बंगाल में जूट उद्योग की हत्या

एक समय था जब बंगाल जूट उत्पादन में देश ही नहीं, दुनिया का सिरमौर था। इस कारण भारत को ‘गोल्डन फाइबर’ कहा जाता था। देश विभाजन के समय सूबे में 112 जूट मिलें थीं। लेकिन वामपंथी नीतियों और तृणमूल कांग्रेस की उपेक्षा के कारण एक-एक कर मिलें बंद होती गर्इं और जूट उद्योग मरणासन्न स्थिति में पहुंच गया

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अंबा शंकर वाजपेयी

अंग्रेजों ने 1859 में पश्चिम बंगाल (अविभाजित बंगाल) में कलकत्ता के पास रिसरा में ‘आकलैंड जूट मिल’ लगाई थी। यह देश की पहला जूट मिल थी। इसके पहले बंगाल में औद्योगिक तौर पर जूट उत्पादन नहीं होता था। अविभाजित बंगाल में जूट से बने उत्पाद गुणवत्ता की दृष्टि से उत्तम और विश्व प्रसिद्ध थे। खासकर मुर्शिदाबाद, जैसोर, खुलना व सातखीरा क्षेत्रों में उत्तम गुणवत्ता वाले सुनहरे भूरे रंग वाले जूट की खेती होती है, इसलिए भारत को ‘गोल्डन फाइबर’ देश कहा जाता था। बंगाल में पैदा होने वाले इस विशिष्ट जूट की दुनिया के बाजार में हिस्सेदारी 50 प्रतिशत और भारत के जीडीपी में जूट उद्योग की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत थी। जैसोर, खुलना व सातखीरा से जूट के पाट (धागा या तंतु) के औद्योगिक उपयोग के लिए ब्रिटिश इंडिया ने हुगली नदी के दोनों किनारों नादिया, दमदम, हुगली, हावड़ा, श्रीरामपुरव, बैरकपुर में 112 जूट मिलों की स्थापना की थी। क्योंकि जूट के पाट को सड़ाने के लिए इन इलाकों में प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध था। साथ ही, सड़क व जलमार्ग से जुड़े होने के कारण इन मिलों तक कच्चा माल लाना और वहां से तैयार माल को देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाना आसान था। उस दौर में जूट उद्योग सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र था और इससे 4.30 लाख लोग जुड़े हुए थे।

बंटवारे के बाद बंटाढार
1947 तक पूरी दुनिया में बंगाल के जूट उद्योग का वर्चस्व था। विभाजन के बाद जूट मिलें तो यहीं रह गई, पर जेस्सोर, खुलना और सातखीरा जहां उत्तम गुणवत्ता वाले जूट की पैदावार होती थी, वे इलाके पूर्वी पाकिस्तान में चले गए। यहीं से बंगाल की जूट मिलों की बदहाली शुरू हुई। जूट उत्पादन में जिस बंगाल को दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक राज्य का दर्जा हासिल था, धीरे-धीरे उसने यह दर्जा खो दिया। नादिया, मुर्शिदाबाद और 24 उत्तर परगना के बशीरहाट से उद्योगों को कच्चा माल मिलता था, लेकिन इसकी गुणवत्ता वैसी नहीं थी। इस कारण जूट उत्पादों जैसे टाट, बोरियों की मांग घटकर 15 प्रतिशत पर आ गई।

1977 में जब राज्य में वाममोर्चे की सरकार बनी, तब आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल की कमर टूट चुकी थी। फिर भी उद्योग चालू थे। लेकिन वामपंथी सरकार की आर्थिक नीतियों ने पहले से ही दम तोड़ रहे उद्योगों को तहस-नहस कर दिया। जूट उद्योग में स्थापना के समय वाली तकनीक या मशीनों का ही प्रयोग होता रहा। कारण, वामपंथी सरकार तकनीक के उन्नयन के सख्त खिलाफ थी। इस वजह से जूट की खेती से लेकर उद्योगों तक में उच्च तकनीक नहीं आ पाई।

