मानवाधिकार पर संकुचित अवधारणा छोड़ने की जरूरत

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हितेश शंकर

अभी पिछले दिनों अमेरिका दौरे पर गए हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयान की खूब चर्चा हुई। उन्होंने कहा था कि हम भी दूसरे देशों के मानवाधिकारों की स्थिति पर राय रखते हैं और इनमें अमेरिका भी शामिल है। पश्चिम में बैठकर भारत ऐसा बयान देगा, यह कभी किसी ने सोचा भी नहीं था। विशेषकर पश्चिमी मीडिया के लिए भी यह हैरानी की बात है क्योंकि उन्होंने मानवाधिकार की चौधराहट की पगड़ी अपने-आप ही अपने सिर पर बांध रखी है। भारत के लोगों को इस बात की प्रसन्नता थी कि विदेश नीति अपना रुख और तेवर दिखा रही है।

अमेरिका के सामने भी कोई खड़ा हो सकता है, यह भारत ने बताया है।
मगर यह केवल कूटनीतिक पैंतरे की बात नहीं है। मानवाधिकार अधिकार हैं या हित साधन का औजार हैं – दुनिया को अब इस दृष्टि से सोचना पड़ेगा। भारत ने यह बयान ही नहीं दिया, बल्कि यहां से एक बहस शुरू हो गई है। क्योंकि जब हम मानवाधिकार की बात करते हैं या सिविल सोसाइटी की बात करते हैं तो यह देखना चाहिए कि वास्तव में आपकी वरीयता क्या है और इसे लेकर आपकी सोच, अवधारणा और इससे भी आगे, ‘दर्शन’ क्या है?

जब इसकी परख होती है तो मुद्दा उठाने वालों का इतिहास खंगाला जाता है कि आप जो बात कर रहे हैं, वह सिर्फ बात करने के लिए नहीं कर रहे हैं। फिर आपकी संस्कृति में अगर खून के धब्बे हैं, तो वह भी सबको नजर आने लगती है। मानवाधिकार के मामलों में भी कुछ ऐसा ही है कि जो सबसे ज्यादा नसीहत देते हैं, लोगों को आंखें दिखाते हैं, उनका रिकॉर्ड इस मामले में सबसे ज्यादा खराब है। इसे दो-तीन तरीके से देखा जा सकता है-

दुनिया को अब इस दृष्टि से सोचना पड़ेगा। भारत ने यह बयान ही नहीं दिया, बल्कि यहां से एक बहस शुरू हो गई है। क्योंकि जब हम मानवाधिकार की बात करते हैं या सिविल सोसाइटी की बात करते हैं तो यह देखना चाहिए कि वास्तव में आपकी वरीयता क्या है और इसे लेकर आपकी सोच, अवधारणा और इससे भी आगे, ‘दर्शन’ क्या है?

  • एक तो पश्चिम में जहां पहले नस्लीय दुराग्रह का घृणित और रक्तरंजित इतिहास रहा और और आधुनिक काल में मानवाधिकार को पूंजीवाद का रणनीतिक औजार बनाया गया है।
  • दूसरा, चीन जैसे देश, जहां साम्यवादी चोले में वामपंथ तक सीमित वर्गीय पूंजीवाद है। और उत्पादन की भीमकाय चक्की में हर पल मानवाधिकारों को पीसा जाता है। खून और आंसू बहते हैं किंतु कोई खबर बाहर नहीं आती।
  • फिर तीसरा है- इस्लाम और क्रिश्चियनिटी जहां मानवाधिकार एक मजहब या वर्ग विशेष के लिए सीमित रखे गए हैं क्योंकि एक के लिए श्रेष्ठता शेष को जड़ से, निर्ममतापूर्वक समाप्त करने का लिखित आह्वान उनकी मजहबी किताबों का हिस्सा है।

जब हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो उपरोक्त सभी संदर्भों को लेते हुए हमें मानवाधिकार की परिभाषा सबसे पहले देखनी चाहिए

