मध्यकालीन भारतीय इतिहास में तोमर वंश के राजाओं की चर्चा बहुत कम हुई है, जबकि दिल्ली और मालवा के सर्वांगीण विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। दिल्ली शाखा के तोमरवंशी राजा अनंगपाल (12वीं सदी) का तो कहीं जिक्र ही नहीं है। वह तो हरियाणा के जैन महाकवि बुधश्रीधर ने ‘पासणाह चरिउ’ (पार्श्वनाथ चरित) में उसका वर्णन कर उसे स्मृतियों में धूमिल होने से बचा लिया।
दिल्ली के इतिहासकार कुंदनलाल जैन लिखते हैं कि तोमर साम्राज्य लगभग 450 वर्ष तक पल्लवित होता रहा। अनंगपाल तोमरवंश के संस्थापक थे। एक अन्य जैन कवि दिनकर सेनचित ने अणंगचरिउ ग्रंथ लिखा था, जो अब उपलब्ध नहीं है। लेकिन महाकवि धवल हरिवंस रास और धनपाल के बाहुबली चरिउ में उसका उल्लेख किया गया है। यदि वह ग्रंथ मिल जाए तो इतिहास की कई गुत्थियां सुलझ सकती हैं।
जैन साहित्य के इतिहास की खोज करने वाले 95 वर्षीय विद्वान प्रो.राजाराम जैन ने यदि 12-13वीं शती के कवि बुधश्रीधर द्वारा अपभ्रंश में रचित जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन चरित्र ‘पासणाह चरिउ’ की पांडुलिपि का संपादन व अनुवाद न किया होता तो दिल्ली और कुतुबमीनार के इतिहास की एक महत्वपूर्ण जानकारी कभी नहीं मिल पाती। बुधश्रीधर के साहित्य से ज्ञात होता है कि वे अपभ्रंश भाषा के साथ प्राकृत, संस्कृत भाषा साहित्य एवं व्याकरण के भी उद्भट विद्वान थे। पाणिनि से भी पूर्व शर्ववर्म कृत संस्कृत का कातंत्र व्याकरण उन्हें इतना पसंद था कि जब वे ढिल्ली (वर्तमान दिल्ली) की सड़कों पर घूम रहे थे तो सड़कों के सौंदर्य की उपमा तक कातंत्र व्याकरण से कर दी- ‘कातंत इव पंजी समिद्धु।’
अर्थात् जिस प्रकार कातंत्र व्याकरण अपनी पंजिका (टीका) से समृद्ध है, उसी प्रकार वह ढिल्ली भी पदमार्गों से समृद्ध है। बुधश्रीधर ने लिखा है, ‘‘ढिल्ली (दिल्ली) में सुंदर, चिकनी और चौड़ी सड़कों पर चलते-चलते तथा विशाल ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं को देखकर जब आगे बढ़ रहा था, तभी मार्ग में एक व्यक्ति ने जिज्ञासावश पूछा कि आप कौन हैं और कहां जा रहे हैं? मैंने कहा- मैं हरियाणा निवासी बुधश्रीधर नाम का कवि हूं।
एक ग्रंथ लिखते-लिखते थक गया था, अत: मन को ऊर्जित करने हेतु यहां घूमने आया हूं।’’ प्रश्नकर्ता अल्हण साहू था, जो समकालीन दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर (तृतीय) की राज्यसभा का सम्मानित सदस्य था। बुधश्रीधर उस समय अपभ्रंशभाषात्मक चंदप्पहचरिउ (चंद्रप्रभ चरित) ग्रंथ लिख रहे थे। अल्हण ने उन्हें ढिल्ली के नगरसेठ नट्टल साहू जैन से भेंट करने की सलाह दी थी। उसने दिल्ली में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। इस भेंट के दौरान नट्टल ने महाकवि को बताया था कि उसने दिल्ली में एक विशाल नाभेय (आदिनाथ) मंदिर बनवा कर उसके शिखर पर पंचरंगी झंडा भी फहराया और 8वें तीर्थंकर चंद्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा भी स्थापित करवाई। नट्टल साहू के कहने पर ही महाकवि ने पासणाह चरिउ की रचना की थी।