विभाजन के बाद बंगाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। पूर्वी पाकिस्तान और बंगाल से भी पलायन हुआ, तो जूट मिलों में काम करने वाले श्रमिक और जूट उत्पादक किसान भी पलायन कर गए। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान जब बांग्लादेश बना तो वहां के किसान स्थानीय मिलों को जूट बेचने लगे। इससे पश्चिम बंगाल की जूट मिलों को कच्चा माल मिलना बंद हो गया और जूट उद्योग बदहाल होता गया। उसी समय अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने के लिए भारत में ‘हरित क्रांति’ की नींव रखी गई। सिंचाई के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाएं शुरू हुई और नहरों का जाल बिछाया गया। हरित क्रांति के कारण परंपरागत खेती को भारी नुकसान हुआ, क्योंकि सिंचाई की सुविधा मिलने पर किसानों का झुकाव नकदी फसलों की ओर हुआ। परंपरागत कृषि उनके लिए पहले से ही घाटे का सौदा थी। लिहाजा, बंगाल के किसान ने जूट छोड़ कर धान, आलू या वैसी फसलें उगाने लगे, जिनमें मेहनत तो कम लगती ही थी, फसलें बेचने पर बाजार से तुरंत पैसे भी मिल जाते थे। कालांतर में आलू के भंडारण के लिए शीतगृह आदि भी बने। इसी समय दुनिया में प्लास्टिक की बोरियों का चलन शुरू हुआ। ये हल्की थीं, जल्दी खराब भी नहीं होती थीं और जूट की बोरियों की तुलना में इनके दाम भी कम थे। लिहाजा प्लास्टिक से बने उत्पादों ने जूट का स्थान ले लिया। यहां तक कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) जो अनाजों के भंडारण के लिए जूट की बोरियों व थैलों का उपयोग करता था, उसने भी प्लास्टिक की बोरियों व थैलों का उपयोग शुरू कर दिया। इन वजहों से जूट उद्योग पिछड़ता चला गया।

वामपंथी शासन में कसर पूरी
1977 में जब राज्य में वाममोर्चे की सरकार बनी, तब आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल की कमर टूट चुकी थी। फिर भी उद्योग चालू थे। लेकिन वामपंथी सरकार की आर्थिक नीतियों ने पहले से ही दम तोड़ रहे उद्योगों को तहस-नहस कर दिया। जूट उद्योग में स्थापना के समय वाली तकनीक या मशीनों का ही प्रयोग होता रहा। कारण, वामपंथी सरकार तकनीक के उन्नयन के सख्त खिलाफ थी। इस वजह से जूट की खेती से लेकर उद्योगों तक में उच्च तकनीक नहीं आ पाई। इस तरह वामपंथी सरकार की नीतियों ने जूट उद्योग ही नहीं, बल्कि दूसरे उद्योगों को भी चौपट कर दिया। वामपंथियों ने सत्ता में आते ही राज्य में एक नई संस्कृति को जन्म दिया। वह थी ‘बंद, हड़ताल और यूनियनबाजी।’ इसके कारण जो उद्योग चालू हालत में थे, वे भी लगातार बंद रहने लगे। नादिया, 24 उत्तर परगना और मुर्शिदाबाद में जो जूट पैदा होता था, उसकी गुणवत्ता पहले से ही अच्छी नहीं थी, ऊपर से रोज-रोज की हड़ताल के कारण उत्पादन प्रभावित हुआ। इन वजहों से बंगाल का जूट उत्पाद अंतराष्ट्रीय बाजार में पिछड़ते गए। मालिकों के लिए मिल चलाना दूभर हो गया। लिहाजा उन्होंने घाटा सहने के बजाए मिल को ही बंद करना मुनासिब समझा।

नतीजा, भारत के लिए जो जूट उद्योग विदेशी मुद्रा कमाने का प्रमुख स्रोत था और बड़ी संख्या में सर्वाधिक रोजगार देता था, आज जीडीपी में उसका योगदान महज 2 प्रतिशत रह गया है। तीन दशक के बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और 2011 में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी। तब उम्मीद जगी कि बंगाल शायद फिर से अपना आर्थिक वैभव हासिल कर लेगा। लेकिन उम्मीद के विपरीत तृणमूल के शासनकाल में अभी तक 18 जूट मिलें बंद हो चुकी हैं। 50 हजार से अधिक लोग बेरोजगार हो चुके हैं। कारण, इस सरकार ने भी उसी संस्कृति को आगे बढ़ाया, जिसे वाममोर्चे की सरकार ने 34 साल तक चलाया।

