पत्र-पत्रिकाओं को समाज का दर्पण माना जाता है। समाज इनसे बहुत कुछ सीखता है, लेकिन अब कुछ ऐसी पत्रिकाएं छप रही हैं, जो समाज में अश्लीलता फैला रही हैं। यह सब उस प्रगतिशीलता के नाम पर हो रहा है, जिसे इस तरह के लेख लिखने वाले भी निजी जीवन में स्वीकार नहीं करते। इसके बावजूद कुछ लोग धड़ल्ले से ऐसी सामग्री परोस रहे हैं, जो भारतीय संस्कृति यहां तक कि भारत के विरोध में होती है। यही नहीं, कुछ पत्रिकाएं एक विशेष विचार की सरकार के प्रति विद्रोह करना सिखा रही हैं और परिवार के ताने-बाने को तोड़ने में भूमिका निभा रही हैं।
हम ‘गृहशोभा’,‘सरिता’ आदि को ऐसी पत्रिकाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। दिल्ली प्रेस इन पत्रिकाओं की प्रकाशक है। यहां से कई पत्रिकाएं नियमित प्रकाशित ही नहीं हो रही हैं, बल्कि इस दावे के साथ प्रकाशित हो रही हैं कि वे पिछड़ेपन और छुआछूत आदि के खिलाफ जनता को जागरूक कर रही हैं। परंतु सच तो यह है कि दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएं बचपन से ही बच्चों के दिमाग में जहर भरने का कार्य करती हैं।
चंपक की गंदी सोच
इसका आरंभ हम ‘चंपक’ से करेंगे कि कैसे उसने उस मामले पर हमारे बच्चों को भ्रमित करने का प्रयास किया, जो देश की सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय संबंधों से जुड़ा है। यह मामला है कश्मीर। हम सभी को वह ऐतिहासिक दिन स्मरण है जिस दिन 70 साल से चली आ रही कश्मीर के प्रति एक तुष्टीकरण की नीति पर प्रहार किया गया था, और अनुच्छेद 370 को हटाकर उसे भारत का अभिन्न अंग बनाया गया था।
2019 में ‘चंपक’ ने अक्तूबर के अपने अंक में बच्चों के मन में सरकार के प्रति विष भरने एवं आतंक के प्रति प्रेम भरने का कार्य करते हुए एक विशेष ‘कथा’ छापी। इसमें लिखा था कि कैसे वहां के लोगों को भूख का सामना करना पड़ रहा है, कैसे लोगों को बिना काम के रहना पड़ रहा है और कैसे बाहर के लोग आ नहीं रहे हैं आदि, आदि! परन्तु आतंकवाद की आड़ में वहां क्या हो रहा है, कश्मीरी हिंदुओं के साथ कैसे अत्याचार हुए, इन पर कुछ भी नहीं लिखा गया। यही नहीं, पत्रिका ने बच्चों को सरकार के विरोध में भड़काते हुए लिखा, ‘‘कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त किए जाने के बाद घाटी में स्थिति ठीक नहीं है।