बुधश्रीधर ने ढिल्ली के इस स्थान का वर्णन करते समय गगन मंडल को छूते एक साल का वर्णन किया है। प्रो. राजाराम जैन ने अपनी विस्तृत प्रस्तावना में इसकी तुलना कुतुबमीनार से की है। वे लिखते हैं कि गगनचुंबी सालु का अर्थ कीर्ति स्तंभ है, जिसका निर्माण राजा अनंगपाल ने अपने किसी दुर्धर शत्रु पर विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। कवि ने भी उसका उल्लेख नाभेय मंदिर के निर्माण के प्रसंग में किया है। नट्टल साहू ने इस मंदिर का निर्माण शास्त्रोक्त विधि से करवाया था। बता दें कि जैन मंदिर वास्तुकला में मंदिर के द्वार पर मानस्तंभ अनिवार्य रूप से बनाया जाता है। अत: यह ‘गगणमंडलालग्गु सालु’ ही वह मानस्तंभ रहा होगा जिसे वर्तमान में कुतुब मीनार में तब्दील कर दिया गया।
बुधश्रीधर वर्णित वास्तुकला के उक्त दोनों अमर-चिह्न कुछ समय बाद ही नष्ट-भ्रष्ट हो गए। बाद में लोग भी इसे भूल गए। इतिहास मर्मज्ञ पं. हरिहरनिवास द्विवेदी ने बुधश्रीधर के संदर्भों का भारतीय इतिहास के अन्य संदर्भों के आलोक में गंभीर विश्लेषण कर यह सिद्ध कर दिया है कि कुतुबमीनार ही अनंगपाल तोमर द्वारा निर्मित कीर्ति स्तंभ है। कुतुबुद्दीन ऐबक (वि.सं. 1250) जब ढिल्ली का शासक बना, तब उसने विशाल नाभेय जैन मंदिर तथा अन्य मंदिरों को ध्वस्त करा उनकी सामग्री से नाभेय जैन मंदिर के प्रांगण में कुछ बदलाव कर कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद बनवाई। विद्वान भी मानते हैं कि यह मीनार कुतुबुद्दीन ऐबक से कम से कम 500 वर्ष पहले तो अवश्य विद्यमान थी।
27 मंदिरों को तोड़कर बनवाई मस्जिद
कुतुबमीनार के साथ बनी कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के मुख्य द्वार पर अरबी भाषा में एक शिलालेख है। उसमें कुतुबुद्दीन ऐबक ने लिखवाया है –
ई हिसार फतह कर्दं ईद मस्जिद राबसाखत बतारीख फीसहोर सनतन समा व समानीन वखमसमत्य अमीर उल शफहालार अजल कबीर कुतुब उल दौल्ला व उलदीन अमीर उल उमरा एबक सुलतानी अज्ज उल्ला अनसारा व बिस्ती हफत अल बुतखाना मरकनी दर हर बुतखाना दो बार हजार बार हजार दिल्लीवाल सर्फ सुदा बूददरी मस्जिद बकार बस्ता सदा अस्त॥
अर्थात् हिजरी सन् 587 (1191-92 ई.) में कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह किला विजय किया और सूर्यस्तंभ घेरे में बने 27 बुतखानों (मंदिरों) को तोड़कर उनके मसाले से यह मस्जिद बनवाई। एक-एक मंदिर 20-20 लाख दिल्लीवाल (दिल्ली में बने सिक्के का नाम) की लागत से बना था। पुरातत्त्व संग्रहालय के निदेशक रहे विरजानंद दैवकरणि ने मीनार के माप को लेकर लिखा है कि 238.1 फीट ऊंची मीनार का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा (ध्रुवतारे) की ओर है।
मीनार के प्रथम खंड में 10 (7 बड़ी, 3 छोटी), द्वितीय खंड में 5 तथा तीसरे, चौथे, पांचवें खंड में 4-4 खिड़कियां हैं। ये कुल 27 हैं। ज्योतिष के अनुसार, 27 नक्षत्र होते हैं। ज्योतिष व वास्तु की दृष्टि से दक्षिण की तरफ झुकाव देकर कुतुबमीनार का निर्माण किया गया है। इसीलिए सबसे बड़े दिन 21 जून को दोपहर में इतने विशाल स्तंभ की छाया भूमि पर नहीं पड़ती। इसी प्रकार, दिन-रात बराबर होने वाले दिन 21 मार्च और 22 सितंबर को भी दोपहर के समय इस विशाल स्तंभ के मध्यवर्ती खंडों की परछाई न पड़कर केवल बाहर निकले भाग की छाया पड़ती है और वह ऐसे दिखती है जैसे पांच घड़े एक-दूसरे पर औंधे मुंह रखे हुए हों।
