पुराणों के अनुसार भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार हैं। अधर्म के विनाश तथा धर्म की संस्थापना के लिए उन्होंने अपने फरसे से निरंकुश, अत्याचारी राजा सहस्रबाहु अर्जुन की भुजाओं को काट दिया था। किसी अकेले व्यक्ति द्वारा एक हजार अंगरक्षक भुजाओं से संघर्ष कर उनको छिन्न-भिन्न कर देना ऐसा पराक्रम है जो दिव्य शक्ति के बिना संभव नहीं था। अपने युग के सर्वाधिक बलशाली और अन्यायी राजा के उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के कारण परशुराम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में प्रसिद्धि मिली।
अधर्म एवं अत्याचार के विरुद्ध भगवान परशुराम की यह सशस्त्र क्रांति तब तक चलती रही, जब तक सहस्रार्जुन का एक भी सहयोगी धरती के किसी भी कोने पर जीवित बचा रहा। प्रजापीड़क शासकों और राजपुरुषों का अनेक चरणों में, जिसे पुराणों में 21 बार कहा गया है, वध करने के उपरांत उन्होंने भारत के पूर्वांचल की पूर्ण नदी में रक्तरंजित फरसे को धोया और महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गए। महेंद पर्वत वर्तमान ओडिसा प्रांत में स्थित है। यह प्रसंग भारतीय भू-भाग की एकसूत्रता और अखंडित राष्ट्रभाव का द्योतक है।
महाभारत के खिल अध्याय हरिवंश पर्व में वेदव्यास ने परशुराम का विवरण इस प्रकार दिया है-
भूयश्च जामदग्न्योऽयम् प्रादुर्भावो महात्मन:।
यत्र बाहुसहस्रेण विस्मितं दुर्जये रणे।।
रामोऽर्जुनमनीकस्थं जघान: नृपतिं प्रभु:।।112।।
कृत्स्नं बाहुसहस्रं च चिच्छेद भृगुनन्दन:।
परश्वधेन दीप्तेन ज्ञातिभि: सहितस्य वै।।114।।
कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा:।
त्रि:सप्त कृत्व: पृथिवी तेन नि:क्षत्रिया कृता।। 115।।
(अध्याय 41, हरिवंश पर्व, महाभारत खिलाध्याय)
अर्थात् भगवान विष्णु का परशुराम के रूप में अवतार हुआ। इन्होंने सेना के बीच में खड़े उस राजा अर्जुन का वध किया, जो अपनी सहस्र भुजाओं के कारण घमंड से भरा रहता था और समरांगण में शत्रुओं के लिए दुर्जेय बना हुआ था। राजा अर्जुन रथ पर बैठा था, परन्तु परशुराम जी ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसकी छाती पर चढ़कर अपने चमकते हुए फरसे से उसकी सहस्र भुजाएं काट डालीं। उन्होंने मेरुपर्वत और मंदराचल से विभूषित धरती पर करोड़ों क्षत्रियों की लाशें बिछा दीं और 21 बार भूतल को क्षत्रियों से विहीन कर दिया।
परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संहार को लेकर लोकमानस में कुछ भ्रान्तियां हैं, जिनका निराकरण बहुत आवश्यक है। ध्यान देने की बात यह है कि उक्त वर्णन में ‘कीर्णा क्षत्रियकोटीभि: मेरुमन्दरभूषणा:’ कहा गया है। अर्थात् परशुराम ने मेरु-मंदर क्षेत्र को अलंकृत करने वाले क्षत्रियों का 21 बार संहार कर धरती को उनसे नि:शेष कर दिया। यहां यह स्पष्ट है कि यह बात संपूर्ण पृथ्वी के लिए नहीं, अपितु एक भू-भाग विशेष के लिए कही गई है। इसका तात्पर्य उस समूचे भूखंड को हैहय क्षत्रिय वंश से शून्य कर देना है, जो मेरु पर्वत से लेकर मंदराचल तक व्याप्त था।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसके उपरांत परशुराम ने प्रायश्चित स्वरूप अश्वमेध यज्ञ कर संपूर्ण भू-भाग कश्यप ऋषि को दान कर दिया। वरुण से प्राप्त रथ, घोड़े, हाथी, गौ, स्वर्ण आदि कोई संपदा उन्होंने अपने पास नहीं रखी। वे सर्वस्व दान कर लोकहित में तपस्या करने महेंद्र पर्वत पर चले गए। यथा-
तस्मिन् यज्ञे महादाने दक्षिणाम् भृगुनन्दन:।
मारीचाय ददौ प्रीत: कश्यपाय वसुन्धराम्।।116।।
(अध्याय 41, हरिवंश पर्व, महाभारत खिलाध्याय)
परशुराम ब्रह्मकुल में उत्पन्न हुए थे। युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत वे स्वयं तो सत्ता से दूर रहे ही, अपने प्रियजनों, परिजनों को भी सत्ता नहीं सौंपी। वे सत्ता, पद-प्रतिष्ठा, सुख-वैभव और भौतिक महत्वाकांक्षाओं से कोसों दूर रहने वाले एक सच्चे तपस्वी ब्राह्मण थे। दीर्घकाल तक तपस्या में रत रहने के बाद परशुराम दृश्यपटल पर एक लंबे अंतराल बाद तब अवतरित होते हैं, जब अत्याचारी राक्षसों का संहार करने के लिए पुन: एक युगप्रवर्तक इस धरती पर जन्म लेता है। मानो वे किसी युगनायक की प्रतीक्षा में महेंद्र पर्वत पर तपश्चर्या में लीन थे।