हजारों सैनिकों और सेना की बटालियनों को कश्मीर भेजा गया है और जगह-जगह कर्फ्यू लगा हुआ है। यहां तक कि टेलीफोन लाइनों और इंटरनेट सेवाओं को भी निलंबित कर दिया गया है।’’ इसके बाद फरवरी, 2022 के अंक में ऐसे व्यंग्यचित्र छापे गए, जो कश्मीरी हिंदुओं के प्रति बच्चों के मन में विष घोलते हैं। इसमें पूजा कराने वाले ब्राह्मण को पहले तो सूअर के रूप में दिखाया और फिर कामचोर के रूप में। यह भी कहा गया कि वे केवल पैसे के लिए काम करते हैं। यह पत्रिका कभी भी बच्चों को पादरियों और मौलवियों द्वारा किए गए असंख्य यौन शोषणों के विषय में नहीं बताती। कुछ समय पहले कनाडा में न जाने कितने बच्चों की हड्डियां मिली थीं, जो मजहबी नफरत का शिकार हुए थे। पर इसके बारे में इस पत्रिका
ने कुछ नहीं लिखा।
अश्लीलता का प्रसार
दिल्ली प्रेस की एक अन्य पत्रिका ‘गृहशोभा’ ने तो अश्लीलता फैलाने में सारी सीमा पार कर दी है। ‘सरिता’ भी इसी प्रेस की पत्रिका है। ये दोनोें बड़ी लोकप्रिय पत्रिकाएं हैं, लेकिन हिंदूद्वेषी भी हैं। ऐसा माना जाता है कि दिल्ली प्रेस के मालिक हिंदू परम्पराओं, रीति-रिवाजों आदि के घोर विरोधी हैं। माना जाता है कि उन्होंने महिलाओं को कथित छुआछूत, अंधविश्वास आदि से मुक्त कराने के लिए ही दिल्ली प्रेस को शुरू किया है। परन्तु वे कौन से अंधविश्वासों से मुक्त कराने की बात करते हैं, यह ध्यान देने योग्य है।
ऐसा लगता है कि उन्होंने हिंदू धर्म के सामान्य कर्मकांडों, अनुष्ठानों, धर्मग्रंथों को ही पिछड़ा मान लिया है। उनके हर संपादकीय में जमकर जहर उगला जाता है। ‘गृहशोभा’ में महिलाओं को हमेशा ‘औरत’ ही लिखा जाता है। ‘औरत’ अरबी मूल का शब्द है और इसका अर्थ होता है- प्राइवेट पार्ट/यौनांग, जिसे छिपाकर रखा जाना चाहिए। यानी ‘गृहशोभा’ जैसी पत्रिकाएं पहले ही हिंदू महिलाओं को उस स्तर तक नीचे ले आ आती हैं, जहां पर महिला, नारी ही नहीं रहती, स्त्री की तो बात ही छोड़ दी जाए।
फरवरी, 2022 के संपादकीय में हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म संसद’ और यति नरसिम्हानंद को जम कर कोसा गया है। लिखा है, ‘‘हर धर्म में सबसे बड़ी ग्राहक औरतें होती हैं।’’
शब्दों की बाजीगरी
‘गृहशोभा’ जैसी पत्रिकाओं में जान-बूझकर शब्दों की बाजीगरी इस प्रकार से की जाती है कि मुस्लिम और ईसाई जैसे अब्राहमिक रिलिजन की बुराई भी हिंदू धर्म के साथ जोड़ दी जाए। धर्म शब्द सुनते ही हिन्दू धर्म का स्मरण होता है और मजहब सुनते ही मुस्लिमों का! फरवरी के संपादकीय में यह भी लिखा गया था, ‘‘औरतों को पैदा होते ही पट्टी पढ़ा दी जाती है कि उन्हें जो मिल रहा है, वह पूजा-पाठ के कारण ही मिल रहा है और फिर लिखा है कि धर्म औरतों को बराबरी नहीं दे पाया!’’
‘गृहशोभा’ के एक अंक में यह बात आई कि यदि शादी के बाद भी प्रेमी से गर्भ ठहर जाए तो क्या करना चाहिए? फिर इसमें तरह तरह के उपाय हैं कि कैसे सास से बचा जाए, आप क्या कह कर गर्भपात के लिए घर से निकलेंगी, और क्या कहेंगी कि आप कहां जा रही हैं?