वे लिखते हैं कि वर्ष के सबसे छोटे दिन 23 दिसंबर को दोपहर में इसकी छाया 280 फुट दूर तक जाती है, जबकि छाया 300 फुट तक होनी चाहिए। क्योंकि मूलत: मीनार 300 फुट की थी (16 गज भूमि के भीतर और 84 गज भूमि के बाहर = 100 गज = 300 फुट)। छाया 20 फुट कम इसलिए है कि मीनार के सबसे ऊपर के मंदिर का गुंबद जैसा भाग टूटकर गिर गया था। जितना भाग गिर गया, उतनी ही छाया कम पड़ती है। यानी मीनार का ऊपरी भाग न टूटता तो छाया भी 300 फुट ही होती। संभवत: मीनार के ऊपर 20 फुट की शिखर युक्त वेदी थी, जिसमें तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित थी जो बिजली आदि गिरने से खंडित हो गई या मुगल आक्रांताओं ने उसे तुड़वा दिया।
मीनार चूंकि वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना थी, अत: उस पर पत्थर लगवा कर अरबी में शिलालेख खुदवाकर उसे यथावत रहने दिया। प्रसिद्ध दार्शनिक व इतिहासकार श्री आचार्य उदवीर शास्त्री, श्री महेशस्वरूप भटनागर, श्री केदारनाथ प्रभाकर आदि अनेक शोधकर्ताओं ने 1970-71 में कुतुबमीनार और इसके निकटवर्ती क्षेत्र का गहन निरीक्षण किया था और मीनार की आधारशिला तक खुदाई भी कराई थी। इससे पता चला कि यह मीनार तीन विशाल चबूतरों पर स्थित है। पूर्व से पश्चिम में बने चबूतरे की लंबाई 52 फुट तथा उत्तर से दक्षिण में बने चबूतरे की लंबाई 54 फुट है। दो फुट का अंतर इसलिए है कि मीनार का झुकाव दक्षिण दिशा की ओर है ताकि इसके संतुलन को ठीक रखा जा सके।
इसी निरीक्षण काल में केदारनाथ प्रभाकर को मस्जिद के पश्चिमी भाग की दीवार पर बाहर की ओर एक प्रस्तर खंड पर एक त्रुटित अभिलेख देखने को मिला। उसके कुछ पद इस प्रकार पढ़े गए थे- सूर्यमेरु: पृथिवी यन्त्रै मिहिरावली यन्त्रेण। यहां इसे सूर्य मेरु नाम से अभिहीत किया गया है। कुछ विद्वान इसे खगोल विद्या से संबंधित ज्योतिष केंद्र के रूप में देखते हैं और इसका संबंध वराह मिहिर से जोड़ते हैं। प्रो. राजाराम जैन का दावा है कि यह मानस्तंभ है जो तीर्थंकरों के समवशरण के सामने होता है तथा जैन मंदिर वास्तुकला में मंदिर के प्रवेश द्वार के करीब बनाया जाता है। इस पर चारों दिशाओं में तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित होती है।
हरिवंश पुराण में सुमेरु पर्वत के 25 नाम गिनाए गए हैं, जिसमें सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ और सूरगिरि नाम भी हैं –
सूर्याचरणविख्याति: सूर्यावर्त: स्वयंप्रभ:।
इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धर्वणै: स वर्णित:।।
जैन आगमों में सुमेरु पर्वत का वर्णन है। उसके अनुसार जम्बूद्वीप 1 लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोलाकार है। यह बड़ा योजन है, जिसमें 2000 कोस यानी 4000 मील माने गए हैं। अत: यह जम्बूद्वीप 40 करोड़ मील विस्तार वाला है। इसमें बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। पृथ्वी में इसकी जड़ 1000 योजन मानी गई है और ऊपर 40 योजन की चूलिका है। सुमेरु पर्वत 10 हजार योजन विस्तृत और 1 लाख 40 योजन ऊंचा है। सबसे नीचे भद्रशाल वन है, इसमें बहुत सुंदर उद्यान-बगीचा है। इसमें नाना प्रकार के सुंदर वृक्ष-फूल लगे हैं। यह सब वृक्ष, फल-फूल वनस्पतिकायिक नहीं हैं, बल्कि रत्नों से बने पृथ्वीकायिक है। इस भद्रसाल वन में चारों दिशा में एक-एक विशाल जिनमंदिर है। इनका नाम है- त्रिभुवन तिलक जिनमंदिर। उनमें 108-108 जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं।
