण यह है कि पिछले कुछ समय से देश में खाद्यान्न उत्पादन लगातार तेजी से बढ़ा है। बेहतर नीति, न्यूनतम समर्थन मूल्य, बेहतर सिंचाई सुविधायें, बेहतर बीज और किसानों की मेहनत के कारण यह संभव हुआ है।
लेकिन दुनिया में खाद्य असुरक्षा लगातार बढ़ी है। आने वाले समय में रूस-यूक्रेन युद्ध और दुनिया में कृषि के घटते उत्पादन के चलते, खाद्य सामग्री की कमी की आशंका के कारण दुनिया की खाद्य व्यवसायिक कंपनियों ने तेजी से अपने खाद्य भंडार बढ़ाना शुरू कर दिया है। उसी क्रम में निजी कंपनियों के रास्ते ये अंतरराष्ट्रीय खाद्य व्यवसाय कंपनियों ने भारत से भी गेहूं की भारी खरीद शुरू कर दी। पहले तो कृषि निर्यातों के बढ़ाने की नीति की सफलता के नाम पर भारत सरकार ने न केवल बढ़ते गेहूं निर्यात का समर्थन किया, बल्कि इस निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए मोरोक्को, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स, थाईलैंड, वियतनाम, तुर्की, अलजीरिया, लेबनान इत्यादि देशों में अपने व्यापार प्रतिनिधि भेजने का भी निर्णय किया। लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा धन के बल पर भारत से गेहूं खरीदकर जमाखोरी शुरू कर दी, तो भारत सरकार ने विषय की गंभीरता का संज्ञान लेते हुए, गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया।
महंगाई का खतरा
पिछले कुछ समय से दुनिया में महंगाई का कहर बढ़ता जा रहा है। पूर्व में सामान्यतः विकाशील देश ही महंगाई का शिकार होते थे और विकसित देश उससे अछूते ही रहते थे। हाल की में हो रही महंगाई की खासियत यह है कि अमरीका और यूरोप के देशों में भी अब इस महंगाई की आंच बढ़ रही है। अप्रैल माह में अमरीका, इंग्लैंड, यूरोपीय संघ में महंगाई की दर क्रमशः 8.3 प्रतिशत, 7.0 और 7.5 प्रतिशत रही। इस महंगाई में खाद्य मुद्रा स्फीति का हिस्सा काफी अधिक है। पूरी दुनिया में खाने पीने की चीजों की महंगाई तो चिंता का सबब है ही, रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते यूक्रेन में कृषि उत्पादन को प्रभावित हुआ ही है, यूरोपीय संघ और अमरीका के प्रतिबंधों के कारण भी खाद्य सामग्री का व्यापार और आवाजाही भी प्रभावित हुई है। ऐसे में मुद्रा स्फीति के हालात और अधिक बिगड़ सकते हैं। भारत सरकार की चिंता का कारण यह भी है कि कहीं निजी कंपनियों द्वार गेहूं को खरीदकर विदेशों को निर्यात करने से देश में गेहूं की कमी न हो जाये।
सही नहीं है निर्णय की आलोचना
कुछ लोगों द्वारा सरकार द्वारा गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय की आलोचना की जा रही है। रोचक बात यह है कि यह आलोचना किसान संगठनों द्वारा कम और भूमंडलीकरण के समर्थकों द्वारा ज्यादा हो रही है। उनका तर्क है कि किसान के पास यह अवसर आया था कि वह अपने गेहूं को अधिक कीमत पर बेच सकें, लेकिन गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध के कारण अब उनसे यह अवसर छिन जायेगा। लेकिन यह तर्क पूरी तरह से सही नहीं है, इस बार बाजार भाव अधिक होने के कारण सरकार द्वारा एमएसपी पर खरीददारी तो कम हुई और अधिक कीमत पर निजी खरीददारों को काफी गेहूं बेचा गया। किसानों द्वारा सरकार को गेहूं न बेचने के कारण, सरकार द्वारा खरीद का लक्ष्य 444 लाख टन से घटाकर 195 लाख टन दिया गया है, जिसमें से 14 मई 2022 तक 180 लाख टन की खरीद हो चुकी है।
नई बात नहीं है, आयात और निर्यात का निर्णय
कृषि जिंसों के आयात और निर्यात की अनुमति अथवा प्रतिबंध कोई नई बात नहीं है। ये निर्णय देश में किसानों और उपभोक्ताओं के हितों में सामंजस्य बिठाकर किये जाते हैं। जब भी देश में खाद्य मुद्रा स्फीति का माहौल बनता है, जिन जिंसों में कीमतें एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती हैं, उनके आयात की अनुमति दे दी जाती है। जब भी देश में आवश्यकता से अधिक उत्पादन होता है, उसके निर्यात की अनुमति दे दी जाती है। किसी कृषि पदार्थ की कमी का अंदेशा होने पर उसके निर्यात पर प्रतिबंध भी लगा दिया जाता है। गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध, सरकारी खरीद एजेंसियों द्वारा खाद्यान्न के भंडार घटने के खतरे की घंटी के बाद लिया गया है।
गौरतलब है कि सरकार पर कोरोना त्रासदी के बाद खाद्यान्न के मुफ्त वितरण के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से काफी खाद्यान्न का वितरण पिछले दो वर्षों में हुआ है, जिसके कारण सरकार द्वारा इस दौरान खाद्यान्न की भारी खरीद के बावजूद, अभी सरकारी खाद्यान्न भंडार अप्रैल 2022 तक 513.1 लाख टन ही बचे हैं। जिसमें गेहूं 190 लाख टन ही है। इस बार भी लक्ष्य से कम गेहूं की खरीद के चलते, भविष्य में सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत अपने दायित्व निर्वहन में भी कठिनाई हो सकती थी।
कहा जा सकता है कि चूंकि अधिकांश किसान पहले से ही अपना गेहूं बाजार में बेच चुके हैं, इसलिए गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध का असर उन पर तो नहीं पड़ेगा, लेकिन उन निजी कंपनियों पर जरूर पड़ सकता है, जो अब किसानों से खरीदी गेहूं को ऊंची कीमतों पर निर्यात नहीं कर पाएंगे। गौरतलब है कि देश में खाद्यान्न उत्पादन लगातार बढ़ता हुआ वर्ष 2021-22 में 3161 लाख टन तक पहुंचने की उम्मीद है। महत्वपूर्ण बात यह है कि बाजार तंत्र द्वारा निर्यात के बजाए खाद्यान्न की कमी से जूझ रहे देशों को हम अवश्य खाद्य सहायता के रूप में गेहूं भेज पायेंगे, जो भारत की पूर्व की नीति के अनुरूप एक सराहनीय कदम होगा, और इससे देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी।
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