एक बार अमेरिका में कुछ पत्रकारों ने स्वामी विवेकानन्द से भारत की नदियों के बारे में प्रश्न पूछा- आपके देश में किस नदी का जल सबसे अच्छा है? स्वामीजी बोले- यमुना। इस पर उस पत्रकार ने विस्मय से कहा- पर आपके देशवासी तो बोलते हैं कि गंगा का जल सबसे अच्छा है। स्वामी जी का उत्तर था,‘‘कौन कहता है गंगा नदी है? गंगा तो हमारी माँ हैं। जीवनदायिनी माँ की तरह वे हमारी भारतभूमि के सभी जड़ चेतन प्राणियों एवं वनस्पतियों का भरण पोषण करती हैं।” गंगा के प्रति स्वामी जी के यह श्रद्धा भरे उद्गार आज भी सनातन जीवन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर भावनाशील भारतीय को आह्लादित व अनुप्राणित करते हैं। गंगा हिंदू सभ्यता और संस्कृति की सबसे अनमोल धरोहर है। हमारे महान ऋषिओं की गहन तप साधना से जागृत गंगा तटों पर ही रामायण और महाभारत जैसी दिव्य सभ्यताओं का उद्भव और विकास हुआ। वेद-पुराण, श्रुति, उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक जैसे ज्ञान के अनमोल खजाने मां गंगा की दिव्य गोद में ही सृजित हुए।
पावन गंगा के तटों पर आश्रम विकसित कर हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के द्वारा नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित समूचे जीवजगत के साथ सहअस्तित्व की अद्भुत अवधारणा विकसित की। सनातनधर्मियों कि प्रगाढ़ आस्था है कि कलिमलहारिणी गंगा मैया के निर्मल जल में स्नान से सारे पाप सहज ही धुल जाते हैं और यदि जीवन के अंतिम क्षण में मुंह में दो बूंद गंगाजल डाल दिया जाए तो बैकुंठ मिल जाता है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने गंगा को भारत की सुषुम्ना नाड़ी की संज्ञा दी है। कवि कुमार विश्वास ने अपनी कविता में सच ही लिखा है कि गंगा केवल एक नदी नहीं अपितु भारत की सांस्कृतिक महारेखा है जिसके चारों ओर हमारा भारत जीता है।
हमारे धर्मशास्त्रों में माँ गंगा की उत्पत्ति के बारे में कई रोचक कथानक मिलते हैं। एक कथा कहती है कि माँ गंगा का जन्म भगवान विष्णु के पैर के पसीनें की बूंदों से हुआ जिसे भगवान ब्रह्मा ने अपने कमंडल में ग्रहण किया। गंगा की उत्पत्ति से जुड़ा एक अन्य रुचिकर प्रसंग यह भी है कि एक बार ब्रह्मलोक में आनंद नृत्य करते हुए राधा-कृष्ण थककर चूर हो गये। उनका पूरा शरीर पसीने से तर ब तर हो गया। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन श्वेद बिन्दुओं को अपने कमंडल में भर लिया और उसी से गंगा का जन्म हुआ। वह शुभ तिथि बैशाख शुक्ल सप्तमी थी। गंगोत्पत्ति से जुड़ी सर्वाधिक लोकप्रिय कथा के मुताबिक भगवान विष्णु द्वारा वामन रूप में राक्षसराज बलि से त्रिलोक को मुक्त करने की खुशी में ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण धोए और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया। इसी जल से गंगा का जन्म हुआ और वे स्वर्ग नदी के रूप में देवलोक को तृप्त करने लगीं। शास्त्र कहते हैं कि जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई और वे स्वर्गलोक से भगवान शिव के शीश पर उतरीं थीं; वह शुभ दिन गंगा जयंती (बैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन मां गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ, वह दिन “गंगा दशहरा” (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है। ‘‘गंगा लहरी’’ में उल्लेख मिलता है कि देव नदी गंगा अपनी तीन मूल धाराओं भागीरथी, मन्दाकिनी और भोगावती के रूप में क्रमशः धरती (मृत्युलोक), आकाश (देवलोक) व रसातल (पाताल लोक) को अभिसिंचित करती हैं।
सम्राट चन्द्गुप्त मौर्य के समय भारत आये यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के यात्रा वृत्रांत ‘‘इंडिका’’ में भी भारतवासियों के मन में गंगा के प्रति गहन श्रद्धा का विस्तृत वर्णन मिलता है। दो हजार साल पहले भारत आया यह विदेशी विद्वान लिखता है कि सत्यता व शुद्धता का प्रमाण देने के लिए भारतवासी गंगा की सौगंध लिया करते थे। इसी तरह जापान के वैज्ञानिक डॉ. मसारू ईमोटो गंगाजल की अलौकिक महिमा के बारे में जान कर इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने रामायण में उल्लेखित श्राप की घटनाओं को अपनी शोध का विषय बना लिया था। डॉ. ईमोटो के शोध का विषय था-‘‘पानी के सोचने समझने की क्षमता’’। डॉ. मसारू गंगाजल की उस क्षमता को जानना चाहते थे जिसे हमारे ऋषि मुनि हथेली में लेकर संकल्प लेते थे या श्राप दे दिया करते थे।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि प्रकृति के साथ स्नेहिल दृष्टि से आबद्ध ऋषि संस्कृति का वह तानाबाना आज़ादी के बाद देश में हुए अनियोजित व अनियंत्रित विकास और अंधाधुंध औद्योगिकीकरण के कारण तेजी से दरकता चला गया। हम भारतवासी आज यह भूल गए हैं कि माँ गंगा हमारे लिए देवलोक का वह महाप्रसाद है जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के वंशज राजा भगीरथ के महापुरुषार्थ से हमें प्राप्त हुआ। कोरोना आपत्तिकाल का प्रथम चरण मोक्षदायिनी गंगा के लिए वरदान साबित हुआ था। लॉकडाउन की वजह से इंसानी गतिविधियां बंद होने से गंगाजल की गुणवत्ता में काफी सुधार देखा गया था।
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