विचारणीय है कि सहस्रबाहु अर्जुन के वध में ऐसी क्या विशेष बात है जो इस निमित्त भगवान विष्णु को अवतार धारण करना पड़ा। यह रहस्य भी हरिवंश पर्व में ही खुलता है। वस्तुत: कार्तवीर्य अर्जुन को दो भुजाओं से हजार भुजाओं वाला होने का वरदान भी भगवान विष्णु के ही अवतार दत्तात्रेय ने दिया था। दत्तात्रेय, परशुराम के पूर्ववर्ती अवतार कहे गए हैं।
तेन हैहयराजस्य कार्तवीर्यस्य धीमत:।
वरदेन वरो दत्तो दत्तात्रेयेण धीमता।।108।।
एतद् बाहु द्वयं यत्ते मृधे मम कृतेऽनघ:।
शताधिक दश बाहूनां भविष्यन्ति न संशय:।।109।।
(अध्याय 41, हरिवंश पर्व, महाभारत खिलाध्याय)
इस प्रकार सहस्रार्जुन ने वरदान की अमोघ शक्ति पाकर प्रजा का भयंकर उत्पीड़न किया, हर इच्छित वस्तु की लूट-खसोट करते हुए जमदग्नि जैसे तपस्वी की हत्या कर दी। उसने अपनी शक्ति के दर्प में चूर होकर अपनी दुर्दम्य हजार भुजाओं से एक बार तो मां नर्मदा के जल प्रवाह तक को रोक दिया। ऐसे वर प्राप्त महाबली का वध करने हेतु विष्णु को ही पुन: अवतार ग्रहण करना पड़ा।
कालांतर में परशुराम जी युगनायक श्रीराम की भी परीक्षा लेते हैं। अपने रौद्र रूप और पराक्रम से वे उन्हें भयभीत करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु जब यह भली-भांति देख लेते हैं कि यह सर्वगुण संपन्न, धर्मरक्षक क्षत्रिय राजकुमार ही वर्तमान में दुष्टों का संहार करने में समर्थ है, तो बिना युद्ध किए पराजय स्वीकार कर लेते हैं और विनम्रतापूर्वक अपनी दिव्य शक्तियां उन्हें अर्पित कर पुन: नेपथ्य में चले जाते हैं। आज सत्ता और पदलिप्सा की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में जब 80-85 वर्ष के जीर्ण-शीर्ण वृद्ध भी सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं, ऐसे में भगवान परशुराम का यह चरित्र अत्यंत मार्गदर्शक और प्रेरणास्पद है।
डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर जैसे राष्ट्रनायक को केवल दलित वर्ग के नायक के रूप में देखा अथवा प्रचारित किया जाए। परशुराम किसी एक वर्ग, एक क्षेत्र या एक समुदाय के महानायक नहीं, अपितु संपूर्ण भारतवर्ष के समग्र समाज के महानायक हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना गया।
यहां यह विचार प्रासंगिक है कि आज कुत्सित राजनैतिक उद्देश्यों से परशुराम को ब्राह्मणों का प्रतिनिधि मानकर उन्हें क्षत्रियहन्ता के रूप में प्रचारित कर दोनों वर्णों के बीच वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं, जबकि भारतीय चित्त महापुरुषों को उनके जातीय संदर्भ में न देख कर संपूर्ण समाज के मार्गदर्शक प्रतिनिधि के रूप में देखता आया है। यह दृष्टि उसी तरह दुर्भाग्यजनक है, जैसे डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर जैसे राष्ट्रनायक को केवल दलित वर्ग के नायक के रूप में देखा अथवा प्रचारित किया जाए। परशुराम किसी एक वर्ग, एक क्षेत्र या एक समुदाय के महानायक नहीं, अपितु संपूर्ण भारतवर्ष के समग्र समाज के महानायक हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना गया।
अतिरंजित चित्रण
वस्तुत: पौराणिक वाड्मय में परशुराम द्वारा 21 बार क्षत्रियों के संहार का वर्णन हो या श्रीराम द्वारा परशुराम के दर्पदलन का वर्णन, दोनों ही प्रसंगों में अतिरंजित चित्रण मिलता है। जब परशुराम की महत्ता का प्रसंग आता है तो यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि समूल क्षत्रिय नाश ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। वहीं जब श्रीराम का प्रसंग आता है तो यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि मानो परशुराम कोई खलनायक हों। अत: इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए कि जिस विभूति को भगवान विष्णु का अवतार माना गया, उसके सकारात्मक पक्ष के स्थान पर नकारात्मक पक्ष की चर्चा क्यों अधिक हुई? हमारे वाड्मय में परशुराम को प्रचंड क्रोधी, हिंसा प्रिय और अत्यंत पराक्रमी पुरुष क्यों दिखाया गया?
