रामनवमी पर देशभर में एक दर्जन से अधिक स्थानों पर हमले हुए। हिंदू त्यौहारों और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति इस असहिष्णुता की आलोचना करने के बजाय भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग हमलावरों की ढाल बनकर खड़ा है। एनडीटीवी समेत कई प्रमुख मीडिया संस्थानों के पत्रकारों ने इस पर आपत्ति जताई कि मुस्लिम क्षेत्रों से रामनवमी की शोभायात्राएं क्यों निकाली जा रही थीं? वास्तव में यह विभाजनकारी मानसिकता है जिसे बहुत सोचे-समझे ढंग से मीडिया के जरिए व्यक्त किया जा रहा है। इसी तरह जेएनयू में रामनवमी के हवन में व्यवधान डालने के वामपंथी छात्रों के प्रयास को मीडिया ने ही सबसे पहले नॉनवेज खाने का विवाद बनाया।
गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड, हर जगह रामनवमी यात्राओं पर पूर्वनियोजित हमले हुए, लेकिन मीडिया में उसके पीछे के षड्यंत्र की कहानी नहीं मिलेगी। जिन पीड़ितों ने हिंसा में अपने दुकान, मकान गंवाए हैं, उनकी व्यथा दिखाने के बजाय ध्यान इस पर रहा कि दंगाइयों के मकानों पर बुलडोजर क्यों चला। इंडियन एक्सप्रेस ने छापा कि प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत बने मकान को भी ढहा दिए गए। यह भी एक फेक न्यूज थी जो दंगाइयों के विरुद्ध प्रशासन की कार्रवाई को प्रभावित करने के लिए छपवाई गई थी। जिस मकान की बात की जा रही है, वह हथियाई हुई भूमि पर बना था। एक सप्ताह पहले ही प्रशासन ने उसे तोड़ने का नोटिस दिया था।
इंडिया टुडे और आजतक ने भी यह झूठ फैलाने में पूरा योगदान दिया। चैनल के कांग्रेस के प्रति निष्ठावान संपादक ने मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र के साथ साक्षात्कार में यह शिकायत तक की कि हिंदुत्व के विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं की गई। यह हठ समझ से परे है कि हमला हिंदुओं की धार्मिक यात्रा पर हुआ, उनकी संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई, लेकिन कुछ हिंदुओं को भी आरोपी बनाया जाना चाहिए। भले ही उन पर झूठा केस ही क्यों न डालना पड़े। उक्त संपादक ने यूपी का उदाहरण दिया कि वहां दंगाइयों से वसूली के निर्णय पर न्यायालय ने रोक लगा दी है। इससे जुड़ा समाचार भी बाद में झूठ ही निकला था। दंगों में सारे तथ्य सार्वजनिक होने के बाद भी मीडिया का दुष्प्रचार करना आपत्तिजनक और दुर्भावनापूर्ण है।
आश्चर्य की बात यह कि किसी चैनल ने रात में इस घटना की कवरेज भी नहीं की। झारखंड सरकार से इस लापरवाही के बारे में कोई असुविधाजनक प्रश्न भी नहीं पूछे गए। यही भाजपा सरकार होती तो अच्छे कार्य के बाद भी मीडिया का एक वर्ग गुस्सा भड़काने के प्रयास में जुटा रहता।
यूपी के हाथरस में दंगे भड़काने के आरोपी सिद्दीक कप्पन को मीडिया का एक वर्ग आज भी पत्रकार बताता है। उसकी गिरफ़्तारी को प्रेस की स्वतंत्रता में व्यवधान बताता है। उच्च न्यायालय में उसकी जमानत पर सुनवाई में यूपी पुलिस ने वे सारे दस्तावेज जमा किए जिनसे सिद्ध होता है कि कप्पन पत्रकार नहीं, बल्कि पीएफआई कार्यकर्ता है। लेकिन इसे अधिकांश समाचार पत्रों और चैनलों ने दबा दिया। उस एनडीटीवी और टाइम्स आॅफ इंडिया ने भी, जो कप्पन को जेल से छोड़ने के लिए अभियान चलाते रहे हैं। क्या इन मीडिया संस्थानों से नहीं पूछा जाना चाहिए कि दंगे भड़काने के आरोपी एक कट्टरपंथी को पत्रकार साबित करने के लिए उनके अभियान के पीछे क्या मंशा थी?
दिल्ली सरकार के विज्ञापनों की नई खेप आ गई है। दैनिक जागरण में 14 अप्रैल को एक ही दिन पांच बड़े विज्ञापन छपे। नगर निगम के एकीकरण के लाभ के बजाय इस विषय में आआपा नेताओं के अनर्गल बयानों को प्रमुखता मिल रही है। दिल्ली भाजपा के सांसदों ने सोशल मीडिया के जरिए यहां स्कूलों की बुरी स्थिति को दिखाया, लेकिन दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने गुजरात जाकर वहां स्कूलों की स्थिति अच्छी न होने का दावा किया तो इसे दिल्ली के चैनलों और समाचार पत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कार्यकर्ता के बेटे द्वारा एक अवयस्क लड़की के बलात्कार और हत्या का समाचार भी नाममात्र का छपा। बंगाली मीडिया का भय तो समझ में आता है, लेकिन दिल्ली का मीडिया किस लालच में ममता सरकार के पैरों में समर्पण कर चुका है?
झारखंड के देवघर में त्रिकुट पर्वत पर रोपवे टूटने से लगभग 50 लोग कई घंटे फंसे रहे। पूरी रात झारखंड सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। अगले दिन बचाव कार्य आरंभ हुआ। आश्चर्य की बात यह कि किसी चैनल ने रात में इस घटना की कवरेज भी नहीं की। झारखंड सरकार से इस लापरवाही के बारे में कोई असुविधाजनक प्रश्न भी नहीं पूछे गए। यही भाजपा सरकार होती तो अच्छे कार्य के बाद भी मीडिया का एक वर्ग गुस्सा भड़काने के प्रयास में जुटा रहता।
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