आखिर क्या है मानवाधिकार!
मानवाधिकार के प्रसंग में सबसे प्रख्यात अभिलेखों के रूप में वर्ष 1215 के इंग्लैंड के मैग्नाकार्टा अभिलेख, 1628 के अधिकार याचिकापत्र, 1679 के बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियिम, 1689 के अधिकार पत्र, 1789 के फ्रांस की प्रसिद्ध मानवाधिकार घोषणा, 1779 की अमेरिकी स्वतंतत्रा की घोषणा को माना जाता है। वर्ष 1936 में सोवियत संघ (रूस) में नागरिक अधिकारों को संवैधानिकता प्रदान की गई। 1946 में जापान, 1948 में स्विट्जरलैंड, 1950 में भारत में तथा 1954 में चीन में नागरिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था की गई। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को की गई। इसमे मानवाधिकारों से संबंधित 30 अनुच्छेद शामिल किए गए थे। मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 2 में उल्लेख किया गया है कि दुनिया के सभी मनुष्य अधिकारों के हकदार हैं। बिना किसी भेदभाव जैसे कि जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, संपत्ति, जन्म तथा राजनीतिक और सामाजिक राय या स्थिति में भेदभाव विहीन समाज की स्थापना करना ही इसका मूल कार्य है।

इसमें मानवाधिकार उल्लंघन के प्रकार बताए गए हैं-

  • उल्लंघन या तो राज्य द्वारा जान-बूझकर किया जा सकता है और या राज्य द्वारा उल्लंघन को रोकने में विफल रहने के परिणामस्वरूप हो सकता है।
  • उल्लंघन प्रकृति में शारीरिक रूप से हिंसक हो सकता है, जैसे कि पुलिस बर्बरता, जबकि निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार जैसे अधिकारों का भी उल्लंघन किया जा सकता है, जहां कोई शारीरिक हिंसा शामिल नहीं है।
  • अधिकारों की रक्षा करने में राज्य की विफलता – यह तब होता है जब किसी समाज के भीतर व्यक्तियों या समूहों के बीच संघर्ष होता है।
  • यदि राज्य कमजोर लोगों और समूहों में हस्तक्षेप करने एवं उनकी रक्षा करने के लिए कुछ नहीं करता, तो यह प्रतिक्रिया उल्लंघन मानी जाएगी।
    इस आधार पर देखें तो आज जो मानवाधिकारों का बिगुल बजा रहे हैं, उन्होंने ने ही मानवाधिकारों की सबसे ज्यादा हत्या की थी।

अमेरिका में मानवाधिकार हनन
वर्ष 2021 की मानवाधिकार रिपोर्ट के अनुसार मानवाधिकार उल्लंघन के शीर्ष 5 देश मिस्र, सीरिया, यमन, चीन तथा ईरान हैं। इनमें अमेरिका का नाम नहीं है परंतु अगर अमेरिका पर नजर डालें तो –
# मानवाधिकार से संबंधित विश्व रिपोर्ट में कहा गया कि – अमेरिका अपनी मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहा है, विशेष रूप से नस्लीय न्याय के क्षेत्र में।
अमेरिका में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले आंखें खोलने वाले हैं। मोंटगोमरी में 1955 में एक अश्वेत महिला रोजा पार्क द्वारा अपनी सीट एक श्वेत व्यक्ति को देने से मना करने पर रोजा को जेल भेज दिया गया था। 21 फरवरी 1965 को एक रैली में भाषण देते वक्त अश्वेत मंत्री मैलकम एक्स को गोलियों से भून दिया गया था। पुलिस ने हड़बड़ी में 5 अश्वेतों को गिरफ्तार किया जिनमें दो को सजा हुई। नेटफ्लिक्स पर आई सीरीज इन दोनों को ही मैलकम एक्स की हत्या का आरोपी नहीं मानती जिसके बाद अमेरिकी पुलिस एक बार फिर इस केस को खोल रही है।