हमारे यहां बारिश कराने के लिए औरतों को नंगा करके उनसे हल चलवाकर इंद्र देवता को खुश करने के काम भी धर्म के इशारों पर होते हैं।’’ फिर लिखा गया है, ‘‘अहिल्या को पत्थर बनना पड़ा था!’’ जबकि महर्षि वाल्मीकि स्पष्ट लिखते हैं कि अहिल्या ने जान-बूझकर इंद्र से संबंध बनाए थे और वह शिला सम हुई थीं, शिला नहीं! परन्तु वामपंथी भावार्थ पर नहीं, बल्कि शब्दार्थ पर अधिक जोर देते हैं और हिंदू धर्म की अपने अनुसार व्याख्या करते हैं। हालांकि शीर्षक बहुत ही लुभाने वाले देते हैं कि समाज नियमों से चलता है, धर्म से नहीं, तो कौन से नियम? नियम कौन निर्धारित करेगा? इस पर मौन हैं! कुछ दिन पहले ‘गृहशोभा’ में एक लेख आया था, जो व्यभिचार की हर सीमा पार करता था। हालांकि पहले भी ‘गृहशोभा’ में ‘लॉकडाउन में सेक्स’, ‘लॉकडाउन में कोरोना संक्रमण के दौरान सेफ सेक्स कैसे करें’ जैसे लेख छपे थे। यही कारण है कि मात्र सेक्स-सेक्स की रट लगाते रहने से लॉकडाउन के दौरान एड्स के मामलों में भी वृद्धि हुई है। हाल ही में एक आरटीआई में पता चला है कि जब देश कोरोना के संक्रमण से जूझ रहा था तो देश के अलग-अलग राज्यों में 85,000 से अधिक लोग एड्स के शिकार हो गए थे, जो असुरक्षित यौन संबंधों के कारण हुए थे। परंतु ‘गृहशोभा’ बताती है कि असुरक्षित यौन संबंधों के कारण कभी शादीशुदा महिला का गर्भ प्रेमी से ठहर जाए तो क्या किया जाए?
परिवार व्यवस्था पर प्रहार
विवाह संस्था के कुछ आधार होते हैं। उनमें सबसे बड़ा आधार जीवन साथी की परस्पर एक-दूसरे के प्रति निष्ठा और समर्पण ही होता है। और जब यह निष्ठा और समर्पण टूटता है तो विवाह टूट जाता है। बच्चे परस्पर विश्वास का ही नाम होते हैं। परंतु ‘गृहशोभा’ जैसी पत्रिकाएं धर्म के नाम पर तो हिंदू महिलाओं पर प्रहार करती ही हैं, साथ ही वह परिवार जो कि राष्ट्र की प्रथम इकाई है, उस पर भी प्रहार कर रही हैं।
‘गृहशोभा’ के एक अंक में यह बात आई कि यदि शादी के बाद भी प्रेमी से गर्भ ठहर जाए तो क्या करना चाहिए? फिर इसमें तरह तरह के उपाय हैं कि कैसे सास से बचा जाए, आप क्या कह कर गर्भपात के लिए घर से निकलेंगी, और क्या कहेंगी कि आप कहां जा रही हैं? तबियत कैसे छिपाएंगी? एक-दो दिन ‘बेडरेस्ट’ कैसे करेंगी? आदि आदि! गर्भपात कैसे कराएं, मेडिकली या सर्जिकली! और भी तमाम बातें हैं कि कैसे अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं करना है और आराम करना है।
सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या धर्म और परिवार के खिलाफ ये पत्रिकाएं ऐसे ही लिखती रहेंगी? क्या इन पत्रिकाओं के पास ‘विमर्श’ के नाम पर यह ताकत हमेशा रहेगी कि सरकार द्वारा उठाए गए हर सही कदम का विरोध मात्र इस आधार पर करें कि यह सरकार उनके राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करती? रूस और यूक्रेन का युद्ध ऐसा मामला है, जिसमें भारत सरकार का पक्ष अभी तक सबसे संतुलित रहा है। उसके विषय में भी ये पत्रिकाएं लिखती हैं कि भारत शक्तिशाली देश रूस के साथ जाकर खड़ा हो गया है! इन्हें किसने यह अधिकार दिया और कौन ऐसा विदेश नीति विशेषज्ञ है जो आम लोगों को भड़का रहा है?