परशुराम के संबंध में विचार करते समय यह तथ्य आवश्यक रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि जिस काल में भगवान परशुराम की कीर्ति दिग्दिगंत में व्याप्त थी, तब तक श्रीराम का आविर्भाव नहीं हुआ था। परशुराम जब अपने पराक्रम से जीती हुई पृथ्वी को कश्यप ऋषि को दान कर महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गए, उसके बाद राम का जन्म हुआ। रोचक तथ्य यह है कि विष्णु के दशावतारों में परशुराम एकमात्र ऐसे अवतार हैं जो आगामी अवतार के हो जाने पर भी सशरीर जीवित रहते हैं। अन्य सभी अवतारों में एक अवतार की लीलाओं का संवरण होने के बाद ही दूसरा अवतार धारण किया गया। परशुराम और राम इसके अपवाद हैं, जहां पुराने और नए अवतारों का संगम होता है। अगला अवतार हो जाने पर पिछले अवतार की चमक को फीका हो जाना स्वाभाविक ही है। आगामी अवतार का अधिक उज्ज्वल होना हमारे उत्कर्ष का ही सूचक है। यह किसी विभूति की अवमानना नहीं, अपितु जीवन के विकास की स्वाभाविक गति है। यह हमारी प्रगतिशीलता की पहचान है।
राम भारत के सर्वाधिक वंदनीय भगवत् स्वरूप और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। अत: उनके सामने परशुराम का चरित्र निष्प्रभ हो जाता है। महाकवि तुलसीदास ने मानस में रोचकता एवं लीला मंचन की दृष्टि से नाटकीयता प्रस्तुत करने के लिए लक्ष्मण-परशुराम संवाद को मनोरंजक बनाने की चेष्टा की। इससे परशुराम का चरित्र कुछ धूमिल हो गया।
दो युगों के प्रतिनिधियों का मिलन
वाल्मीकि रामायण सहित सभी प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, परशुराम और राम का संघर्ष दो वर्णों या किन्हीं दो समूहों के प्रतिनिधियों का संघर्ष नहीं, अपितु दो युगों के प्रतिनिधियों का मिलन है जो असाधारण घटनाओं के साथ घटित हुआ। यह एक बीते हुए युग के महानायक द्वारा आगामी युग प्रवर्तक महानायक को अपनी दिव्य शक्तियां प्रत्यर्पित करने की एक विलक्षण घटना थी। जो कुछ संघर्ष और विवाद कवियों ने वर्णित किया है, वह घटना में रोमांच और रोचकता उत्पन्न करने के साथ ही पुरुषोत्तम श्रीराम की श्रेष्ठता प्रकट करने के लिए किया था। यह स्वाभाविक रूप से अपेक्षित भी था और समयानुकूल भी।
राम ही समकालीन विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं। ’शिव धनुष’ भंजन के बाद इसीलिए वे अपना ‘वैष्णव धनुष’ भी राम को चढ़ाने के लिए देते हैं। राम जब सहज ही इस वैष्णव धनुष पर चाप चढ़ा देते हैं तो परशुराम उनके प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। वे शांत चित्त और सहज भाव से अपनी पराजय स्वीकार कर, राम को विष्णु का साक्षात् अवतार मान पुन: महेंद्र पर्वत की ओर लौट जाते हैं।
वस्तुत: शिव धनुष के भंग होने की घटना के साथ जो दूसरी महत्वपूर्ण घटना राम-परशुराम के मध्य घटी, उस पर ध्यान न देने के कारण ही हम भ्रामक या सतही निष्कर्षों के शिकार हो जाते हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भूमंडल पर दो ही धनुष दिव्य और श्रेष्ठतम थे, जो विश्वकर्मा के बनाए हुए थे। उनमें से एक शिव के पास था और दूसरा विष्णु के पास। जनक के यहां शिव वाला धनुष ही रखा हुआ था, जिसे श्रीराम ने तोड़ डाला। दूसरा उससे भी अधिक प्रचंड ‘वैष्णव धनुष’ था जो उस समय परशुराम के पास था। महेंद्र पर्वत पर शांत चित्त होकर तपस्या करने वाले भगवान परशुराम शिव धनुष भंग की सूचना मिलते ही दौड़ पड़ते हैं और राम से आ टकराते हैं। वाल्मीकि रामायण में परशुराम श्रीराम से कहते हैं-
