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आईआईएम लोगो विवाद : निशाने पर संस्कृत और संस्कृति

आईआईएम के लोगो का विवाद कोई एकल उदाहरण नहीं है। इससे पहले कलाक्षेत्र फाउंडेशन, दूरदर्शन के ध्येय वाक्य सत्यं शिवम सुंदरम और केंद्रीय विद्यालय की प्रार्थना से ‘असतो मा सद्गमय’ को हटाने की चेष्टा की गई। इसके पीछे एक पूरा तंत्र है जो भारतीय संस्कृति को विनष्ट कर उसका ईसाईकरण करना चाहता है

by Chandra Prakash
Apr 20, 2022, 02:16 pm IST
in भारत, संस्कृति, गुजरात
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पिछले दिनों समाचार आया कि अहमदाबाद के भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) का प्रतीक चिन्ह बदला जा रहा है। इसमें संस्कृत के सूत्र वाक्य ‘विद्याविनियोगाद्विकास:’ को हटाया जाएगा। संस्थान की ओर से कहा गया कि ‘यह प्रतीक चिन्ह विदेशों के लिए है। संस्कृत में लिखा होने के कारण लोग इसे समझ नहीं पाते। इसलिए नया चिन्ह बनाया गया है।’ इस प्रस्ताव का संस्थान के ही लगभग 45 शिक्षकों ने कड़ा विरोध किया। सामान्य सी दिखने वाली यह घटना उस भारत देश में हो रही है, जिसके लिए पूरे विश्व में प्रचारित किया जाता है कि वहां बहुसंख्यक समाज प्रभुत्ववादी है और अल्पसंख्यकों में भय का माहौल है। राष्ट्रीय महत्व के एक संस्थान के प्रतीक चिन्हों में से संस्कृत का सूत्र वाक्य हटाना कोई सामान्य घटना नहीं है। यह एक सोचा-समझा अभियान है जो लंबे समय से चल रहा है। इसके पूरे स्वरूप को समझना आवश्यक है।

झूठ से उपजा संदेह
पहले बात आईआईएम अहमदाबाद में उठे वर्तमान विवाद की। शिक्षकों के भारी विरोध के बाद संस्थान की प्रबंध समिति ने प्रस्ताव वापस ले लिया है। उसने कहा है कि संस्कृत सूत्र वाक्य नहीं हटाया जाएगा। संस्थान के पूर्व छात्रों ने भी इसके विरोध में ‘आॅनलाइन अभियान’ चला रखा था। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में कुछ ऐसी बातें हुर्इं जो संदेहों को जन्म देती हैं। वर्तमान में प्रोफेसर एरोल डीसूजा आईआईएम अहमदाबाद के निदेशक हैं। संस्कृत पंक्ति हटाने के इस अभियान के पीछे उनकी ही रुचि बताई जा रही है। वैसे भी इतने बड़े निर्णय उच्च स्तर पर ही लिए जाते हैं। संस्थान की ओर से स्पष्टीकरण दिया गया कि लोगो में बदलाव का यह प्रस्ताव वर्ष 2011 से ही लंबित है। यही बात संदेह पैदा करती है क्योंकि यह दावा पूरी तरह असत्य निकला। 2011 में संस्थान के निदेशक रहे समीर बरुआ ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘मेरे समय में लोगो में बदलाव का कोई प्रस्ताव नहीं था।’ तो फिर यह झूठ किसे भ्रमित करने के लिए बोला गया?

वर्ष 1961 में प्रख्यात वैज्ञानिक विक्रम साराभाई ने अहमदाबाद के भारतीय प्रबंध संस्थान की स्थापना की थी। तब से लेकर आज तक इस संस्थान ने ढेरों प्रतिभाओं को चमकाने का कार्य किया है। इसकी साख केवल भारत में नहीं, बल्कि पूरे विश्व में है। संस्थान के छात्र-छात्राएं विश्व की सबसे बड़ी कंपनियों और संस्थानों के शीर्षस्थ पदों पर हैं। उनकी सफलता में कभी संस्थान का प्रतीक चिन्ह या उसका सूत्र वाक्य आड़े नहीं आया। ‘विद्याविनियोगाद्विकास:’ का अर्थ है विद्या के विनियोग अर्थात् आदान-प्रदान से इसका विकास होता है। इस एक छोटे से सूत्र वाक्य में मैनेजमेंट की ढेरों पुस्तकों का ज्ञान समाहित है। भला इससे किसी को क्या समस्या हो सकती है?

