श्रीलंका। नाम से ही नारियल के वृक्ष, दूर-दूर तक फैले चमकीले रेतीले तट और आनंद-किल्लोल की सहज कल्पना से चेहरा खिल उठता है। लेकिन ठहरिए! एक बड़ी बूंद सरीखी यह ऐतिहासिक द्वीपीय भू-आकृति जिसे देखते ही हम भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक प्रवाह में बहने लगते हैं, आज जैसे किसी ढलकते आंसू में बदल गई है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था ढह गई है।
परिस्थिति बदलने पर परिदृश्य के अर्थ ही अलग हो जाते हैं। लहरें मानो चट्टानों पर सिर पटक रही हैं। अपने काम में लगे रहने वाले लोग तख्तियां लेकर सड़कों, मैदानों में निकल आए हैं। अर्थव्यवस्था देश की रीढ़ होती है। चोट इसी रीढ़ पर है। भन्नाया युवा वर्ग मुट्ठियां भींचे राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से त्यागपत्र मांग रहा है।
कोरोना ने श्रीलंका के सबसे महत्वपूर्ण पर्यटन उद्योग को झकझोर कर रख दिया, मगर असली चोट उस दूसरे चीनी वायरस से पहुंची, जो चांदी के कलदार की शक्ल में था। जी हां! हम बात कर रहे हैं ड्रेगन के उस सस्ते कर्जजाल की, जिसने कई देशों के भविष्य पर फंदा डाल दिया है। बात श्रीलंका की है, लेकिन भारत के लिए इस बात के गहरे अर्थ हैं।
मालदीव, मॉरिशस, सेशेल्स या श्रीलंका, ये खाली छिटके हुए द्वीप नहीं हैं। भू-रणनीतिक दृष्टि से कहा जाए तो ये भारत के लिए सुरक्षा के पहरेदार हैं। सांस्कृतिक रूप से कहा जाए तो हमारी शांति समृद्धि के साझीदार हैं। इस क्षेत्र में इन सभी देशों के सामंजस्य को समझे बिना किसी एक देश के रूप में देखना ठीक नहीं है। भारत-श्रीलंका के बीच 2,500 साल से भी अधिक का पुराना संबंध है और दोनों पक्षों ने बौद्धिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं भाषायी सहयोग की विरासत का निर्माण किया है। श्रीलंका-भारत संबंधों का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी किया गया है। लेकिन चीन ने स्वार्थ के चलते इस क्षेत्र के समीकरण को गड़बड़ा दिया है, इसे दुनिया मान रही है।
खासतौर से श्रीलंका से लगा हुआ समुद्री रास्ता, जो सबसे महत्वपूर्ण है। इस रास्ते से चीनी माल की आपूर्ति दुनिया में और तेल की आपूर्ति चीन में इस तरह से होती है, जिस तरह से शरीर में जगलर वेन (ग्रीवा शिरा) होती है। चीन ने इसे अपनी मुट्ठी में लेने के लिए वहां पैसे की बरसात कर दी। खासतौर से 2012 के बाद, अगले 6 साल में चीन ने जो छलांग लगाई, उस छलांग की धमक शायद श्रीलंका सह नहीं सका। मालदीव की राजधानी माले में 2012 तक दूतावास तक नहीं था, लेकिन 6 साल में ही चीन आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और पैसा लुटाते हुए पूरे परिदृश्य पर छा जाता है।
इसी पैसे के बूते म्यांमार, मालद्वीप और श्रीलंका में चीन एक शक्ति की तरह तरह खड़ा हो जाता है। ऐसी शक्ति जो दिखती नहीं, मगर उनकी राजनीतिक शक्ति में लालच पैदा करती है, अर्थव्यवस्था में जकड़न पैदा करती है और सामाजिक व्यवस्थाओं में सिहरन पैदा करती है।