इमे द्वे धनुषी श्रेष्ठे दिव्ये लोकाभिपूजिते।
दृढे बलवती मुख्ये सुकृते विश्वकर्मणा।।11।।
अनुसृष्टं सुरैरेकं त्र्य्म्बकाय युयुत्सवे।
त्रिपुरघ्नं नरश्रेष्ठ भग्नं काकुस्थ्य यत्त्वया।।१२।।
इदं द्वितीयं दुर्धर्ष विष्णोर्दत्तं सुरोत्तमै:।
तदिदं वैष्णवम् राम धनु: पर पुरंजयम्।।13।।
(वाल्मीकि रामायण, सर्ग-76 )
अर्थात् हे रघुनंदन! विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अत्यन्त दृढ़ और शक्ति संपन्न, ये दो धनुष सबसे श्रेष्ठ और दिव्य थे। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है। इनमें से एक को देवताओं ने त्रिपुरासुर का विनाश करने के लिए भगवान शंकर को दे दिया था। यह वही धनुष था जिसे तुमने तोड़ डाला। दूसरा यह मेरे हाथ में है, विश्वविख्यात ‘वैष्णव धनुष’, जो देवताओं ने भगवान विष्णु को दिया।
परशुराम यह देखना चाहते थे कि जिसने इन दो सर्वश्रेष्ठ धनुषों में से एक को खंडित कर दिया, क्या वह दूसरे धनुष को भी साध सकता है? वे राम की यह परीक्षा लेने के लिए ही आते हैं। राम को ललकार कर वे सबके सामने यह उजागर कर देना चाहते हैं कि राम ही समकालीन विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं। ’शिव धनुष’ भंजन के बाद इसीलिए वे अपना ‘वैष्णव धनुष’ भी राम को चढ़ाने के लिए देते हैं। राम जब सहज ही इस वैष्णव धनुष पर चाप चढ़ा देते हैं तो परशुराम उनके प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। वे शांत चित्त और सहज भाव से अपनी पराजय स्वीकार कर, राम को विष्णु का साक्षात् अवतार मान पुन: महेंद्र पर्वत की ओर लौट जाते हैं।
वाल्मीकि ने इस घटना का अंत जिस तरह वर्णित किया है, वह ध्यान देने योग्य है। वे शक्ति की प्रतिस्पर्धा और विजिगीषु वृत्ति का प्रसंग नहीं, वरन् जगत की रक्षा और धर्म पालन के लिए दैवीय शक्तियों के पारस्परिक सम्मान एवं अभिनंदन का क्षण है। आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं-
रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्य: प्रपूजित:।
तत: प्रदक्षिणीकृत्य: जगामात्मगतिं प्रभु:।।24।।
(वाल्मीकि रामायण, सर्ग-76)
अर्थात् अंत में श्रीराम ने परशुराम जी का पूजन किया और परशुराम जी भी राम की परिक्रमा करके अपने स्थान महेंद्र पर्वत की ओर चले गए।
वाल्मीकि रामायण, जो कि भगवान राम के पावन चरित का प्रथम महाकाव्य है, परशुराम-राम के मिलाप को संघर्ष के रूप में नहीं, समन्वय के संदेश के रूप में चित्रित करती है। राम द्वारा शिव धनुष को भंग कर मानो यह संदेश दिया गया कि पुरातन काल के अस्त्रों का युग अब समाप्त हो गया। (‘टूटत छुअई पिनाक पुराना’-तुलसी) ये अस्त्र-शस्त्र कालातीत हो चले हैं। भयंकर राक्षसों के वध की पटकथा अब नए अस्त्र-शस्त्रों के बल पर लिखी जानी है।
इस प्रकार समस्त लोकों के हित की कामना से तपस्या में रत परशुराम आज भी महेंद्र पर्वत पर निवास करते हैं। वेद व्यास कहते हैं-
अद्यापि च हितार्थ लोकानां भृगुनंदन:।
चरमाणस्तपो दीप्तम् जामदग्न्य: पुन: पुन:।।
तिष्ठते देववत् धीमान् महेंद्रे पर्वतोत्तमे।।119।।
(अध्याय 41, हरिवंश पर्व, महाभारत खिलाध्याय)
ऐसे लोक हितैषी, लोकरक्षक भगवान परशुराम का जन्म अक्षयतृतीया-वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था।
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