इतना ही नहीं, अभी हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व सुधार का कदम उठाया गया है। सभी स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है। यह कई शिक्षाविदों की दृष्टि में उचित कदम है और सरकार ने बहुत सोच-समझकर ही यह कदम उठाया है। फिर भी ‘सरिता’ जैसी पत्रिका ने इस कदम का विरोध करते हुए इसे पिछड़ा विरोधी बताया और इसके लिए भी एकलव्य और कर्ण का उदाहरण देते हुए हिंदू धर्मग्रंथों को दोषी ठहराया है। अप्रैल महीने की ‘सरिता’ में एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है, ‘‘सीयूटीआई परीक्षा : पिछड़ों पर भारी, ऊंचों की चतुराई।’’ इस लेख का उद्देश्य है समाज को भटकाना और भड़काना, वह भी गलत तथ्यों के आधार पर।
आप हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्म, भारत और भारतीयता के विरोध में देते हैं, उसका एक प्रतिशत कुतर्क उन लोगों के विरोध में क्यों नहीं रखते, जो महिलाओं को इबादत के समय भी समानता का दर्जा नहीं देते? यही नहीं, तीन बार तलाक, तलाक, तलाक बोलकर अपनी बीवी को सड़क पर ला देने वालों का आप विरोध क्यों नहीं करते?
आप हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्म, भारत और भारतीयता के विरोध में देते हैं, उसका एक प्रतिशत कुतर्क उन लोगों के विरोध में क्यों नहीं रखते, जो महिलाओं को इबादत के समय भी समानता का दर्जा नहीं देते? यही नहीं, तीन बार तलाक, तलाक, तलाक बोलकर अपनी बीवी को सड़क पर ला देने वालों का आप विरोध क्यों नहीं करते?
जब भी एकलव्य की बात होती है तो उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात को भुला दिया जाता है, जिसे इस समय ‘कॉपीराईट’ कहा जाता है। क्या द्रोणाचार्य एक राज्य द्वारा नियुक्त आचार्य नहीं थे, जिनका कार्य उस राज्य के राजकुमारों को दीक्षा देना था? क्या आज के समय में किसी विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा और शुल्क दिए बिना डिग्री मिल सकती है? और क्या अपने मन से किसी भी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया जा सकता है? यदि नहीं तो जातीय आधार कैसे हुआ?
पारिवारिक प्रतिष्ठा का कया होगा?
और फिर कर्ण का नाम है! क्या महाभारत में यह नहीं लिखा है कि कर्ण ने भी द्रोण के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी? जिस कर्ण को ‘सरिता’ ने अपनी घृणा का शिकार बनाकर ‘शूद्र’ बताया है, उसे बार-बार महाभारत में उच्च स्थान दिया गया है। यहां तक कि द्रोणाचार्य ने भी उसके साथ अन्याय नहीं किया था, बल्कि कर्ण स्वयं ही अर्जुन के प्रति विषाद से भरा हुआ था।
‘गृहशोभा’ यह नहीं बताती कि यदि प्रेमी के साथ संबंध बनाने से एड्स आदि जैसे रोग हुए तो क्या होगा? ‘औरत’ यदि इस प्रकार के अनैतिक कार्य करते हुए पकड़ी जाए तो पारिवारिक प्रतिष्ठा का क्या होगा? वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न बच्चों को इस सत्य का भान होगा तो क्या होगा?
इन सभी प्रश्नों पर ‘गृहशोभा’, ‘सरिता’, ‘चंपक’ के कर्ताधर्ता मौन हैं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि जितने कुतर्क आप हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्म, भारत और भारतीयता के विरोध में देते हैं, उसका एक प्रतिशत कुतर्क उन लोगों के विरोध में क्यों नहीं रखते, जो महिलाओं को इबादत के समय भी समानता का दर्जा नहीं देते? यही नहीं, तीन बार तलाक, तलाक, तलाक बोलकर अपनी बीवी को सड़क पर ला देने वालों का आप विरोध क्यों नहीं करते? पता है, ऐसे प्रश्नों का उत्तर ये कभी नहीं देंगे। फिर भी इनसे प्रश्न तो पूछे ही जाएंगे। हां, उस दिन प्रश्न नहीं पूछेंगे जिस दिन आप किसी की मान्यताओं पर अंगुली नहीं उठाएंगे, मान-बिंदुओं पर चोट नहीं करेंगे।
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