कुतुब परिसर की कुछ जैन मूर्तियां
बुध श्रीधर इस मंदिर परिसर का वर्णन करते हुए लिखते हैं, ‘जाहिं समय करडि घड घड हणंति’। इसका एक अनुवाद यह किया गया है कि यहां समय सूचक घंटा गर्जना किया करते हैं। अब आप कुतुब परिसर में भ्रमण करें तो वहां शायद ही कोई स्मारक ऐसा मिले जिस पर छोटी या बड़ी घंटियां उत्कीर्ण न हों। सैकड़ों खंभे, तोरण और मीनार की दीवारों पर चारों और घंटियां निर्मित हैं। हो न हो, इस स्थान पर कोई बड़ा धातु का घंटा भी रहा होगा जो प्रत्येक समय चक्र को अपनी ध्वनि द्वारा सूचित करता होगा। इन्हीं खंभों और छतों पर अनेक तीर्थंकर और देवियों की प्रतिमाएं भी साफ उत्कीर्ण दिखलाई देती हैं। मंदिर के परकोटे के बाहर की तरफ जमीन की तरफ पद्मावती देवी की उलटी प्रतिमा भी दिखलाई देती है, जिनकी पहचान उनके मस्तिष्क पर नागफण का चिह्न होने से होती हैं। कई खंभों पर जैन शासन देवी अंबिका आदि भी उत्कीर्ण हैं। प्रमाण स्वरूप कुछ चित्र दर्शनीय हैं-
इस वर्णन को पढ़ने के बाद आप बुधश्रीधर का पासणाह चरिउ की प्रशस्ति में उनके हरियाणा से दिल्ली प्रवेश पर देखे गए ऊंचे स्तंभ का वर्णन हू-ब-हू पढ़िए और स्वयं तुलना कीजिए। वे लिखते हैं- ‘‘जिस ढिल्ली-पट्टन में गगन मंडल से लगा हुआ साल है, जो विशाल अरण्यमंडप से परिमंडित है, जिसके उन्नत गोपुरों के श्री युक्त कलश पतंग (सूर्य) को रोकते हैं, जो जल से परिपूर्ण परिखा (खाई ) से आलिंगित शरीर वाला है ,जहां उत्तम मणिगणों (रत्नों) से मंडित विशाल भवन हैं, जो नेत्रों को आनंद देने वाले हैं, जहां नागरिकों व खेचारों को सुहावने लगने वाले सघन उपवन चारों दिशाओं में सुशोभित हैं, जहां मदोन्मत्त करटि-घटा (गज-समूह) अथवा समय सूचक घंटा या नगाड़ा निरंतर गर्जना करते रहते हैं और अपनी प्रतिध्वनि से दिशाओं-विदिशाओं को भी भरते रहते हैं।
जहिं गयणमंडलालग्गु सालु रण-मंडव-परिमंडिउ विसालु।
गोउर-सिरिकलसाहय-पयंगु जलपूरिय-परिहालिंगियंगु।।
जहिं जणमण णयणाणंदिराइं मणियरगण मंडिय मंदिराइं
जहिं चउदिसु सोहहिं घणवणाइं णायर-णर-खयर-सुहावणाइं।
जहिं समय-करडि घडघड हणंति पडिसद्दें दिसि-विदिसिवि फुंडति।।
इस बात की भी प्रबल संभावना है कि यह जो कुतुब मीनार है, सुमेरु पर्वत की रचना है जो शास्त्रोक्त विधि से निर्मित की गई थी।
पांडुक शिला
कुतुबमीनार परिसर में प्रवेश करने से पूर्व ही पूरब दिशा की तरफ एक और स्मारक बना है जो गोल आकृति का है और ऊपर की ओर तीन स्तर पर उसकी आकृति छोटी होती जाती है। गाइड बताते हैं कि इसे अंग्रेजों ने ऐसे ही बनवा दिया था। लेकिन इसे देखकर बुधश्रीधर का वह प्रसंग याद आ गया, जब नट्ल साहू ने यहां चंद्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। जैन परंपरा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आज भी शास्त्रोक्त विधि से वैसे ही होती हैं, जैसे प्राचीन काल में होती थी। उसमें तीर्थंकर के जन्म कल्याणक के बाद उनके जन्माभिषेक की क्रिया बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है, जिसमें सौधर्म इंद्र तीर्थंकर बालक को पांडुक शिला पर विराजमान कर उनका अभिषेक करवाने का अनिवार्य अनुष्ठान होता है। इसके लिए आज भी पांडुक शिला का निर्माण वैसे ही करवाया जाता है जैसा शास्त्र में उल्लिखित है। बहुत संभावना है कि यह वही पांडुक शिला है, जहां नट्टल साहू ने चंद्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी और जन्माभिषेक करवाया था।