हिंदू घृणा अभियान!
वास्तव में समस्या आईआईएम के लोगो से नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा से है। इसका आरंभ तो तभी हो गया था जब मैकॉलेवादी व्यवस्था भारत में लागू की गई। लेकिन इसने जोर तब पकड़ा जब वर्ष 2004 में सोनिया गांधी के हाथों में सत्ता की लगाम आ गई। इस दौरान सनातन भारतीय प्रतीकों को कलंकित करने के काम खूब हुए। प्रसिद्ध लेखक और ‘धर्मा डिस्पैच’ के संपादक संदीप बालाकृष्ण इसे चर्च का प्रोजेक्ट मानते हैं। उनके अनुसार, ‘2004 के बाद से जो हिंदू घृणा अभियान आरंभ हुआ, उसके पीछे कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी संस्थागत शक्ति है। यह समस्या बाइबिल जनित है। अंग्रेजों ने भी अपने समय में यह काम आगे बढ़ाया था और स्वतंत्रता के बाद वही काम भारत के सेकुलरीकरण के नाम पर चल रहा है। उनका अंतिम लक्ष्य हिंदू संस्कृति को नष्ट करके भारत में अब्राहमिक व्यवस्था लागू करना है।’

वर्ष 2004 से 2014 में ही दूरदर्शन के ध्येय वाक्य ‘सत्यम शिवम सुंदरम्’ को हटाने के अनाधिकृत प्रयास हुए थे। कभी इसे औपचारिक रूप से हटाया नहीं गया, लेकिन धीरे-धीरे इसका प्रयोग बंद किया जा रहा था। इसी अवधि में कांग्रेस ने राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में अपनी कठपुतलियों को बिठाया, जिन्होंने बहुत प्रकट रूप में भारतीय संस्कृति को नष्ट करने और ईसाईकरण के अभियान को आगे बढ़ाया।

तंत्र की कठपुतलियां
ऐसी ही कठपुतलियों में एक उल्लेखनीय नाम है लीला सैमसन का। कभी प्रियंका वाड्रा को नृत्य सिखाने वाली लीला सैमसन को वर्ष 2005 में तमिलनाडु के कलाक्षेत्र फाउंडेशन का निदेशक बनाया गया। भारतीय संस्कृति से जुड़े राष्ट्रीय महत्व के इस संस्थान में लीला सैमसन ने जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया, वह था इसका प्रतीक चिन्ह बदलवाना। वर्ष 1936 में स्थापना के समय से कलाक्षेत्र के लोगो में नृत्य मुद्रा में भगवान गणेश का स्थान था। नया प्रतीक चिन्ह कहीं से भी कलात्मक और भारतीयता की छाप वाला नहीं कहा जा सकता। भरतनाट्यम और गंधर्ववेद जैसी कलाओं को संरक्षित और संवर्धित करने के उद्देश्य से बनी कलाक्षेत्र संस्था में लीला सैमसन पर करोड़ों रुपये के आर्थिक घोटालों के आरोप लगे। कुल मिलाकर उन्होंने भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के बजाय इस संस्था को अंदर ही अंदर खोखला करने का काम किया।

एरोल डीसूजा (निदेशक, आईआईएम) व लीला सैमसन

कभी प्रियंका वाड्रा को नृत्य सिखाने वाली लीला सैमसन
को वर्ष 2005 में तमिलनाडु के कलाक्षेत्र फाउंडेशन का
निदेशक बनाया गया। भारतीय संस्कृति से जुड़े राष्ट्रीय
महत्व के इस संस्थान में लीला सैमसन ने जो सबसे
महत्वपूर्ण कार्य किया, वो था इसका प्रतीक चिन्ह
बदलवाना। वर्ष 1936 में स्थापना के समय से
कलाक्षेत्र के लोगो में नृत्य मुद्रा में भगवान
गणेश का स्थान था। नया प्रतीक चिन्ह
कहीं से भी कलात्मक और भारतीयता
की छाप वाला नहीं कहा जा सकता।

