शास्त्र और शस्त्र के अनूठे समन्वयक

अक्षय तृतीया की पावन तिथि को इस धराधाम पर अवतरित भगवान परशुराम ऐसी अमर विभूति हैं, जिनके प्रतिपादित सिद्धांत आज भी अपनी प्रासंगिकता रखते हैं। भगवान परशुराम की मान्यता थी कि स्वस्थ समाज की संरचना के लिए ब्रह्मशक्ति और शस्त्र शक्ति दोनों का समन्वय आवश्यक है।

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पूनम नेगी

अक्षय तृतीया की पावन तिथि को इस धराधाम पर अवतरित भगवान परशुराम ऐसी अमर विभूति हैं, जिनके प्रतिपादित सिद्धांत आज भी अपनी प्रासंगिकता रखते हैं। भगवान परशुराम की मान्यता थी कि स्वस्थ समाज की संरचना के लिए ब्रह्मशक्ति और शस्त्र शक्ति दोनों का समन्वय आवश्यक है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सनातन हिन्दू धर्म के अष्ट चिरंजीवियों (अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय) में महर्षि परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है।

भृगुकुल शिरोमणि परशुराम जी ऋषियों के ओज और क्षत्रियों के तेज दोनों का अद्भुत संगम माने जाते हैं, क्योंकि ब्राह्मण कुल में जन्मे पिता ऋषि जमदग्नि व क्षत्रिय कुल की राजकन्या माता रेणुका दोनों ही विलक्षण गुणों से सम्पन्न थे। जहां जमदग्नि जी को आग पर नियंत्रण पाने का वरदान प्राप्त था, वहीं माता रेणुका को पानी पर नियंत्रण पाने का। माँ व पिता दोनों के इन दैवीय गुणों के साथ ऋषि दम्पति की पांचवी संतान के रूप में बैसाख माह की पावन अक्षय तृतीया तिथि को परशुराम का जन्म हुआ। बहुत कम आयु में उन्होंने पिता से धनुर्विद्या सीख ली थी। उनका बचपन का नाम राम था जो कलान्तर में महादेव से परशु प्राप्त होने के बाद परशुराम हो गया। कथानक है कि महादेव शिव के प्रति विशेष श्रद्धा भाव के चलते एक बार बालक राम भगवान शंकर की आराधना करने कैलास जा पहुंचे। वहां देवाधिदेव महादेव ने उनकी भक्ति और शक्ति की परीक्षा लेकर उन्हें उपहार स्वरूप अनेक अस्त्र-शस्त्रों सहित दिव्य परशु भी प्रदान किया। उस अमोघ परशु धारण करने के बाद बालक राम “परशुराम” ने नाम से विख्यात हो गये। दक्षिण भारत की लोककथाओं में उल्लेख मिलता है कि परशुराम जी पशु-पक्षियों की भाषा व उनके व्यवहार समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। इसी कारण खूंखार वन्य जीव उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।

परशुराम जी का समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से भरा हुआ है। वे न सिर्फ ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में पारंगत थे अपितु योग, वेद और नीति तथा तंत्र कर्म में भी निष्णात थे। इन्हें श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का प्रतिष्ठाता माना गया है। उनकी मान्यता थी कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है न कि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। अन्याय के विरुद्ध आवेशपूर्ण आक्रामकता के विशिष्ट गुण के कारण उन्हें भगवान विष्णु के ‘आवेशावतार’ की संज्ञा दी गयी है। दुनिया भर में शस्त्रविद्या के महान गुरु के नाम से विख्यात भगवान परशुराम ने महाभारत युग में भी अपने ज्ञान से कई महारथियों को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। उन्होंने भीष्म पितामाह, द्रोणाचार्य व कर्ण को भी विद्या देकर एक महान योद्धा बनाया था। शस्त्र विद्या के इस महारथी को केरल की मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली ‘वदक्कन कलरी’ का संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु माना जाता है। वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है।

जिस प्रकार देवनदी गंगा को धरती पर लाने का श्रेय राजा भगीरथ को जाता है ठीक उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुंड (परशुराम कुंड) से और फिर लौहकुंड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को धरती पर लाने का श्रेय परशुराम जी को ही जाता है। इसी तरह अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से वे गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को धरती पर लाये थे। पौराणिक उद्धरणों के अनुसार केरल, कन्याकुमारी व रामेश्वरम की संस्थापना भगवान परशुराम ने ही की थी। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की थी, वह स्थान आज तिरुवनंतपुरम के नाम से प्रसिद्ध है। केरल में आज भी पुरोहित वर्ग संकल्प मंत्र में परशुराम क्षेत्र का उच्चारण कर उक्त समूचे क्षेत्र को परशुराम की धरती की मान्यता देता है। गोमांतक (गोवा) को भी परशुराम जी का कार्य क्षेत्र कहा जाता है। ब्राह्मण की परंपरा के अनुसार परशुराम जी बिहार के तिरहुत से दस परिवारों को लेकर आए और उन्हें आधुनिक गोवा के नाम से मशहूर गोकर्ण में बसाया था।

हिमालय में फूलों की घाटी मुनस्यारी को बसाने का श्रेय भी परशुराम जी को ही जाता है। यही नहीं, हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाने वाली कांवड़ यात्रा का शुभारंभ परशुराम जी ने सबसे पहले शिवजी को कांवड़ से जल चढ़ाकर किया था। गौरतलब हो कि “अंत्योदय” की बुनियाद भी परशुराम जी ने ही डाली थी। समाज सुधार और समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग को कृषिकर्म से जोड़कर उन्हें स्वावलंबन का पाठ पढ़ाने में भी परशुराम जी की महती भूमिका रही है। अपने पितामह महर्षि ऋचीक के कहने पर उन्होंने केरल, कोंकण मालाबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी।

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