सुप्रसिद्ध नरनाथ अनंगपाल ने अपने श्रेष्ठ असिवर से शत्रुजनों के कपाल तोड़ डाले, जिसने हम्मीर-वीर के समस्त सैन्य समूह को बुरी तरह रौंद डाला और बंदी जनों में चीर वस्त्र का वितरण किया, जो अनंगपाल दुर्जनों की हृदय रूपी पृथ्वी के लिए सीरू हलके फाल के समान तथा जो दुर्नय करने वाले राजाओं का निरसन करने के लिए समीर-वायु के समान है,
अनंगपाल की प्रशंसा और सरोवर का उल्लेख
बुधश्रीधर ने अपनी प्रशस्ति में अनंग नामक विशाल सरोवर का भी उल्लेख किया है- ‘पविउलु अणंगसरु जहिं विहाइ’, जो संभवत: दिल्ली के संस्थापक सम्राट अनंगपाल तोमर द्वितीय के नाम पर है। कवि ने अनंगपाल की प्रशंसा करते हुए उन्हें श्रीकृष्ण के समान बताते हुए लिखा है कि जो राजा त्रिभुवन पति प्रजाजनों के नेत्रों के लिए तारे के समान, कामदेव के समान सुंदर, सभा कार्यों में निरंतर संलग्न एवं कामी जनों के लिए प्रवर मान का कारण है, जो संग्राम का सेनानायक है तथा किसी भी शत्रु राज्य के वश में न होने वाला और जो कंस वध करने वाले नारायण के समान (अतुल बलशाली) है। उन्होंने अनंगपाल तोमर को नरनाथ की संज्ञा दी है- णरणाहु पसिद्धु अणंगवालु। वे कहते हैं कि ढिल्ली पट्टन में सुप्रसिद्ध नरनाथ अनंगपाल ने अपने श्रेष्ठ असिवर से शत्रुजनों के कपाल तोड़ डाले, जिसने हम्मीर-वीर के समस्त सैन्य समूह को बुरी तरह रौंद डाला और बंदी जनों में चीर वस्त्र का वितरण किया, जो अनंगपाल दुर्जनों की हृदय रूपी पृथ्वी के लिए सीरू हलके फाल के समान तथा जो दुर्नय करने वाले राजाओं का निरसन करने के लिए समीर-वायु के समान है, जिसने अपनी प्रचंड सेना से नागर वंशी या नागवंशी राजा को भी कंपित कर दिया था, वह मानियों के मन में राग उत्पन्न कर देने वाला है। इस प्रकार बुधश्रीधर अपनी प्रशस्ति में इतिहास के अछूते पहलु भी उजागर करते हैं और हम सभी को पुनर्विचार पर विवश करते हैं।
कुतुब का मतलब ध्रुवतारा
कुतुब मीनार संज्ञा से यह मान लिया गया कि इसका निर्माण कुतबुद्दीन ऐबक ने करवाया। यदि ऐसा होता तो उस पर वह इसका उल्लेख जरूर करवाता। कुतुब शब्द अरबी है और उसका अर्थ ध्रुव तारा के साथ-साथ किताब भी होता है। बहुत संभावना है कि नाभेय जैन मंदिर परिसर में निर्मित गगनचुंबी स्तंभ, जिसका वर्णन बुधश्रीधर करते हैं, वह जैन मानस्तंभ या सुमेरु पर्वत की प्रतिकृति था, जिसके सबसे ऊपर तीर्थंकरों की प्रतिमाएं विराजमान थीं।
शिलालेख पर अरबी में लिखे ‘सूर्य स्तंभ के घेरे में बने मंदिरों को तोड़कर’ से साफ है कि वे सुमेरु पर्वत के नीचे भद्रसाल वन में चारों दिशा में बने एक-एक विशाल जिनमंदिर हैं, जिनका नाम त्रिभुवन तिलक जिनमंदिर है। यह भी एक संयोग है कि बुधश्रीधर सम्राट अनंगपाल तोमर को राजा त्रिभुवनपति ‘तिहुअणवइ’ नाम से संबोधित करते हैं। उन दिनों दर्शनार्थी सुमेरु में ऊपर तक उन प्रतिमाओं के दर्शन करने जाते थे तथा खगोलशास्त्र में रुचि रखने