अलेक्जेंडर कनिंघम ने जब भारत में पुरातत्व विभाग की स्थापना की, तब से अनेक महत्वपूर्ण खोज कार्य होते रहे हैं। उनमें से कुछ खोजों ने भारतीय ही नहीं, अपितु विश्व के इतिहास को भी प्रभावित किया है।
अलेक्जेंडर कनिंघम ने जब भारत में पुरातत्व विभाग की स्थापना की, तब से अनेक महत्वपूर्ण खोज कार्य होते रहे हैं। उनमें से कुछ खोजों ने भारतीय ही नहीं, अपितु विश्व के इतिहास को भी प्रभावित किया है। 1920-21 में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खोज के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में इतिहास संबंधित क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इसी प्रकार की महत्वपूर्ण खोज हरियाणा के हिसार जिले में स्थित राखीगढ़ी गांव में अलग-अलग कालखंडों में हुई। यहां खुदाई में अति महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आई, जिन्होंने हरियाणा ही नहीं, भारत के इतिहास के पुनर्गठन का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। हरियाणा में अभी तक सिंधु सभ्यता के लगभग 1,000 स्थानों की खोज हो चुकी है। इसलिए अब इसे हड़प्पा संस्कृति के स्थान पर सिंधु-सरस्वती संस्कृति नाम देना अधिक उचित प्रतीत होता है।
वैसे तो राखीगढ़ी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा 1963 में कार्य आरंभ किया गया था, परंतु यहां से प्राप्त अवशेषों के बारे में अधिक कुछ नहीं लिखा गया। 1969 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के डॉ. सूरजभान ने इस स्थल का पुन: सर्वेक्षण किया तथा इसके बारे में कुछ विवरण प्रस्तुत किए। इसके बाद 1997-98,1998-99,1999-2000 में एएसआई के निदेशक डॉ. अमरेंद्रनाथ की अगुआई में पांच टीलों पर काम शुरू हुआ, जिन्हें आरजीआर-1 से 5 नाम दिया गया। लेकिन 2000 में यह खोज कार्य बंद कर दिया गया। दोबारा 2011-16 तक डेक्कन विश्वविद्यालय, पुणे के कुलपति डॉ. वसंत शिंदे की अगुआई में खुदाई शुरू की गई।
उनकी टीम ने आरजीआर-8 से आरजीआर-11 टीलों पर महत्वपूर्ण कार्य किया। इनमें आरजीआर 1 से 6 बस्तियां है। आरजीआर-5 टीले पर तो वर्तमान में गांव बसा हुआ है, जबकि आरजीआर-7 समाधि स्थल है। इनमें पूर्व हड़प्पा, उन्नत हड़प्पा तथा अंतिम काल के तीन प्रकार के अवशेष पाए गए हैं। इनकी कालावधि आज से 8,000 वर्ष पूर्व बताई जाती है। राखीगढ़ी का पुरातात्विक स्थल आज तक प्राप्त हड़प्पा संस्कृति के सभी स्थलों से विस्तृत है। वर्तमान में इन 11 टीलों का विस्तार 550 हेक्टेयर यानी 5.5 वर्ग किमी में है, जो पूर्व में खोजे गए स्थलों से बहुत बड़ा है।
अथर्ववेद के अनुसार, वैवस्वत मनु की परम्परा में वेन का पुत्र पृथ्वी राजा हुआ। उसने कृषि की और अन्न उत्पन्न किया। राखीगढ़ी का पूरा स्थल संपूर्ण भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्राप्त हड़प्पा संस्कृति के सपनों में सबसे अधिक विस्तृत है। यह आरंभ में एक छोटा कस्बा था परंतु कालांतर में विकसित होकर एक महानगर बन गया था।