संभवत: इसी योग्यता के चलते वर्ष 2011 में उन्हें सेंसर बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया। उन्हें फिल्म और संचार माध्यमों का कोई विशेष अनुभव नहीं था। यहां पर लीला सैमसन ने जो कांड किए, उन पर भी चर्च की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। फिल्मों का प्रमाणन करने वाली इस संस्था का आज जो हिंदू विरोधी चरित्र हम देखते हैं, उसका बड़ा श्रेय उन्हें ही जाता है। सेंसर बोर्ड से जितनी हिंदू विरोधी और भारत विरोधी फिल्में उनके कार्यकाल में पास हुई होंगी, संभवत: किसी अन्य के कार्यकाल में नहीं हुई होंगी। वर्ष 2012 में उनके समय में ही टी. दीपेश की मलयालम फिल्म ‘पिथविनम पुत्रानुम’ का सेंसर प्रमाणपत्र अटका दिया गया था। कारण केवल इतना कि इस फिल्म पर ईसाई संस्थाओं को कुछ आपत्ति थी। जबकि हिंदू धर्म पर भद्दी टिप्पणियों के बावजूद आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ को पास कर दिया गया था।
लीला सैमसन ने कई फिल्मों में केवल इसलिए काट-छांट कराई क्योंकि उनमें ईसाई या इस्लाम के लिए कुछ नकारात्मक बात थी। जबकि उसी अवधि में हिंदू विरोधी फिल्में बिना रोकटोक के पास हो रही थीं।

प्रोजेक्ट थेसेलोनिका
लेखक संदीप बालकृष्ण के अनुसार ‘भारतीय संस्कृति के ईसाईकरण का चर्च का प्रोजेक्ट पहले से चल रहा है। इसे प्रोजेक्ट थेसेलोनिका के नाम से जानते हैं। इसके पहले चरण में वामपंथियों के माध्यम से भारतीय जनमानस का अहिंदूकरण किया गया। उन्हें अपनी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास पर शर्म करना सिखाया गया। अब इसी अभियान का दूसरा चरण चल रहा है, जिसमें सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों में सभी भारतीय प्रतीकों को चुन-चुनकर मिटाया जा रहा है। लीला सैमसन हों या एरोल डीसूजा, नाम कुछ भी हो सकता है। सबके पीछे एक ही शक्ति है। देश में हिंदू घृणा का एक पूरा तंत्र पिछले कुछ वर्षों में विकसित हुआ है। सत्ता किसी की भी हो, उन्हें तो बस अवसर की प्रतीक्षा है।’
इस बात के पक्ष में एक और उदाहरण केंद्रीय विद्यालयों की प्रार्थना का है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई, जिसमें कहा गया कि केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना ‘असतो मा सदगमय’ उपनिषद् से ली गई प्रार्थना है और इससे अन्य मजहब वालों की भावनाओं को ठेस पहुंच रही है। वह याचिका भी जबलपुर के कांग्रेस के एक निकटवर्ती वकील द्वारा डाली गई थी। तब यह बात सामने आई थी कि जिस सर्वोच्च न्यायालय में इस याचिका पर सुनवाई होगी, स्वयं उसका ध्येय वाक्य भी ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ महाभारत से लिया गया है। क्या उसे भी हटाया जाएगा?

सरकारी वकील की आपत्ति के बाद भी न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया था। जिस तरह भारत में सरकारी संस्थानों के ध्येय वाक्य संस्कृत में हैं, उसी तरह पश्चिमी ईसाई देशों के शिक्षण और अन्य संस्थानों में लैटिन पंक्तियां प्रयोग होती हैं। ईसाई इन्हें बहुत गर्व के साथ अपना बताते हैं। लेकिन उन्हीं का चर्च भारत में संस्कृत के वाक्यों को ‘सांप्रदायिक’ और ‘समझ से परे’ होने की दलीलें गढ़ रहा है। जब भी हम ऐसा कोई प्रयास होते देखें तो उसे इक्का-दुक्का घटना समझने की भूल कदापि न करें। बहुत ध्यान से देखें कि उक्त प्रयास के पीछे कौन लोग हैं और उनके संपर्क कहां-कहां से हैं। एक समाज के रूप में यह हमारे अस्तित्व का प्रश्न है, यह कार्य सरकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता।

Topics: एरोल डीसूजालीला सैमसनIIM logo controversy: Sanskrit and culture on targetSanskrit mottoErrol D'SouzaLeela Samsonआईआईएम लोगो विवाद : निशाने पर संस्कृत और संस्कृतिसंस्कृत का सूत्र वाक्य
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