वाले विद्वान यहां से ध्रुव तारे को बड़ी ही सुगमता से देखते थे। इसलिए जिस मीनार से कुतुब (ध्रुवतारा) देखा जाए, वह कुतुब मीनार नाम से प्रसिद्ध हो गई। लेकिन मुगल आक्रांताओं ने इसके ऊपर विराजमान तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाओं को तोड़ दिया और उसी के अवशेषों को मीनार की दीवारों में चुनवा दिया। कुतुब (ध्रुवतारा) और कुतुबुद्दीन ऐबक संज्ञा के समान होने से इसका नाम बदलने की जरूरत नहीं समझी गई और उसे इसका निर्माता मानने का भ्रम खड़ा करने में भी आसानी हुई।
1981 तक यह मीनार आम जनता के लिए खुली थी, लेकिन उसी साल एक दुर्घटना में भगदड़ मची और अनेक लोग मीनार के अंदर मर गए और मीनार के कई पत्थर उखड़ गए। उसके बाद इसे बंद कर दिया गया। ऊपर के जो पत्थर टूटे थे, उनके अंदर अनेक जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं निकली थीं, जिसके बारे में उन दिनों अखबारों में काफी सामग्री प्रकाशित हुई थी। आज वे प्रतिमाएं निश्चित रूप से पुरातत्व विभाग के पास सुरक्षित होनी चाहिए। अभी भी मीनार के पास कई खंभों में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं।
एक और संभावना हो सकती है। जैन साहित्य में जम्बूद्वीप का वर्णन मिलता है, जिसके मध्य में सुमेरु पर्वत है। इसकी प्रतिकृति जैन साध्वी गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीमाता जी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप में निर्मित की गई है। शास्त्रोक्त विधि से निर्मित उक्त सुमेरु पर्वत का अध्ययन करने और कुतुबमीनार को देखने पर उसकी बनावट से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह छोटा कुतुबमीनार है।
कुतुब परिसर का प्राचीन प्रवेश द्वार और उसका पूरा अधिष्ठान नाभेय मंदिर के प्रवेश द्वार जैसा ही लगता है। पहली शताब्दी की प्राकृत भाषा में आचार्य यति वृषभ द्वारा रचे जैन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में चौथे अधिकार में तीर्थंकर के समवशरण के सबसे पहले धूलिसालों का वर्णन है, जिसके चित्र की तुलना कुतुब परिसर के प्रवेश द्वार से की जा सकती है।
महरौली में प्राचीन जैन दादा बाड़ी भी है, जिसमें सुंदर श्वेताम्बर जैन मंदिर है। इसका जीर्णोद्धार किया गया है। यह महरौली के उन्हीं जैन मंदिरों की शृंखला का एक भाग है, जिन्हें ध्वंस करके कुतुबमीनार एवं उसके परिसर का निर्माण हुआ था। कुतुबमीनार के ही समीप लाडो सराय चौराहा तथा महरौली-गुरुग्राम मार्ग पर अहिंसा स्थल नाम से एक विशाल जैन मंदिर है, जिसे 20वीं शताब्दी में श्रेष्ठी स्व.प्रेमचंद जैन (जैन वाच) ने निर्मित कराया था। इसमें एक लघु पहाड़ी पर लाल ग्रेनाइट पत्थर की 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर की विशाल प्रतिमा खुले आकाश के नीचे स्थापित है।
इन सभी विषयों पर आग्रह मुक्त अनुसंधान की जरूरत है। इसके लिए एक बड़ी परियोजना बनानी होगी। ये हमारे भारत के गौरवशाली अतीत के ऐसे साक्ष्य हैं, जिन्हें दबाने के भरसक प्रयास किए गए। अब उन्हें सामने लाने का सार्थक प्रयास करना चाहिए।
(लेखक लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली के दर्शन संकाय में आचार्य हैं)
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