2020 तक राखीगढ़ में केवल 5 प्रतिशत क्षेत्र में ही खुदाई कार्य संभव हो सका। डॉ. वसंत शिंदे तथा बीरबल साहनी प्रयोगशाला, लखनऊ के डॉ. नीरज कुमार द्वारा राखीगढ़ी से प्राप्त नर कंकालों के डीएनए जांच की रिपोर्ट जारी की गई, जिसके अनुसार वहां से प्राप्त कंकाल आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के हैं। अभी तक वहां से 61 कंकाल प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें चार पूर्ण अवस्था में हैं। इनमें दो पुरुष, एक महिला तथा एक बच्चे का कंकाल है। ये आरजीआर-7 से मिले हैं। शवों को भूमि में दबाने की यह परम्परा ऋग्वेद काल से ही प्रचलित है, जो राखीगढ़ी में भी पाई गई है। ऋग्वेद में लिखा है-
उच्छ्वञ्चस्व पृथिवि मा नि बाधथा: सूपायनास्मै भव सूपवञ्चना ।
माता पुत्रं यथा सिचाभ्येनं भूम ऊर्णुहि॥ (ऋ. 10.18.12)
हे भू माता! जिस प्रकार माता,पुत्र को आंचल से ढकती है,उसी प्रकार आप भी इसे सभी ओर से आच्छादित करें।
उच्छ्वञ्चमाना पृथिवी सु तिष्ठतु सहस्रं मित उप हि श्रयन्ताम्।
ते गृहासो घृतश्चुतो भवन्तु विश्वाहास्मै शरणा: सन्त्वत्र॥
(ऋ. 10.18.13)
इस मृतक देह को आच्छादित करने वाली धरती माता भली प्रकार स्थित हो तथा हजारों प्रकार के धूलिकण इसके ऊपर समर्पित करें।यह पृथ्वी घी की चिकनाई की भांति इसे आश्रय प्रदान करें।
राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल
इस समाधि स्थल पर मृतक के उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी दिखाई गई हैं। कालान्तर में उपयोगी वस्तुओं को मृतक के शव के पास रखने के स्थान पर इन्हें दान करने की परम्परा आरम्भ हो गई, जो सनातन समाज में अब भी प्रचलित है। इसका कारण पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव प्रकट करना भी है। इनके विश्लेषण से यह भी स्पष्ट हो गया है कि भारत तथा दक्षिण एशिया में बाहर से किसी के आने की कोई संभावना नहीं है और यह डीएनए भारतीयों का ही है। अत: आर्यों के बाहर से आकर भारत पर आक्रमण करने का सिद्धांत निराधार साबित हो गया है, जो वर्षों से अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा स्थापित किया जा रहा था। वैदिक संहिताओं से लेकर किसी भी संस्कृत ग्रंथ में जो हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म से संबंधित हैं, उनमें आर्यों के बाहर से आने का कोई संकेत नहीं मिलता। स्मृतियों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, आयुर्वेदिक ग्रंथों आदि में भी कहीं इसका विवरण नहीं है। ह्वेनसांग व फाह्यान जैसे यात्रियों ने भी आर्यों के भारत आने की बात नहीं कही।
उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों का डीएनए एक ही है। यह भ्रम अंग्रेज इतिहासकारों और उनके शिष्यों द्वारा भारत में उत्तर-दक्षिण का प्रश्न खड़ा करने के लिए फैलाया गया था। इसका निराकरण भी राखीगढ़ी की खोजों से हुआ है। राखीगढ़ी से प्राप्त उन्नत प्रकार की मिट्टी के बर्तन, अनेक धातुओं के प्रयोग की संभावनाएं तथा उच्च तकनीक विकसित होने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
इतिहास का एक प्रमुख आधार लोकगीत, लोक कथाएं तथा लोक संस्कृति होता है। इसमें भी आर्यों के बाहर से आने के कोई संकेत संदर्भ अथवा प्रमाण नहीं मिलते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि भोजन संग्रह की अवस्था से आधुनिक प्रकार के सामान के निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण रूप से भारतीय है और इसमें निरंतरता बनी हुई है। कृषि का आरंभ भारत में ही हुआ और इसमें ईरान से कृषि तकनीक आने की भी कोई संभावना नहीं है। प्राचीनतम विश्व ग्रंथ ऋग्वेद से भारत में उन्नत कृषि के प्रमाण मिलते हैं।