हाल की ही बात है, न्यूयॉर्क में रिचमंड हिल के पास 2 सिख युवकों को मार दिया गया। अप्रैल माह की शुरूआत में यहां एक बुजुर्ग सिख पर हमला हुआ था। पगड़ी पहनने वालों को ओसामा बिन लादेन कह कर बुलाया जाता है। वर्ष 2021 में इंडियाना राज्य में भी 4 सिखों की हत्या का मामला सामने आया। 5 अगस्त 2012 को अमेरिका के औक क्रीक शहर के विस्कॉन्सिन गुरुद्वारे में गोलीबारी की गई जिसमें 6 सिखों की मौत हो गई।


2013 में, अश्वेत किशोरी ट्रेवॉन मार्टिन को गोली मारने वाले जॉर्ज जिम्मरमैन के बरी होने के बाद, सोशल मीडिया पर हैशटैग #blacklivesmatter के साथ जमीनी स्तर पर प्रणालीगत नस्लवाद को समाप्त करने के लिए आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने तब और जोड़ पकड़ लिया जब 25 मई, 2020 को 46 वर्षीय अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड को 20 डॉलर के नकली बिल के जुर्म में मिनियापोलिस के एक श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन ने गिरफ्तार किया और उसकी गर्दन को अपने पैरों से 9 मिनट तक दबा कर रखा जिससे उसकी मौत हो गई। इसके बाद अमेरिका सहित यूरोपीय देशों (पेरिस एवं लंदन) मे भी ब्लैक लाइव्स मैटर के तहत पुलिस बर्बरता तथा नस्लीय हिंसा के विरुद्ध आंदोलन चलाया गया।

यूएनएचआरसी ने कई मौकों पर पाया है कि आस्ट्रेलिया में मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया। आस्ट्रेलिया में आप्रवासी समुदाय के साथ क्रूरता अन्तराष्ट्रीय स्तर पर निंदा होने के बाद भी जारी रही। आस्ट्रेलिया के मूलनिवासी समूहों द्वारा भी सरकार से अपने मानवाधिकारों के लिए अपनी संस्कृति, संपत्ति, जमीन, कानूनी समानता तथा नस्लीय समानता के लिए आंदोलन चलाए जा रहे है।

मानवाधिकार की आड़ में दानवाधिकार
मानवाधिकार को कुछ ने राजनीतिक वर्चस्व का औजार बनाया है और कुछ लोगों ने इसकी आड़ में अपना दानवाधिकार भी सिद्ध किया है। ये मानवाधिकार के नाम पर नक्सलियों की पैरोकारी करते हैं। गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट बताती है कि पिछले 10 साल में यानी 2011 से लेकर 2020 तक छत्तीसगढ़ में हुए 3,722 नक्सली हमलों में हमने 489 जवान खोए और करीब 736 आम लोगों की जान गई। पिछले 15 वर्षों में पूरे देश में हजारों लोगों और सैकड़ों पुलिसकर्मियों ने नक्सली हमले में अपनी जान गवां दी। इन मारे गए लोगों का मानवाधिकार नहीं था क्या?

एस. जयशंकर का कथन सिर्फ अमेरिका के लिए उलाहना मात्र नहीं है इसमें विश्व के लिए आह्वान है कि दुनिया को पूर्वग्रह, कुंठा और अन्याय छोड़, सही राह पर चलना पड़ेगा, विश्व को भारत की राह पर चलना पड़ेगा।

पिछले 15 वर्षों में विश्व के कई आंतकवादी संगठनों ने करीब 50,000 लोगों को जान से मारने का जिम्मा लिया। भारत में 1993 से लेकर अबतक हुए आतंकवादी हमलों में करीब 1200 लोग मारे गए तथा करीब 100 से अधिक पुलिस और सेना के जवान भी शहीद हो गए। मानवाधिकार के लिए सबसे बड़ा खतरा आतंकवाद साबित हो रहा है। परंतु अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं जैसे नारे लगाकर आतंकियों की पैरोकारी करने वाले भी हैं। दूसरी ओर, जहां पर वास्तव में मानवाधिकार कुचले जा रहे हैं, उसके बारे में कोई नहीं बोलता।

