भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवदगीता में कहते हैं- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ अर्थात जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब-तब दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए मैं स्वयं विविध रूपों में अवतरित होता हूं। भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में एक अद्भुत अवतार है- नृसिंह अवतार जो उन्होंने परम भक्त बालक प्रहलाद की उसके पिता के अत्याचारों से रक्षा के लिए वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को लिया था। इसीलिए इस तिथि को हिंदू धर्मावलम्बियों द्वारा नृसिंह जयंती के रूप में श्रद्धा भाव से मनाया जाता है।
पौराणिक कथानक के अनुसार सतयुग में कश्यप ऋषि की पत्नी दिति ने दो पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु को जन्म दिया था। शक्ति के मद में चूर होकर हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को रसातल में डुबो दिया था तो भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को मुक्त किया था। हिरण्यकश्यपु ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए कठोर तप करके ब्रह्माजी से एक अनोखा वरदान प्राप्त कर लिया। यह वरदान था कि वह न किसी देवता के हाथों मरे, न मनुष्य व पशु से। न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरे और न दिन में, न रात में, न जल में, न थल में और न ही नभ में। इस अनूठे वरदान ने हिरण्यकश्यपु को अजेय बना दिया। स्वर्ग पर अधिकार कर वह खुद को भगवान समझने लगा किन्तु उसका अपना पुत्र प्रहलाद राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी भगवान विष्णु का परम भक्त था। पुत्र को विष्णु भक्ति के मार्ग से हटाने के लिए हिरण्यकश्यपु ने उसे घोर यातनाएं दीं लेकिन प्रहलाद भक्तिपथ से जरा भी विचलित नहीं हुआ। हिरण्यकश्यपु ने उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिंदा जलाने का प्रयास किया, लेकिन प्रहलाद का बालबांका भी न हुआ। इस घटना ने हिरण्यकश्यपु को भीषण क्रोध दिला दिया और उसने आगबबूला होकर पुत्र से पूछा- बता कहां है तेरा भगवान? प्रहलाद सहजता से बोला- वे तो सृष्टि के कण कण में व्याप्त हैं। इस पर क्रोध में विफरते हुए हिरण्यकश्यपु ने कहा- बता! क्या तेरा भगवान इस खंभे में भी है? प्रह्लाद के हां कहते ही ज्यों ही हिरण्यकश्यपु ने उस खंभे पर प्रहार किया, तत्क्षण उस खंभे को चीर नृसिंह भगवान वहां प्रकट हो गये। उनका आधा शरीर सिंह और आधा नर का। वे हिरण्यकश्यपु को पकड़ कर घर की दहलीज पर ले गये और उसे अपने पैरों पर लिटाकर अपने तेज नाखूनों से पेट फाड़ कर उसका वध कर दिया। उस समय न दिन था न रात, वह गोधूलि बेला थी।
लोकमान्यता है कि वह टूटा हुआ खंभा आज भी मौजूद है। कहते हैं कि बिहार के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में वह स्थान मौजूद है जहां असुर हिरण्यकश्यपु का वध हुआ था। हिरण्यकश्यपु के सिकलीगढ़ स्थित किले में भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए एक खम्भे से भगवान विष्णु का नृसिंह अवतार हुआ था, वह खम्भा आज भी वहां मौजूद है, जिसे ‘माणिक्य स्तम्भ’ कहा जाता है। कहा जाता है कि इस स्तम्भ को कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया, लेकिन टूटा नहीं। इस खंभे से कुछ दूरी पर ही हिरन नामक नदी भी बहती है।
नृसिंह अवतार के तत्वदर्शन पर विचार करें तो इस कथा प्रसंग में हिरण्यकश्यपु अहंकार से भरी बुराई का प्रतीक है, प्रह्लाद विश्वास से भरी भक्ति का और दुष्ट हिरण्यकश्यपु का वध करने वाले भगवान नृसिंह भक्त के प्रति अनन्य प्रेम के प्रतीक हैं। यह हम पर है कि हम अपने जीवन को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? यदि इसे अहंकार और बुराई की ओर ले जायेंगे तो निश्चित ही अंत बुरा होगा। जबकि प्रह्लाद जैसी आस्था व विश्वास का रास्ता भगवान तक ले जाएगा। ईश्वर के प्रति अटूट भक्ति से अंतस के विकारों, आसक्तियों को जीतने की शक्ति मन में आती है और ईश्वरीय प्रेम का महाप्रसाद जीवन को सार्थक कर देता है।
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