तस्या मनुर्वैवस्तो वत्स आसीत्, पृथिवी पात्रम्।
तां पृथी वैन्योऽधोक्तां कृषिं सस्यं चाधोक्॥
(अथ. 8.10.10)
अथर्ववेद के अनुसार, वैवस्वत मनु की परम्परा में वेन का पुत्र पृथ्वी राजा हुआ। उसने कृषि की और अन्न उत्पन्न किया। यह भी एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष है कि राखीगढ़ी का पूरा स्थल संपूर्ण भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्राप्त हड़प्पा संस्कृति के सपनों में सबसे अधिक विस्तृत है। यह आरंभ में एक छोटा कस्बा था परंतु कालांतर में विकसित होकर एक महानगर बन गया था। इससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों का डीएनए एक ही है। यह भ्रम अंग्रेज इतिहासकारों और उनके शिष्यों द्वारा भारत में उत्तर-दक्षिण का प्रश्न खड़ा करने के लिए फैलाया गया था। इसका निराकरण भी राखीगढ़ी की खोजों से हुआ है। राखीगढ़ी से प्राप्त उन्नत प्रकार की मिट्टी के बर्तन, अनेक धातुओं के प्रयोग की संभावनाएं तथा उच्च तकनीक विकसित होने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि हरियाणा प्रांत से ही भारतीय संस्कृति अपनी उच्चतम सीमा पर पहुंची है। अनेक बड़े स्थल सरस्वती नदी के तटों पर ही प्राप्त हुए हैं। यह बात भी गौरतलब है कि सभी बड़े स्थल जो हिंदू संस्कृति से मिलते-जुलते हैं, घग्घर नदी के पूर्वी भाग पर हैं। इनमें कालीबंगा, कुणाल बालू, विराना, बनावली तथा राखीगढ़ी शामिल है।
इन नगरों की वास्तुकला मिस्र और बेबीलोन से उच्च कोटि की थी। राखीगढ़ी और कैथल घग्घर नदी से लगभग 27 किमी दूर है। इन समाधि स्थलों के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि मृतक संस्कार वेदों में वर्णित पद्धति के अनुसार ही किए जाते थे। मानव सभ्यता के विकास क्रम की शुरुआत राखीगढ़ी से ही हुई। खुदाई से प्राप्त मकानों, नालियों, सड़क तथा भवन निर्माण कला से पता चलता है कि राखीगढ़ी उस समय का महानगर था और इसे आधुनिक तरीके से बसाया गया था। कृषि के विकास के प्रमाण ऋग्वैदिक सूक्तों से प्राप्त होते हैं। आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि और व्यापार था। वैदिक काल से ही भारत में भौतिकवादी, यथार्थवादी, सर्वात्मवादी, भाववादी विचारों का सम्मिलित प्रवाह निरन्तर बना हुआ है।
इन विवरणों से स्पष्ट है कि भारत तथा हरियाणा के इतिहास में अतिशीघ्र परिवर्तन तथा पुन:लेखन की आवश्यकता है, क्योंकि
1. भारतीय इतिहास के कालक्रम में परिवर्तन अनिवार्य है।
2. आर्यों के बाहर से आने की अवधारणा को निरस्त करने की आवश्यकता है।
3. भारत में कृषि के ज्ञान व तकनीक तथा इसके स्थानीय होने के विषय में नए तथ्य प्रकाशित होते हैं।
4. सरस्वती नदी की वैदिक परम्परा पर पुन: गहन दृष्टि की आवश्यकता है, क्योंकि हरियाणा में प्राप्त सभी पुरास्थल घग्गर नदी के पूर्वी तटों पर पाए गए है। घग्गर नदी सरस्वती का ही रूपान्तरण है।
(लेखक चौ. बंसीलाल विवि, भिवानी में इतिहास विभाग के विजिटिंग फैकल्टी हैं)
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