मानवाधिकार के जो अलंबरदार हैं, उनसे यह पूछना चाहिए कि जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हुआ था, तब करीब 30 लाख लोगों की हत्या हुई थी। यह मानवता के भीषणतम नरसंहारों में एक था। तब इनके मानवाधिकार के लिए किसी ने चूं तक भी की थी क्या? दूसरा, यदि चीन का उत्पादन तंत्र पश्चिम की अर्थव्यवस्था को नहीं झकझोरता को क्या पश्चिम में उईगर मुसलमानों के लिए कोई बात उठने वाली थी। तीसरा, मुस्लिम जगत में विक्टिम कार्ड खेलने की आदत है। परंतु चीन के साथ पींगे बढ़ाते पाकिस्तान ने क्या कभी उईगर मुसलमानों पर कुछ बोला? यानी यह मानवाधिकारों का मामला नहीं है बल्कि चुनिंदा चुप्पियों का खेल है।

सांस्कृतिक दर्शन महत्वपूर्ण
जब भारत मानवाधिकार की बात कहता है तो उसके कहने का आधार इसलिए है क्योंकि हम ब्लैक लाइव्स मैटर जैसी सीमित सोच और राजनीतिक उद्देश्य से छेड़े गए संकीर्ण आंदोलन के पिछलग्गू भर नहीं हैं। हम आॅल लाइव्स मैटर की बात करने वाला समाज और राष्ट्र हैं।
भले ही पश्चिमी पूंजीवाद और इसके साथ कदमताल करते चर्च का दामन उपनिवेशवादी बर्बरताओं और लाखों मूल निवासियों के खून से रंगा हो, या इस्लाम को बढ़ाने के लिए लाखों लोगों की हत्याएं की गई हों, भारत आॅल लाइव्स मैटर की बात करता है।
पश्चिम काले रंग पर कुछ भी कहे, हम तो काले रंग को श्याम और मां काली के रूप में पूजते आए हैं।
भले चर्च और इस्लाम लिंग के कारण भेद करते हों, परंतु हमने महिलाओं को पुरुष के उपभोग की ऐसी वस्तु कभी नहीं माना जिसमें ना रूह है और ना जिसके कुछ अधिकार हैं।

हम कहते हैं कि मानवाधिकार की बात होने पर उसके पीछे के इतिहास को भी परखा जाए। यह परख प्रारंभ तक जानी चाहिए और मुझे लगता है कि मानवाधिकारों का एक नया घोषणापत्र होना चाहिए जिसमें विभिन्न देशों के सांस्कृतिक दर्शन और उनके कारनामों का भी वर्णन होना चाहिए। अगर भारत में जाति के आधार पर अव्यवस्था है तो उससे कोई नकार नहीं, परंतु उसे हमारे समाज ने हमेशा मिलकर दुत्कारा ही है। परंतु पश्चिम इसे खूब बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है और इसकी आड़ में लाखों-करोड़ों लोगों की हत्याओं को ढक लेता है। अब ये चीजें स्वीकार नहीं की जा सकतीं। असल में वही चलेगा जो भारत के गांव-गांव, गली-गली, कूचे-कूचे में चलता है। यहां जब लोग अपने इष्ट की आराधना करते हैं तो-प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो – का उद्घोष करते हैं। यह मानवाधिकार का सबसे बड़ा चार्टर, सबसे बड़ा उद्घोष है।
जब भारत प्राणियों में सद्भावना की बात करता है तो यह दर्शन मानव से आगे जीव-जगत तक जाता है। दुनिया के लिए यह वह समय है जब उसे मजहबी या हित आधारित संकुचित अवधारणाओं को छोड़ना होगा।

एस. जयशंकर का कथन सिर्फ अमेरिका के लिए उलाहना मात्र नहीं है इसमें विश्व के लिए आह्वान है कि दुनिया को पूर्वग्रह, कुंठा और अन्याय छोड़, सही राह पर चलना पड़ेगा, विश्व को भारत की राह पर चलना पड़ेगा।

@hiteshshankar

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