राजनीतिक प्रपंच भी एक कारण
बंगाल में सत्ता पर काबिज होने से पांच साल पहले ही वामपंथी कुचक्र शुरू हो गया था। 1972 से 1977 तक जब सूबे में कांग्रेस की सरकार थी, तभी से वाम दलों ने सूबे की मिलों में काम करने वाले श्रमिकों को भड़काना शुरू कर दिया था। वामपंथियों की शह पर हड़ताल, बंद व यूनियनबाजी का दौर शुरू हुआ। वामपंथियों के श्रमिक संगठन सीटू के खिलाफ कांग्रेस ने भी अपने श्रमिक संगठन इंटक को उतारा। इनकी लड़ाई में मिल मालिक व श्रमिक पिसने लगे। श्रमिकों को यह सब्जबाग दिखा कर उकसाया गया कि हड़ताल और धरना-प्रदर्शन उनकी बेहतरी के लिए है। भले ही उद्योगों में उत्पादन ठप रहे, लेकिन उन्हें पूरा वेतन मिलेगा। राजनीतिक दलों की इस स्वार्थ की लड़ाई से उद्योगपतियों को नुकसान हुआ। उद्योग बंद होने लगे और लोग बेरोजगार होते गए। इससे राज्य की आर्थिक सेहत भी बिगड़ती चली गई। बेरोजगार श्रमिक दूसरे राज्यों में पलायन करने लगे।

1977 से 2011 तक राज्य में वाममोर्चे की सरकार रही। इस दौरान उनकी दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के कारण सूबे में निवेश नहीं हुआ। सत्ता में आने के बाद जूट मिलों के प्रति तृणमूल सरकार का रवैया भी उदासीन ही रहा। नतीजा, पश्चिम बंगाल उद्योग विहीन प्रदेश बनकर रह गया है। पश्चिम बंगाल में जूट की खेती को बढ़ावा देने और जूट के रेशे की गुणवत्ता के विकास के लिए 1953 में बैरकपुर में जूट शोध संस्थान की स्थापना भी की गई। लेकिन जूट की उन्नत किस्म के बीजों का विकास नहीं हो पाया। इसलिए किसानों ने भी जूट उत्पादन से मुंह मोड़ लिया। हालांकि, प्लास्टिक से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते हुए भारत सरकार जूट उत्पादों को फिर से प्रोत्साहित कर रही है।

एफसीआई द्वारा चीनी और अनाजों के भंडारण के लिए जूट के बोरों, थैलों आदि का 100 प्रतिशत उपयोग अनिवार्य कर दिया गया है। खाद्य वस्तुओं के भंडारण में भी यही नीति लागू की गई है। जूट मिल और जूट से बने उत्पाद स्थानीय स्तर पर 10 प्रतिशत लोगों को रोजगार मुहैया कराते हैं। लेकिन वाममोर्चा और तृणमूल सरकार की लचर कानून-व्यवस्था के कारण बड़े औद्योगिक घराने निवेशक पश्चिम बंगाल में निवेश करने से कतराते हैं। जूट की गुणवत्ता में सतत सुधार हो, यह सुनिश्चित करने के लिए जूट जूट शोध संस्थान व इससे जुड़े शोध संस्थानों में नई उच्च तकनीकि का उपयोग सुनिश्चित किया जा रहा है।

 

उद्योगों की बर्बादी के कारण
श्रमिकों का मनोबल तोड़ा: जूट मिलों को कच्चा माल तो स्थानीय किसानों से मिलता था, पर मिलों में काम करने वाले अधिकांश श्रमिक उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के होते थे। उन्हें हतोत्साहित किया गया। वामदलों और तृणमूल कांग्रेस की सरकारों ने इन्हें ‘बाहरी’ करार दिया।  कहा गया कि जूट मिलों या अन्य उद्योगों में काम करने वाले दूसरे राज्यों के लोग सरकार विरोधी होते हैं। इसलिए उन्हें सत्ता के लिए चुनौती माना गया और हड़ताल, तालाबंदी, धरना-प्रदर्शन को औजार बनाकर उन्हें हतोत्साहित किया गया। लिहाजा, ये श्रमिक बेहतर भविष्य की तलाश में दूसरे राज्यों का पलायन कर गए। साथ ही, जूट मिल मालिकों ने बिहार के कटिहार, आंध्र प्रदेश और असम आदि राज्यों में अपनी इकाइयां स्थापित कर लीं। 