फिर से श्रीलंका पर लौटें। राष्ट्रपति बनने के बाद गोताबाया ने कुछ हालिया गलतियां की हैं, जिन्हें माना जा रहा है। इन गलतियों में क्या है? टैक्स कटौती है। या, जैविक खेती, जो निर्यात की जान थी। जैविक खेती में चाय और चावल जैसी महत्वपूर्ण वस्तुएं थीं। एकाएक जैविक खेती करने का फैसला ले लिया गया। लेकिन श्रीलंका पर असल चोट दूसरी चीजों से अलग थी। वह है कोरोना, जिसने देश के सबसे बड़े क्षेत्र पर्यटन को चौपट कर दिया। दूसरी चोट थी, विकास परियोजनाओं के नाम पर सस्ते कर्ज का जाल, जिसमें फंस कर श्रीलंका मछली की तरह तड़पने लगा।
विश्व बैंक के सुशासन संकेतक-2007 के अनुसार, यदि राजनीतिक अस्थिरता को छोड़ दें, तो अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में श्रीलंका की स्थिति सबसे अच्छी थी। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 1983 से 2009 तक श्रीलंका गृह युद्ध में उलझा रहा, फिर भी जीडीपी में 5 प्रतिशत की औसत वृद्धि बनी रही। 2012 तक देश में जीडीपी वृद्धि दर 8-9 प्रतिशत के उच्च स्तर पर थी। इस विकास गति को बनाए रखने के लिए श्रीलंका सरकार ने बुनियादी ढांचा- सड़क, बिजली, बंदरगाह इत्यादि पर निवेश की योजना बनाई और अपने जीडीपी का 17 प्रतिशत (लगभग 4.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का कर्ज लिया और उसमें फंस कर रह गया। आज श्रीलंका में मुद्रास्फीति लगभग 19 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। उसके पास विदेशी मुद्रा भंडार 2 बिलियन डॉलर से भी कम बचा है। सरकार ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया है और कहा है कि हम विदेशी कर्ज का भुगतान करने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल, श्रीलंका के सामने कोलंबो सिटी प्रोजेक्ट के नाम पर एक जाल बिछाया गया। सपने दिखाए गए कि इस परियोजना के पूरा होते ही श्रीलंका मालामाल हो जाएगा। यह बहुत महंगी परियोजना है और चीन के बीआरआई का एक हिस्सा भी है। 1.4 बिलियन डॉलर की लागत से बनने वाली इस परियोजना को 2041 में पूरा करने की योजना है। श्रीलंका में यह चीन का सबसे बड़ा निवेश है। परंतु योजना पूरी होने तक श्रीलंका बच पाएगा क्या? इतनी बड़ी परियोजना टिकाऊ कैसे रह पाएगी? उसका राजस्व मॉडल कैसा होगा? श्रीलंका ने यह नहीं सोचा और यहीं पर फंस गया, जबकि चीन इसी के लिए नजरें गड़ाए बैठा था। यह इसलिए भी कहना जरूरी है कि परियोजना जितनी बड़ी है, उसे साधने के साथ कमाई की संभावना भी नहीं दिख रही।
श्रीलंका के तत्कालीन नेतृत्व में कुछ ऐसे लोग थे, जो चीनी पक्ष में झुके रहे। इसलिए अस्तित्व दांव पर लगा दिया। कुछ लोगों को लगा कि वे भारत और चीन, दोनों से लाभ कमाएंगे। मगर मुनाफे के चक्कर में उन्होंने देश का भविष्य दांव पर लगा दिया। श्रीलंका ने 99 साल के पट्टे पर 116 हेक्टेयर जमीन चीन को दे दी। एक छोटे-से देश के लिए इतनी बड़ी परियोजनाएं, इतनी बड़ी कालावधि और इतनी ज्यादा जमीन! यह श्रीलंका पर मर्मांतक प्रहार है।
ये जो छोटे-छोटे द्वीप हैं, ये छिटकी हुई भू-आकृतियां भर नहीं हैं। इनमें संस्कृति सांस लेती है। एशिया को अगर जीवंत संस्कृतियों का पालना कहा गया है, तो भारत उसके केंद्र में है। धड़कता भारत इन सब जगह है। ये जो संबंध रहे हैं, वे सामंजस्य के हैं, संस्कृति के हैं एवं इतिहास के हैं। इसमें जकड़न नहीं है, फंदा नहीं है। इसलिए इन देशों को भी समझना पड़ेगा कि हम फौरी लाभ के लिए अपनी पीढ़ियों को कर्ज के कुएं में नहीं धकेल सकते।
@hiteshshankar
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