किसानों को सही कीमत नहीं : जूट उत्पादक किसानों को फसल की उचित कीमत नहीं मिलना भी उद्योगों की बर्बादी का एक कारण रहा। साथ ही, जूट उत्पादों के निर्यात में कमी, जूट की गुणवत्ता में सुधार नहीं होना, श्रमिकों के वेतन में वृद्धि नहीं होना भी कारण रहे। श्रमिक नहीं मिलने के कारण जूट मिलें बंद हो रही हैं। स्थानीय राजनीतिक परिस्थितियों के कारण सूबे में श्रमिकों का शोषण चरम पर है, इसलिए दूसरे राज्यों के लोग यहां काम करने नहीं आते। इसके अलावा, मिल मालिकों का प्रतिस्पर्धी नहीं होना भी एक बड़ी वजह है। मिल मालिक केवल पैकेजिंग वाले उत्पाद ही बनाते हैं, जबकि जूट से कई तरह के उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं।
प्रतिस्पर्धा में पिछड़े : जूट को हतोत्साहित कर प्लास्टिक बढ़ावा दिया गया। लेकिन प्लास्टिक से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते हुए सरकारों ने फिर से जूट उत्पादन और उसकी गुणवत्ता की दिशा में काम शुरू किया। लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीन, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे बड़े महारथी आ गए। प्रतिस्पर्धी नहीं होने के कारण हमारा जूट उद्योग उनका सामना नहीं कर सका। ऊपर से चीन से जो करघे आए, उन्होंने श्रमिकों का रोजगार छीन लिया। दूसरी तरफ, बिचौलिए सीधे किसानों से जूट खरीद कर जूट मिलों को बेचने लगे। इस कारण भी जूट मिलों को कच्चा माल नियमित नहीं मिलता, जिसके कारण उत्पादन ठप हो जाता है। इन सबके बावजूद, जूट मिलों के बंद होने एक सबसे बड़ा कारण यह है कि जब अंग्रेज भारत से गए तो इन मिलों का कोई एक मालिक नहीं था। राजनीतिक खींचतान के कारण मालिक विहीन मिलों में ताला पड़ता गया। हालांकि राज्य में मारवाड़ी व्यापारियों ने कुछ मिलें खरीद कर उन्हें चलाना शुरू किया।

अब केवल 54 मिलें चालू
पश्चिम बंगाल में हुगली और हावड़ा में 11-11 जूट मिलें, उत्तर 24 परगना में 22, दक्षिण 24 परगना में 5, बर्दवान में 2, नादिया, कोलकाता व दिनाजपुर में 1-1 जूट मिल हैं। लेकिन इनमें से 54 मिलें ही चालू हैं। बीते तीन साल में 18 जूट मिलें बंद हो गई। बाकी बची मिलों में भी नियमित उत्पादन नहीं होता, क्योंकि उन्हें कच्चा माल समय पर नहीं मिल पाता। वहीं, राष्ट्रीय जूट मिल कार्पोरेशन की 5 में से 4 मिलें बंद हैं। राष्ट्रीय जूट मिल  कार्पोरेशन की स्थापना 1980 में इसलिए की गई थी, ताकि जूट उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके। लेकिन यह भी राजनीति की भेंट चढ़ गया।

देश में सर्वाधिक जूट मिल
जूट उद्योग के मामले में पश्चिम बंगाल अभी देश में शीर्ष स्थान पर है। सूबे में हुगली नदी के दोनों किनारों पर 3 से 4 किलोमीटर चौड़ी और 97 किलोमीटर लंबी पट्टी में जूट मिलों की स्थापना की गई है। रिसरा से नैहाटी तक 24 किलोमीटर लंबी पट्टी में इस उद्योग का सर्वाधिक केंद्रीयकरण हो गया है। रिसरा, बाली अगरपाड़ा, टीटागढ़, बांसबेरिया, कानकिनारा, उलबेरिया, सीरामपुर, बजबज, हावड़ा, श्यामनगर, शिवपुर, सियालदह, बिरलापुर, होलीनगर, बड़नगर, बैरकपुर, लिलुआ, बाटानगर, बेलूर, संकरेल, हाजीनगर, भद्रेश्वर, जगतदल आदि सूबे के प्रमुख जूट उद्योग केंद्र हैं।

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